अविद्यामूलक जो द्रष्टा-दृश्य संयोग है, उसका अभाव 'हान' कहलाता है। यह हान ही द्रष्टा का कैवल्य है - यह योगशास्त्रीय मान्यता है। अविप्लवा (= सर्वथा मिथ्याज्ञानहीन) विवेकख्याति ही इस हान का उपाय है (द्र. योगसू. 2/26)। इस विवेकख्याति के द्वारा सभी क्लेश सर्वथा नष्ट हो जाते हैं, अतः द्रष्टा का स्वरूप में अवस्थान होता है (यही कैवल्य है)।
(सांख्य-योग दर्शन)
हिंसा
अन्य को पीडित करना अथवा पीड़ा देने की इच्छा होना हिंसा है। हिंसा-कर्म की अपेक्षा हिंसा का मानस रूप (इच्छा-रूप) अधिक दूषित है (अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि में)। केवल पीड़ा देना ही नहीं, अन्य को पीड़ित कर अपने को आनन्दित या सुखी करने का मनोभाव हिंसा के साथ युक्त रहता है। यह मनोभाव मूलतः द्वेषरूप क्लेश के कारण होता है। क्लेश चूकि अज्ञान है, इसलिए आत्मज्ञान के विकास के साथ-साथ हिंसावृत्ति क्रमशः नष्ट होती है। व्यवहारतः हिंसा लोभ, क्रोध और मोह पूर्वक होती है। यह हिंसा कृत होती है, कारित (दूसरों के द्वारा करवाई हुई) होती है तथा अनुमोदित (किसी के द्वारा प्रोत्साहित) भी होती है। संस्कारबल के अनुसार हिंसा मृदु, मध्य और तीव्र भी होती है। इस प्रकार हिंसा के 27 (= 3x3x3) भेद होते हैं। मृदु आदि के भी अवान्तर भेदों के अनुसार हिंसा के भेद बहुसंख्यक होते हैं - यह पूर्वाचार्यों ने दिखाया है। ऐसी मान्यता है कि हिंसाकारी व्यक्ति जीवित-अवस्था में नाना प्रकार के दुःख को भोगते रहते हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)
हेतुवाद
योगसूत्र 2/15 के व्यासभाष्य में इस वाद की चर्चा है दुःखःहानकारी आत्मा (जो 'हाता' है) का स्वरूप हेय (= अपलाप करने योग्य) नहीं हो सकता और न उसका स्वरूप उपादेय (= उपादान के योग्य) ही होता है। उपादान अर्थात् कार्यकारणरूप में आने पर आत्मा में परिणाम स्वीकार करना होगा और इस प्रकार कभी भी परिणामहीन मोक्ष नहीं हो सकेगा, क्योंकि जो कार्य होता है, वह विनाशी होता है। यह दृष्टि ही हेतुवाद है।
(सांख्य-योग दर्शन)
हेय
हेय = त्याज्य। योगशास्त्र में अनागत दुःख ही 'हेय' शब्द से लक्षित होता है (योगसू. 2/16)। अतीत दुःख चूंकि उपभुक्त हो चुका है, अतः वह 'हेय' नहीं हो सकता; वर्तमान काल (जो वस्तुतः क्षणमात्र है) में जो दुःख अनुभूत हो रहा है, उसका परिहार अशक्य है; अतः अनागत दुःख ही ऐसा है जिसका परिहार किया जा सकता है। 'हेय' कहने का अभिप्राय यह है कि उसका परिहार सम्यक् दर्शन के द्वारा किया जा सकता है। दूरदर्शी योगी में अनागत दुःख भी क्लेशदायक के रूप में प्रतिभात होता है। चूंकि दुःख का जन्म के साथ अविनाभाव संबंध है, अतः योगी की दृष्टि में भविष्यत् जन्म ही हेय है, जिसके निरोध के लिए तत्त्वज्ञान का अभ्यास योगी करते हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)
हेयहेतु
योगशास्त्र की दृष्टि में अनागत दुःख हेय है (योगसू. 2/16); अतः अनागत दुःख का जो हेतु है वह हेयहेतु है। द्रष्टा एवं दृश्य का जो संयोग है, वही अनागत दुःख रूप हेय का हेतु है - यह योगसूत्र 2/17 में कहा गया है।