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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

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अर्थवत्त्व
भूतों तथा इन्द्रियों के जिन पाँच रूपों में संयम करने से भूतजय तथा इन्द्रियजय होता है, 'अर्थवत्त्व' उन रूपों में एक है। यह भूत तथा इन्द्रिय का चरम रूप है (योगसूत्र 3/44)। व्यासभाष्य में भूत से सम्बन्धित अर्थवत्त्व के विषय में इतना ही कहा गया है कि 'भोग और अपवर्ग रूप जो दो अर्थ हैं, वे गुणों में अन्वित रहते हैं और तन्मात्र, भूत एवं भौतिक-रूप पदार्थ गुणों के सन्निवेशमात्र हैं। इन्द्रिय से सम्बन्धित अर्थवत्त्व है - त्रिगुण में अनुगत पुरुषार्थता। भोग-अपवर्गजनन-रूप परार्थता ही यह अर्थवत्त्व है। भूतों के अर्थवत्त्वरूप में संयम करने पर यत्रकामावसायिता-रूप सिद्धि उत्पन्न होती है।
(सांख्य-योग दर्शन)

अलब्धभूमिकत्व
यह योगाभ्यास के नौ अन्तरायों (=विघ्नों) में एक है (योगसू. 1/30)। व्यासभाष्य के अनुसार इसका लक्षण है - मधुमती आदि समाधि-भूमियों में से किसी की भी प्राप्ति न होना। किसी बाधक हेतु के कारण ही इन भूमियों की प्राप्ति नहीं होती है, यद्यपि भूमि की प्राप्ति के लिए प्रयास किया ही जाता है। दीर्घकाल तक प्राप्ति न होने पर साधक योगाभ्यास को छोड़ सकता है - इस दृष्टि से ही अलब्धभूमिकत्व को अन्तराय के रूप में माना गया है। भूमि का अर्थ है चित्त का वह धर्म जो अनायास उदित होकर दीर्घकाल तक वर्तमान रह सके। वितर्क आदि (योगसू. 1/17) को भी कोई-कोई भूमि कहते हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)

अलिंग
लिंग' बुद्धि है। अतः बुद्धि का उपादानभूत त्रिगुण (जो साम्यावस्थापन्न है और 'प्रधान' शब्द से अभिहित होता है) अलिंग कहलाता है। चूंकि साम्यावस्था भी गुणत्रय की एक अवस्था है, अतः 'अलिंग-परिणाम' शब्द भी प्रयुक्त होता है। इसको अलिंग कहने का अभिप्राय यह है कि यह कहीं भी लीन नहीं होता - साम्यावस्था का कोई उपादान कारण नहीं है। यह स्पष्टतया ज्ञातव्य है कि इस अलिंगावस्था का हेतु पुरुषार्थ नहीं है। यह परिणामी -नित्य है। सभी व्यक्त पदार्थों का यह लयस्थान है। इसके तीन महत्वपूर्ण विशेषण 'निःसत्तासत्त', 'निःसदसत्' एवं 'निरसत्' व्यासभाष्य 2/19 में दिए गए हैं, जिनसे अलिंग अवस्था का पारमार्थिक स्वरूप ज्ञात होता है। द्र. 'अव्यक्त;, 'साम्यावस्था'।
(सांख्य-योग दर्शन)

अलिंगपरिणाम
गुणत्रय का परिणाम चार प्रकार का होता है - विशेष, अविशेष, लिंगमात्र और अलिंग। इस अलिंग नामक परिणाम में लिंगमात्र का लय होता है। यह वस्तुतः गुणसाम्य की अवस्था है। चूंकि त्रिगुण परिणामशील है, अतः इस अवस्था में भी गुणपरिणाम नष्ट नहीं होता; इस अवस्था में जो परिणाम होता है, उसको 'सदृश परिणाम' कहा जाता है। गुणत्रय के प्रथम तीन परिणामों का हेतु है पुरुषार्थ। चूंकि इस अलिंगपरिणाम का कोई हेतु नहीं है, अतः यह अवस्था 'नित्या' मानी जाती है। इस अवस्था को 'निःसत्त-असत्त' कहा जाता है, क्योंकि यह अवस्था पुरुषार्थ -क्रिया को करने में समर्थ नहीं है तथा यह तुच्छ (सत्ताहीन) भी नहीं है (व्यासभाष्य 2/19)।
(सांख्य-योग दर्शन)

अवस्था-परिणाम
त्रिगुणजात धर्मी द्रव्य में तीन प्रकार का परिणाम होता है - धर्म, लक्षण और अवस्था। धर्मी के किसी धर्म-विशेष की अवस्थाओं से सम्बन्धित जो परिणाम होता है, वह अवस्था परिणाम कहलाता है। उदाहरणार्थ शान्त चित्त से क्रोधरूप धर्म का उदय धर्मपरिणाम है; इस क्रोधरूप धर्म के जो उत्कट, अत्युत्कट रूप होते हैं उनको अवस्थापरिणाम कहा जाता है। धर्म-परिणाम का ही अवस्था-परिणाम होता है। इसी प्रकार चित्त के संस्कारों का प्रबल-दुर्बल होना या घट आदि का नूतन-पुरातन होना अवस्था-परिणाम के उदाहरण हैं। इन्द्रियशक्ति का स्फुट-अस्फुट होना भी अवस्था-परिणाम में ही आता है। व्याख्याकारों का मुख्य मत यह है कि उदित (वर्तमान) धर्मों का ही अवस्था-परिणाम होता है। अनागत धर्मों का भी अवस्थापरिणाम होता है, जो अत्यन्त अस्फुट है। इस अस्फुटता के कारण ही उदित धर्म का ही अवस्था परिणाम होता है - ऐसा कहा जाता है।
(सांख्य-योग दर्शन)

अविकृति
विकृति (या विकार) जिसकी नहीं है, वह अविकृति (या अविकार) है - यह इस शब्द का साधारण अर्थ है। इस अर्थ में पुरुषतत्त्व (निर्गुण आत्मा) अविकृति है। इसी दृष्टि से सांख्ययोगशास्त्र में पुरुष को 'अपरिणामी' कहा गया है। जो स्वयं किसी की विकृति या विकार नहीं है - इस अर्थ में मूल प्रकृति (या साम्यावस्था त्रिगुण) भी अविकृति कहलाती है, जैसा कि सांख्यकारिका में कहा गया है - मूलप्रकृतिरविकृतिः (का. 3)। प्रकृति अविकृति है, पर वह सभी विकारों की उपादान है - यह भी ज्ञातव्य है। चूंकि गुणसाम्य -रूप अवस्था का कोई उपादान नहीं हो सकता, इसलिए मूल प्रकृति को अविकृति कहना संगत ही है।
(सांख्य-योग दर्शन)

अविद्या
द्रष्टा और दृश्य के जिस 'संयोग' के कारण दुःख होता है, उस संयोग का हेतु अविद्या है - यह योगसूत्र (2/24) में स्पष्टतया कहा गया है। यह अविद्या 'विपर्ययज्ञान की वासनारूपा' है। अविद्या अनादि है, अतः संयोग भी अनादि है - जीवभाव भी अनादि है। अनादि होने पर भी अविद्या का नाश होता है। नाश का हेतु विद्या (=विवेक) अर्थात् प्रकृति -पुरुष के भेद का ज्ञान है। विद्या द्वारा अविद्या का नाश होने पर बन्धाभाव होता है, वही कैवल्य या मुक्ति है। अविद्या का दूसरा नाम अदर्शन है (व्यासभाष्य 2/23)। यह अविद्या मूल 'क्लेश' है। अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश रूप चार क्लेशों की यह प्रसवभूमि है (योग सू. 2/4)। जिस विषय में अविद्या होती है, उस वस्तु के प्रति अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश की वृत्ति उत्पन्न होती है; अविद्या न हो तो राग आदि नहीं होते हैं। अविद्या रूप मिथ्याज्ञान संसारदुःख का हेतु है, अतः वह क्लेश (क्लिश्नाति इति क्लेशः) कहलाती है। योगसूत्र में कहा गया है कि अनित्य, अशुचि, दुःख और अनात्मा नित्य, शुचि, सुख और आत्मा का बोध होना अविद्या है (2/5)। यह स्पष्टतया ज्ञातव्य है कि यह अविद्या विद्या (विवेकज्ञान) का अभावरूप नहीं है; विद्या -विरोधी ज्ञान -विशेष अविद्या है; यह भावपदार्थ है।
(सांख्य-योग दर्शन)

अविरति
योगाभ्यास के नौ अन्तरायों में यह एक है (योगसू. 1/30)। व्यासभाष्य में इसका लक्षण है - चित्त का वह गर्धतृष्णा जिसका निमित्त है - विषयसंप्रयोग, अर्थात् विषय का सन्निकर्ष होने के कारण जो विषयाभिलाषा विषयतृष्णा, या विषयासक्ति होती है, वह अविरति है।
(सांख्य-योग दर्शन)

अविवेक
सांख्ययोगशास्त्र में 'अविवेक' का अर्थ विवेक का अभाव न होकर 'विवेकविरोधी ज्ञान विशेष' है। अत्यन्त भिन्न बुद्धि और पुरुष को (या गुण -पुरुष को) भिन्न न समझकर एक समझना ही अविवेक है। यह 'अभेद-अभिमान' भी कहलाता है। इसका नामान्तर अज्ञान है। ज्ञान जिस प्रकार बुद्धि का एक (सात्त्विक) रूप है, यह अज्ञान भी उसी प्रकार बुद्धि का एक (तामस) रूप है। यह अविवेक कई रूपों में विद्यमान है। जिस प्रकार देह, इन्द्रिय आदि को आत्मा समझना अविवेक है, उसी प्रकार आत्मा को देह आदि समझना भी अविवेक है। कोई-कोई आचार्य 'विवेक की उत्पत्ति न होना' ही अविवेक है, ऐसा समझते हैं। द्र. विवेक, अविद्या, अज्ञान।
(सांख्य-योग दर्शन)

अविशेष परिणाम
त्रिगुण के जो परिणाम (तात्त्विक परिणाम) होते हैं, उनके चार भेद माने जाते हैं - विशेष, अविशेष, लिंगमात्र और अलिंग। अविशेष परिणाम में पाँच तन्मात्र एवं एक अहंकार (नामान्तर, 'अस्मिता') - इस प्रकार छः पदार्थ गिने जाते हैं। प्रत्येक भूत में जो सुखकरत्व आदि विशेष है तथा जो स्वगतभेद हैं (जैसे तेजोभूत के लाल -नील आदि भेद) वे तन्मात्र में नहीं रहते; अतः वे अविशेष कहलाते हैं - यह व्याख्याकारों का कहना है। अहंकार (अस्मिता) इन्द्रियों की प्रकृति है। इन्द्रियों में रहने वाला स्वगत भेद इन्द्रियप्रकृतिभूत अहंकार में नहीं रहता - इस दृष्टि से अहंकार की गणना भी अविशेष में की जाती है। तन्मात्र एवं अहंकार दोनों के अविशेष होने पर भी अहंकार के तामस भाग (भूतादि नामक) से तन्मात्रों की उत्पत्ति होती है। यह उत्पत्ति कैसे होती है, इसका रहस्य योगपरम्परा से ज्ञातव्य है।
(सांख्य-योग दर्शन)


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