परलोक सम्पराय है। अथवा सम्=सम्यक, पर=पुरुषोत्तम, अय=ज्ञान। अर्थात् जिससे पर पुरुषोत्तम सम्यक् ज्ञान प्राप्त हो, वह भक्ति मार्ग सम्पराय है (अ.भा.पृ. 1060)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
सम्पातलय
कर्म का लय सम्पातलय है अथवा कर्माशय का लय सम्पातलय है। कर्म को या कर्माशय को सम्पात कहा गया है, क्योंकि वह पात का, बंधन का विशिष्ट कारण है। इस प्रकार बंधकारणीभूत कर्म की या कर्माशय की निवृत्ति ही सम्पातलय है (अ.भा. 841, 1308)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
सामिकृत कर्म
अधूरा किया कर्म सामिकृत कर्म है। लोक में सुषुप्ति के पूर्व किए जा रहे कर्म के शेष भाग की पूर्ति पुनः जागरण के अनन्तर की जाती है। ऐसे ही शयन के पूर्व का व्यक्ति `सति सम्पद्य न विदुः सति सम्पद्यामहे`, (इस श्रुति वचन के अनुसार) सुषुप्ति दशा में भगवत् स्वरूप में मिल जाता है, और वही पुनः जग कर शेष कार्य को पूर्ण करता है, दूसरा व्यक्ति नहीं। इस प्रसंग से आत्मा की स्थिरता सिद्ध होती है (अ.भा.पृ. 893)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
साम्योपायन
ब्रह्म के साथ साम्य की प्राप्ति साम्योपायन है। अर्थात् ब्रह्म के साथ संबंध होने पर पूर्व में तिरोहित जीव के आनंदांश तथा ऐश्वर्य आदि पुनः ब्रह्म के समान ही आविर्भूत हो जाते हैं। इस स्थिति को साम्योपायन शब्द से अभिहित किया गया है (अ.भा.पृ. 1055)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
सायुज्य
मर्यादा भक्ति मार्ग में भगवान् के साथ एकत्व प्राप्त कर लेना या भगवान् में प्रवेश सायुज्य मुक्ति है। इसे सार्ष्टि मुक्ति शब्द से भी प्रतिपादित किया जाता है। किन्तु पुष्टि भक्ति मार्ग में अलौकिक सामर्थ्य प्राप्त कर जाना सायुज्य है (प्र.र.पृ. 135)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
सेतु व्यपदेश
पाप समुद्र को पार करने के लिए आत्मा में किया गया सेतु (पुल) का श्रौत व्यवहार सेतु व्यपदेश है। उक्त व्यवहार `अथ य आत्मा स सेतुर्विधृतिः` इस श्रुति में किया गया है (अ.भा.पृ. 963)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
हरित्रय
हरि के तीन रूप हैं - पूर्वमीमांसा में कहा गया यज्ञरूप, वेदान्त में कथित साकार ब्रह्म रूप तथा श्रीमद्धागवत में प्रतिपादित अवतारी श्री कृष्ण रूप (त.दी.नि.पृ. 38)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
हार्दानुगृहीत
हृदयाकाश में वर्तमान परमात्मा द्वारा अनुग्रह प्राप्त भक्त हार्दानुगृहीत पद से अभिहित है। `गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे`। इस श्रुति के अनुसार हृदयाकाशगत परमात्मा हार्द कहे जाते हैं (अ.भा.पृ. 1328)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
हिरण्मय पुरुष
सूर्य मंडलस्थ परमात्मा हिरण्मय पुरुष हैं। इसे `योSयमादित्ये ज्योतिषि हिरण्मयः पुरुषः` इत्यादि श्रुति द्वारा प्रतिपादित किया गया है। यह हिरण्मय पुरुष परमात्मा का प्रतीक रूप है (अ.भा.पृ. 221)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अंगमेजयत्व
अंगमेजयत्व का अर्थ है - अंगकंपनकारी का भाव अर्थात् अंग का कंपन। जब तक विक्षेप रहता है तब तक यह अंगकंपन विद्यमान रहता है (द्र. योगसूत्र 1/30)। एकाग्र होकर परिदर्शन करने पर यह कंपन सभी को अनुभूत होगा। यह अंगमेजयत्व अथवा अंगमेजय आसन-प्राणायाम का अभ्यास करने के काल में विशेषतः दिखाई देता है। यह कंपन शरीरगत राजस-तामस भाव के प्राधान्य का ज्ञापक है और धीरे-धीरे इसका दूरीकरण होता रहता है। अंगमेजय के नष्ट हुए बिना आसन की सिद्धि नहीं होती। 'प्रयत्नशैथिल्य' के अभ्यास से इस कंपन -रूप अस्थैर्य का नाश होता है।