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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

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शरधनुर्न्याय
धनुष पर शरसन्धान करके सावधान हो लक्ष्य वेधन की पद्धति शरधनुर्न्याय है। जीव को ब्रह्म से योजित करने के लिए यह न्याय है। इस पद्धति का स्वरूप यों है - प्रणव (ओंकार) रूप धनुष के माध्यम से आत्मा रूप बाण को लक्ष्यभूत ब्रह्म तक सावधान होकर पहुँचाना चाहिए (अ.भा.पृ. 371)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

शुद्ध पुष्टि भक्ति
जिसमें प्रेम की ही प्रधानता हो, स्नेह से ही परिचर्या, गुणगान आदि क्रियायें की जाती हैं, वह शुद्ध पुष्टि भक्ति है। (द्रष्टव्य चतुर्विध पुष्टि भक्ति शब्द)। (प्र.र.पृ. 83)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

श्रद्धा होम
पुरुष संज्ञा को प्राप्त करने के लिए श्रुति में प्रतिपादित पंच आहुतियों में प्रथम आहुति श्रद्धा है। यह आहुति द्युलोकरुपी अग्नि में प्रक्षिप्त की जाती है। यही आहुति क्रमशः सोम आदि भाव में रूपांतरित होती हुई योषित् (स्त्री) रूपी पंचम अग्नि में रेतः के रूप में पहुँचकर पुरुष का स्वरूप प्राप्त कर जाती है। इस प्रकार श्रद्धा एक प्रकार का आध्यात्मिक होम (आहुति) है। (द्रष्टवय कृतात्यय शब्द की परिभाषा) (अ.भा. 823)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

संघात
देहेन्द्रिय (देह+इन्द्रिय), प्राण, अंतःकरण और जीव ये चारों संघात भगवद् विभूति रूप हैं। इनमें देहेन्द्रिय रूप प्रथम संघात स्थूल शरीर रूप है। द्वितीय संघात प्राणमय रूप है। तृतीय संघात मनोमयरूप है। मन सभी इन्द्रियों से सम्बद्ध है। यह स्वयं इन्द्रिय भी है और अंतःकरण भी है। चतुर्थ संघात जीव तत्त्व रूप है। ये परस्पर में संहन्यमान (संहत) होकर ही पुरुषार्थ के साधक होते हैं, इसलिए संघात कहे जाते हैं (अ.भा.पृ. 187)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

संनिपात
लौकिक समस्त व्यवहार संनिपात है। अर्थात् `तू, मैं` इत्यादि बुद्धि तथा मन इन्द्रिय आदि पर आश्रित समस्त व्यवहार संनिपात है (अ.भा.पृ. 137)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

संयद्वाम
आनन्दात्मक सभी कर्मफलों का एकमात्र उपजीव्य (स्रोत) संयद्वाम है। अथवा सभी सुखों का घनीभूत जो अपवर्ग रूप फल है, उसका प्रदाता ब्रह्म संयद्वाम है। संयद्=प्रदाता, वाम=सुख, यह व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है (अ.भा.पृ. 318)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

संसार वृक्ष
संसार एक ऐसा आदिवृक्ष है, जिसकी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार, ये आठ शाखायें हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार रस हैं। दश इन्द्रियाँ जिसके पत्ते हैं, जिस पर जीव और ईश्वर रूप दो पक्षी हैं, सुख और दुःख रूप दो फल हैं तथा देहवर्ती नव द्वार ही जिसके कोटर हैं।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

सकाम गति
कामना के अनुरूप प्राप्त होने वाली गति सकाम गति है अथवा सकाम कर्म के अनुष्ठान से प्राप्त होने वाली गति सकाम गति है। यह गति कामना के अनन्त होने से अनन्त प्रकार की होती है (अ.भा.पृ. 852)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

समाकर्ष
समीचीन आकर्ष समाकर्ष है। अथवा निश्चय का हेतु भूत आकर्ष समाकर्ष है। आकर्ष का अर्थ है - अपने स्थान से च्युत किया जाना। यह आकर्ष निश्चय का हेतु होने से समाकर्ष कहा जाता है। जैसे - असद्वा इदमग्र आसीत्, तद्धैक आहुः असदेवेदमग्र आसीत्, अव्याकृत मासीत्, तमआसीत् इत्यादि श्रुतियों में `असत्-अव्याकृत-तम आदि पद अपने अर्थ से च्युत कर दिए जाते हैं और केवल ब्रह्म की सद्रूपता निश्चित या सिद्ध की जाती है। प्रकृत में यही समाकर्ष है (अ.भा.पृ. 507)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

समाधि भाषा
समाधि में ऋषियों द्वारा स्वयं अनुभव कर जो कहा गया हो, वह समाधि भाषा है। इसमें ऋषि स्वानुभूत विषय का प्रतिपादन करते हैं (त.दी.नि.पृ. 26)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)


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