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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

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अंतःकरण
करण (इन्द्रियाँ) दो प्रकार का माना जाता है - बाह्यकरण तथा आन्तर करण (या अंतःकरण)। जिसका विषय बाह्य वस्तु नहीं है, वह अंतःकरण है। (बाह्य विषय रूपादियुक्त एवं विस्तारयुक्त होते हैं)। बाह्य विषय से संबंधित स्मृति-कल्पना-चिंतनादि करना अंतःकरण का व्यापार है। सांख्य, योग तथा अन्यान्य कई शास्त्रों में अंतःकरण त्रिविध माना गया है - मन, अहंकार तथा बुद्धि (किसी-किसी संप्रदाय में चित्त को भी अंतःकरण माना जाता है; किसी-किसी का यह भी मत है कि अंतःकरण एक है, व्यापार-भेद से उनके तीन या चार भेद होते हैं)। (द्र. मन, बुद्धि तथा अहंकार शब्द)। बाह्य करणों को अंतःकरण का विषय भी माना जाता है (द्र. सांख्यकारिका 33), क्योंकि इन करणों के विषयों का उपभोग आन्तर करण ही करते हैं। किंतु बाह्य करण आन्तर द्वारा अधिष्ठित होकर ही स्व-स्व विषय के ग्रहण में समर्थ होता है। सर्वोच्च अंतःकरण बुद्धि है। सभी बाह्यकरण तथा मन एवं अहंकार बुद्धि को विषय-समर्पण करते हैं (सांख्यकारिका 36)। त्रिविध आन्तर करण त्रिकालव्यापी विषयों से संबंधित होते हैं - यह भी बाह्य करण से उनका भेद है।
अंतःकरण की चिंतन-प्रक्रिया को छः भागों में बाँटा गया है, जो इस प्रकार है - ग्रहण=वस्तु-स्वरूप-ग्रहण मात्र; धारण=वस्तु-विषयक स्मृति या चिंतन; ऊह=वस्तुगत विशेषों को जानना; अपोह=समारोपित गुणों का अपनय या विचारपूर्वक कुछ गुणों का निराकरण; तत्त्वज्ञान=ऊहापोह द्वारा विषय-स्वरूप-विचार; अभिनिवेश=विषय की उपादेयता-हेयता से संबंधित विचार या तदाकारता-प्रतिपत्ति (मतान्तर में)। (स्वामी हरिहरानंद-कृत योगदर्शन व्याख्या में इनका स्वरूप कहीं-कहीं पृथक् रूप से दिखाया गया है)।
(सांख्य-योग दर्शन)

अंतरंग योग
संप्रज्ञात योग के साधन यद्यपि आठ योगांग ही हैं, तथापि अंतिम तीन योगांग (धारणा, ध्यान एवं समाधि) ही इसके अंतरंग साधन माने जाते हैं। यम आदि पाँच अंग - मुख्यतया शरीर, मन आदि को मलहीन करते हैं, अतः वे संप्रज्ञातयोग के बहिरंग साधन ही होते हैं। व्याख्याकारों का कहना है कि समान विषय होकर जो जिसका साधन होता है, वह साक्षात् उपकारक होने के कारण उसका अंतरंग साधन है। धारणादि-त्रय के साथ संप्रज्ञात का विषयसाम्य रहता है, अतः ये अंतरंग साधन होते हैं। ये तीन असंप्रज्ञात योग के अंतरंग नहीं हो सकते, क्योंकि धारणा-ध्यान-समाधि-समुदाय रूप जो संयम है, उसका अपगम होने पर ही असंप्रज्ञात समाधि का आविर्भाव होता है। चूंकि असंप्रज्ञात समाधि निर्विषय (=निरालंबन) है, अतः आलंबन -प्रतिष्ठ धारणा-ध्यान-समाधि असंप्रज्ञात योग का बहिरंग साधन ही हो सकते हैं। चूंकि संप्रज्ञात का अधिगम करने के बाद उसका अतिक्रमण करके ही कोई असंप्रज्ञात समाधि को सिद्ध कर सकता है, अतः धारणादि को असंप्रज्ञात का बहिरंग साधन मानना ही संगत है। (द्र. योग सू. 3/7 -8)।
(सांख्य-योग दर्शन)

अंतराय
चित्त को विक्षिप्त करने वाले विघ्न 'अंतराय' कहे जाते हैं। व्याधि आदि नौ अंतरायों की गणना 1/30 योगसूत्र में मिलती है। अन्यान्य योगग्रंथों में तथा पुराणादि में भी अंतरायों की चर्चा मिलती है। इनमें कहीं-कहीं योगसूत्रानुसारी विवरण मिलता है और कहीं-कहीं किंचित् पृथक विवरण भी मिलता है। योगसूत्र में जिन नौ अंतरायों की गणना है, उनसे अतिरिक्त कुछ अंतरायों के नाम इस प्रकार हैं - (कहीं-कहीं 'विघ्न्' शब्द भी प्रयुक्त हुआ है) - दूरदर्शन, दूरश्रवण, सिद्धियाँ, काम, क्रोध, भय, स्वप्न, स्नेह, अतिभोजन, अस्थैर्य, लौल्य, अश्रद्धा।
(सांख्य-योग दर्शन)

अंतर्धान
यह सिद्धिविशेष का नाम है। योगी संयम के बल पर स्वशरीर-गत रूप, स्पर्श, शब्द, रस एवं गंध को इस रूप में स्तंभित कर सकते हैं कि वे किसी के द्वारा ग्राह्य न हो सके। योगसूत्र (3/21) में शरीरगत रूप के स्तंभन से अदृश्य हो जाने का विवरण दिया गया है। यह उपलक्षणमात्र है। रूप की तरह शरीरगत रसादि गुणों को भी स्तंभित कर उनको अन्य व्यक्तियों की इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य किया जा सकता है - यह व्याख्याकारों ने कहा है।
(सांख्य-योग दर्शन)

अकुशलकर्म
व्यासभाष्य में कर्म कुशल और अकुशल दो प्रकार के कहे गए हैं (1/24)। योगानुकूल कर्म कुशल हैं तथा संसार में बाँधने वाले कर्म अकुशल हैं। धर्मकर्म कुशल हैं, अधर्मकर्म अकुशल हैं - यह भी कहा जा सकता है।
(सांख्य-योग दर्शन)

अक्लिष्टवृत्ति
चित्त की वृत्ति (चित्त-सत्त्व का परिणाम) जब अविद्यादि-क्लेशपूर्वक उदित नहीं होती, तब वह अक्लिष्टा कहलाती है। जब कोई वृत्ति क्लेशपूर्वक उदित नहीं होती, तब वह क्लेशमय वृत्ति को उत्पन्न भी नहीं करती; अतः उससे क्लेशमूलक कर्माशय का निर्माण भी नहीं होता। यह सत्त्वप्रधान अक्लिष्टवृत्ति अपवर्ग की सहायक होती है।
(सांख्य-योग दर्शन)

अजपागायत्री
यह माना जाता है कि दिन-रात में जीव 21600 बार श्वास-प्रश्वास लेता है। प्रत्येक श्वास-प्रश्वास में जप करने पर 21600 बार जप होता है। प्रश्वास में 'हं' और श्वास में स: - इस प्रकार दो अक्षरों का जप अजपा-गायत्री जप कहलाता है। यह 'हंसमन्त्र' कहलाता है। विपरीतक्रम से 'सः हम्' रूप दो अक्षरों का जप भी श्वास-प्रश्वास से करने की परम्परा है। यह 'सोहम्' मन्त्र (अर्थात् सः+अहम्=सोहम् -मैं वही हूँ) कहलाता है। अहोरात्र इस जपक्रिया में मन को संलग्न रखने से चित्त निरोधाभिमुख हो जाता है।
(सांख्य-योग दर्शन)

अणु
योगसूत्र-व्यासभाष्य (1/45) में 'पार्थिव अणु' शब्द आया है। व्याख्याकारों ने अणु को परमाणु कहा है जो पार्थिव, जलीय, आग्नेय, वायवीय एवं आकाशीय भेद से पाँच प्रकार का है; द्र. परमाणु शब्द। इसी प्रकार 1/43 भाष्य में 'अणुप्रचय' शब्द है, जहाँ अणु का अर्थ परमाणु है (द्र. टीकाएँ)।
अत्यन्त अल्प परिमाण से युक्त' अर्थ में भी अणु शब्द विशेषण के रूप में योगग्रन्थों में प्रयुक्त हुआ है। ब्रह्माण्ड को प्रधान का 'अणु-अवयव' कहा गया है (व्यासभाष्य 3/26)। यहाँ अणु उपर्युक्त अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार सूक्ष्म या परम सूक्ष्म या दुरधिगम के अर्थ में भी विशेषण अणु शब्द का प्रयोग मिलता है।
(सांख्य-योग दर्शन)

अणुप्रचय
अणुओं का प्रचय अर्थात् संगृहीत या एकत्रित होना। सांख्ययोगीय दृष्टि के अनुसार बाह्य विषय अणुप्रचय-विशेषात्मा (अणुओं के एक प्रकार का प्रचय ही जिसका स्वरूप है, वह अणुप्रचय विशेषात्मा) है। अणुओं के प्रचयविशेष के होने के कारण ही घट आदि स्थूल पदार्थ पार्थिव आदि परमाणुओं से परमार्थतः अभिन्न होने पर भी व्यवहारतः भिन्न होते हैं (वाचस्पति टीका 1/43)।
(सांख्य-योग दर्शन)

अतिक्रान्तभावनीय
योगांग-अभ्यास द्वारा जब वृत्तिनिरोघ वस्तुतः होता रहता है तथा योगज प्रज्ञा प्रकटित होती रहती है, तब साधक योगी कहलाता है। योगियों के चार भेद (उत्कर्षक्रम के अनुसार) योगपरम्परा में स्वीकृत हुए हैं - कल्पिक, मधुभूमिक, प्रज्ञाज्योतिः तथा अतिक्रान्तभावनीय (द्र. व्यासभाष्य 3/51)। अतिक्रान्तभावनीय सर्वोच्च स्तर के योगी को कहते हैं। ऐसे योगी में कुछ भी भावनीय (अर्थात् विचारणीय एवं संपादनीय) नहीं रह जाता। यह छिन्नसंशय, एवं हृदयग्रन्थिभेदकारी होता है। इसमें प्रान्तभूमि प्रज्ञा पूर्णतः रहती है, अतः इसका कर्म निवृत्त हो जाता है। स्वचित्त को चिरकाल के लिए प्रलीन करना (अर्थात् पुनरुत्थानशून्य करना) ही इनका अवशिष्ट कार्य रहता है। यही जीवन्मुक्त अवस्था है। अतः ऐसे योगी का वर्तमान देह ही अन्तिम देह होता है। (द्र. योगसूत्र 3/51 की भाष्य टीकायें)।
(सांख्य-योग दर्शन)


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