उद्वाप और आवाप एक प्रकार का पदसंबंधी विधान है। उद्वाप वह विधि है जिसमें प्रकरणगत अर्थ में प्रतीयमान पद को उससे भिन्न अन्यार्थपरक रूप में आपादित किया जाए तथा आवाप वह विधि है जिसमें अन्य अर्थ में प्रतीत हो रहे पद को प्रकृत अर्थ परक रूप में आपादित किया जाए। अर्थात् प्रकृत अर्थ का परित्याग कर देना उद्वाप है और अप्रकृत अर्थ का समावेश कर लेना आवाप है। सामान्यतः किसी समूह, किसी अंश को निकाल देना उद्वाप क्रिया है और उस समूह में किसी अन्य का प्रक्षेप कर देना आवाप है (अ.भा.पृ. 274)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
उन्मानव्यपदेश
परिमाणमूलक साम्य का प्रतिपादन उन्मानव्यपदेश है। `यावान् वा अयमाकाशस्तावनिष अन्तर्हृदय आकाशः`। इस श्रुति में बाह्य आकाश के समान ही हृदयवर्ती दहराकाश को परिच्छिन्न (सीमित) बताते हुए दोनों की समता बतायी गयी है।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
उपगमन
ज्ञानमार्ग के अनुसार ब्रह्म के समीप गमन या अक्षरात्मक ब्रह्म में प्रवेश करना उपगमन है तथा भक्तिमार्ग के अनुसार भजन के निमित्त साक्षात् प्रकट हुए पुरुषोत्तम के समीप जाना उपगमन है (अ.भा.पृ. 1266)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
उपचरितार्थत्व
किसी पद की लाक्षणिकता, अर्थात् अभिधायक न होकर उसका लाक्षणिक होना उपचरितार्थत्व है। अर्थात् जब कोई पद अपने अभिधेयार्थ (वाच्यार्थ) के बाधित होने के कारण वाच्यार्थ का बोध न कराकर लक्ष्यार्थ का बोध कराने लगता है, तब वह पद अभिधायक (वाचक) न होकर उपचरितार्थक या लाक्षणिक हो जाता है। जैसे, 'गंगायाँ घोषः' यहाँ पर गंगापद प्रवाह रूप अपने अभिधेयार्थ को इसलिए नहीं बोधित कराता है कि प्रवाह में घोष बाधित है। अतः यहाँ गंगापद तीररूप लक्ष्यार्थ का बोध कराने के कारण लाक्षणिक या उपचरितार्थक कहा जाता है। अभिधावृति से बोध कराने के कारण पद अभिधायक होता है और लक्षणावृत्ति से बोध कराने की स्थिति में वही पद लाक्षणिक या उपचरितार्थक कहा जाता है। जहाँ पद लाक्षणिक या उपचरितार्थक कहा जाता है, वहाँ अर्थ लक्ष्यार्थ, लक्षितार्थ या उपचरितार्थ कहा जाता है। इस प्रकार पद उपचरितार्थक (उपचरित अर्थ वाला) कहा जाता है और अर्थ उपचरितार्थ (उपचरि अर्थ) होता है।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
उपजीव्य
किसी वस्तु की उपपत्ति के लिए जो अपेक्षणीय है, वह उपजीव्य है तथा जो अपेक्षा करे वह उपजीवक है। अर्थात् जिस पर निर्भर रहा जाए वह उपजीव्य है और जो निर्भर रहे वह उपजीवक है। जैसे, प्रत्यक्ष के बिना अनुमान नहीं हो सकता, इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण अनुमान प्रमाण का उपजीव्य है और अनुमान प्रमाण प्रत्यक्ष प्रमाण का उपजीवक है (अ. भा.पृ. 691)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
उपपतन
भक्त विशेष की दृष्टि से आधिकारिक फल भी हेय है और उसमें हेयत्व का प्रयोजक उपपतन है। अर्थात् भक्ति भाव से च्युति का कारण होने से आधिकारिक फल उपपतन है, इसीलिए वह हेय है। (द्रष्टव्य - आधिकारिक फल शब्द की परिभाषा) (अ.भा.पृ. 1234)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अपसंहार दर्शन
सामान्य अर्थ में प्राप्त का किसी विशेष अर्थ में संकोच का देखा जाना उपसंहार दर्शन है। अथवा सामान्यतः प्राप्त का किसी विशेष अर्थ में संपादन या निरूपण का देखा जाना या अपेक्षा का देखा जाना उपसंहार दर्शन है। जैसे, सामान्यतः कुलाल जाति में प्राप्त घटकर्तृत्व संकुचित होकर दंड चक्रचीवरादि से युक्त कुलाल में ही देखा जाता है, न कि सभी में, तो इसे उपसंहार दर्शन कहते हैं (अ.भा.पृ. 595)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
ऋत-सत्य
ऋत और सत्य ये दोनों ही शब्द धर्म के वाचक हैं। इनमें प्रमात्मक ज्ञान का विषय जो धर्म है, वह ऋत कहलाता है तथा अनुष्ठान का विषय जो धर्म है, वह सत्य कहलाता है। तात्पर्यतः आत्मादि तत्त्व ऋत हैं तथा यज्ञादि कर्म सत्य हैं। अर्थात् ज्ञायमान तत्त्व ऋत है और अनुष्ठीयमान तत्त्व सत्य है (अ. भा. पृ. 206)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
एकायन
लय का एकमात्र आधार ब्रह्म एकायन है। जैसे, जलादि रूप अंशों का एकायन जलाशय समुद्रादि होता है, वैसे ही सदात्मक समस्त कार्यों का लयाधार सदात्मक ब्रह्म है। इससे सब पदार्थ शुद्ध ब्रह्म रूप सिद्ध होता है अथवा जिसका एकमात्र प्रकृति या अक्षर आश्रय है, ऐसा संसार वृक्ष भी एकायन है।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
औपसद कर्म
उपसद् नामक कर्म से सम्बद्ध तानूनप्त्र घृत का स्पर्श नामक कर्म औपसद कर्म है। यह औपसद कर्म उपसद् दीक्षा नामक यज्ञांग से सम्बद्ध है। आतिथ्या इष्टि में ध्रौव पात्र से सुक् या चमस में रखा हुआ घृत तानूनप्त्र है। उस घृत का स्पर्श यजमान के साथ सोलह ऋत्विक् करते हैं। उन ऋत्विजों में यजमान जिसे चाहेगा, वही पहले उस घृत का स्पर्श करेगा। यह यजमान की इच्छा पर निर्भर है। इसी प्रकार अक्षर ब्रह्म के उपासकों में भगवान् जिसे चाहेगा, उसे उस अक्षर ब्रह्म में ही लय कर देगा और जिसे चाहेगा, उसे परप्राप्ति का साधन भूत भक्ति का लाभ करा देगा। यह भगवान् की इच्छा के अधीन है (अ.भा. 3/3/33)।