सर्वोत्कृष्ट पारलौकिक फल प्रायण है, और वह प्रायण पुरुषोत्तम भगवान् स्वरूप है, क्योंकि वे ही स्वतः पुरुषार्थ के रूप में सबके लिए प्राप्य हैं (अ.भा.पृ. 1284)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
प्रेम भक्ति
भगवत्स्वरूप में सुदृढ़ स्नेह स्वरूप भक्ति प्रेम भक्ति है (अ.भा.पृ. 1068)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
फलभक्ति
रसस्वरूप एवं रतिसंज्ञक स्थायी भाव फलभक्ति है, जिसमें भक्त का मन परमेश्वर के चरण की सेवा में पूर्ण समुल्लास से युक्त हो जाता है, तथा जो आत्मानन्द को प्रकट करने वाली है, एवं कार्य-कारण-लिंग आदि से अभिव्यक्त होने वाली है, तथा जो मोक्ष को भी तिरस्कृत करने वाली है (शा.भ.सू.वृ.पृ. 62)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
ब्रह्म
प्रपंच का बृंहण अर्थात् विस्तार करने के कारण तथा स्वयं बृहत् होने के कारण ब्रह्म कहा जाता है। यह ब्रह्म शब्द का योगार्थ है। यहाँ बृंहण करना उपलक्षण मात्र है। वस्तुतः प्रपंच की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण ब्रह्म है। ब्रह्म का यही लक्षण `जन्माद्यस्य यतः` इस सूत्र में प्रतिपादित किया गया है। उक्त सूत्र में प्रतिपादित यह लक्षण ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है। सत्चित्त और आनंद (सच्चिदानन्द) यह ब्रह्म का स्वरूप लक्षण है। नामरूपात्मक प्रपंच के अंतर्गत जैसे रूप प्रपंच के कर्त्ता ब्रह्म हैं वैसे वेद या नाम प्रपंच के भी विस्तार कर्त्ता ब्रह्म ही हैं। ब्रह्म का कार्य होने से वेद और नाम प्रपंच भी ब्रह्म शब्द से कहा जाता है (अ.भा. 1/1/2)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
ब्रह्म दृष्टि
`यह सब कुछ आत्मा ही है, यह सब कुछ ब्रह्म ही है`। यह दृष्टि ब्रह्म दृष्टि है। उक्त दृष्टि प्रतीकात्मक (आरोपात्मक) नहीं है, किन्तु श्रवण के अनन्तर होने वाला मनन रूप है क्योंकि सभी वस्तु वास्तव में ब्रह्म ही है (आ.भा.पृ. 1273)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
ब्रह्मपुच्छ
`ब्रह्मापुच्छं प्रतिष्ठा` यहाँ पर पुच्छ स्थानीय ब्रह्म आनंदमय का प्रतिष्ठा भूत है क्योंकि `ब्रह्मविदाप्नाति परम्`। इस श्रुति के अनुसार आनंद स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति का साधन ब्रह्मज्ञान है एवं साधनभूत ब्रह्मज्ञान के प्रति ज्ञेय रूप में (विषय रूप में) ब्रह्म शेष (अंग) है। इस प्रकार साधन कोटि के अंतर्गत होने से ब्रह्म उस आनंदमय का प्रतिष्ठाभूत पुच्छ स्थानीय है। अर्थात् आनंदस्वरूप ब्रह्म पुच्छ स्थानीय ज्ञेय ब्रह्म पर प्रतिष्ठित है। इसीलिए ज्ञेय ब्रह्म आनंद का पुच्छ रूप है (अ.भा.पृ. 207)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
ब्राह्म शरीर
भगवान् द्वारा अपने भोग के अनुरूप निर्मित सत्य-ज्ञान और आनंदात्मक शरीर ब्राह्म शरीर है (अ.भा.पृ. 1380)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
भक्ताक्षर विज्ञान
भक्तों को होने वाला पुरुषोत्तम के अधिष्ठान के रूप में अक्षर का विज्ञान भक्ताक्षर विज्ञान है। पुष्टिमार्ग में अक्षर ब्रह्म का भी अधिष्ठाता पुरुषोत्तम भगवान् है, ऐसी मान्यता है (अ.भा.पृ. 1154)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
भगवच्छास्त्र
श्रीमद्भागवत-गीता एवं पंचरात्र ये तीन भगवच्छास्त्र हैं। क्योंकि ये तीनों ही स्वयं भगवान् द्वारा उक्त हैं तथा भगवत्तत्त्व के प्रतिपादक हैं (त.दी.नि.पृ. 12)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
भगवत् शक्तिद्रव्य
भगवान् की दो शक्तियाँ हैं - एक प्रवर्तकत्व शक्ति और दूसरी भजनीयत्व शक्ति। भगवान की प्रथम प्रवर्तकत्व शक्ति के कारण जगत की समस्त प्रवृत्तियाँ होती हैं तथा दूसरी भजनीयत्व शक्ति के कारण वे विशुद्ध रूप में भक्तों के भजनीय होते हैं। इनमें प्रवर्तकत्व शक्ति का प्राकट्य तो समस्त प्राणिमात्र के लिए है। किन्तु उनकी भजनीयत्व शक्ति का प्राकट्य केवल भक्तों में ही होता है (भा.सु. 11टी. पृ. 1111)।