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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

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भजनकृत्स्न भाव
भगवद् भजन में आन्तर और बाह्य सभी इन्द्रियों की सार्थकता का होना भजनकृत्स्न भाव है। उक्त सार्थकता गृहस्थों के ही भगवद् भजन में चरितार्थ है। त्यागियों के भगवद् भजन में तो केवल वाणी और मन ही सार्थक हो पाते हैं, अन्य हस्त, पाद, नेत्र, श्रवणादि इन्द्रियों की तो कोई उपयोगिता नहीं होती है (अ.भा.पृ. 1244)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

भजनानंद दान
भक्त की भक्ति के वशीभूत हुए भगवान् भक्त की इच्छा के अनुसार उसे सायुज्य आदि मुक्ति को न देकर भजनानंद प्रदान करते हैं क्योंकि भक्त को मुक्ति से भी अत्यधिक अभीष्ट भगवान् के भजन से उत्पन्न आनंद है। अतः उसे ही वह चाहता है और भगवान उसे प्रदान करते हैं। यही भगवान् का भक्त के लिए भजनानंद दान है (अ.भा.पृ. 1145)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

भूतभावन
बंध से छुटकारे के लिए जीवों को भगवद् भाव से भावित करने वाले भगवान् भूतभावन कहे जाते हैं। चूंकि भगवान् ही संसार में रहते हुए बंधरहित हैं, अतः भगवद् भाव से भावित जीव भी कृतार्थ हो जाता है। इस प्रकार जीव को कृतार्थ करने वाले भगवान् भूतभावन हैं (भा.सु.वे.प्रे.पृ. 7)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

मर्यादा
प्रयत्न से साध्य शास्त्र विहित ज्ञान एवं भक्ति की साधना मर्यादा है तथा इससे प्राप्त होने वाली मुक्ति मर्यादा मुक्ति है एवं इस मर्यादा से मिश्रित पुष्टिभक्ति मर्यादा पुष्टिभक्ति है। ऐसी भक्ति के उदाहरण भीष्म पितामह प्रभृति हैं (अ.भा.पृ. 1.067)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

महापतन
पुष्टि मार्ग में मुक्ति महापतन रूप है क्योंकि मुक्ति भक्ति रस की बहुत बड़ी बाधिका है। `न स पुनरावर्तते` के अनुसार मुक्ति प्राप्त हो जाने पर पुनरावृत्ति नहीं होने से भक्ति रस की आशा भी जाती रहती है (अ.भा.पृ. 1234)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

महापुष्टित्व
भगवत्प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधाओं को निवृत्त करने हुए भगवत्पाद की प्राप्ति करा देने वाला भगवान् का अनुग्रह महापुष्टित्व है (प्र.र.पृ. 77)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

महिम
भगवान् भक्त को जब स्वीय के रूप में वरण कर लेते हैं, तब उस भक्त में सर्वात्म भाव या भगवदात्मकता का उदय हो जाता है। इस प्रकार उदय को प्राप्त सर्वात्म भाव या भगवदात्मकता ही महिम है। विप्रयोग भाव का उदय होने पर भक्त में यह महिमा स्पष्ट रूप में परिलक्षित होती है (अ.भा. 1141)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

मानसी सेवा
भगवान् के प्रति भक्त की भक्ति जब व्यसन का स्वरूप धारण कर लेती है, तो वैसी भक्ति भगवान् की मानसी सेवा है (शा.भ.सू.पृ. 1/1/2)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

माया
सर्वभवन सामर्थ्य रूपा भगवान् की शक्ति माया है। माया शब्द के सामान्यतः चार अर्थ होते हैं, सर्वभवन सामर्थ्य रूप शक्ति, व्यामोहिका शक्ति, ऐन्द्रजालिक विद्या तथा कापट्य या कपटभाव। इनमें प्रथम शक्ति भगवान् की माया है (त.दी.नि.पृ. 88)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

मूल रूप
पुरुषोत्तम शब्द का वाच्यार्थ भूत-नित्यानंदैक स्वरूप, सदा प्रकटीभूत है अलौकिक धर्म जिसमें, ऐसा नित्य सर्वलीला युक्त कृष्णात्मक पर ब्रह्म ही मूल रूप है (प्र.र.पृ. 48)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)


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