आदित्य ही देवमधु है। वसु आदि देवों का मोदन (आनंद) करने के कारण तथा मधु के समान छत्राकार होने से आदित्य देवमधु है। (अ.भा.पृ. 1278)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
धर्मिग्राहक मान
धर्मिस्वरूप का ग्रहण कराने वाला प्रमाण धर्मिग्राहक मान है एवं जो प्रमाण धर्मिस्वरूप का ग्रहण कराने वाला होता है, उसी से धर्मिगत अनेक धर्मों की भी सिद्धि हो जाती है। जैसे - जिस प्रमाण से जगत् के कर्त्ता ईश्वर की सिद्धि होती है, उसी प्रमाण से ईश्वर में सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता आदि धर्मों की भी सिद्धि हो जाती है। क्योंकि बिना सर्वज्ञत्व, सर्वशक्तिमत्त्व के ईश्वर में जगत्कर्तृत्व बन ही नहीं सकता है। यही धर्मिग्राहक मान की विशेषता है (अ.भा.पृ. 989)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
नामलीला
नामरूपात्मक भगवान् की दो लीलाओं में एक लीला नामलीला है। इस नामलीला के अंतर्गत ही वेद सहित संपूर्ण शब्दात्मक लीलायें समाविष्ट हैं। रूपलीला के समान ही नामलीला भी प्रपञ्च के अंतर्गत ही है और भगवान् द्वारा की गयी है (अ.भा.पृ. 63)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
नारायण
नार अर्थात् जीव समूह को प्रेरित करने वाला या जीव समूह में प्रविष्ट हुआ परमात्मा नारायण है। अथवा सब कुछ जिसमें प्रविष्ट हो, ऐसा जो जगत का आधार है, वह नारायण है।
ब्रह्मवाद का ही एकवेशीवाद नियत धर्म जीववाद है। जैसे, भगवान् ने अपने भोग की निष्पत्ति के लिए अग्नि के विस्फुलिंग (चिंगारी) के समान अपने अंश के रूप में जीवों को बनाया - यह आश्मरथ्य का जीव संबंधी सिद्धान्त है। शरीरादि संघात में प्रविष्ट चैतन्यमात्र अनादिसिद्ध जीव है - यह औडुलोमी आचार्य का मत है। इनके अनुसार साक्षात् चैतन्य ही शरीरादि संघात में प्रविष्ट हुआ जीव है। भगवान् का ही विषय भोक्तृ स्वरूप जीव है - यह काशकत्स्न का जीववाद है। अर्थात् भगवान् ही विषय भोक्ता के रूप में जीव कहलाता है (अ.भा.पृ. 525)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
निरोधलीला
भक्तों को प्रपञ्च की स्फूर्ति से रहित बना देने वाली भगवान् की लीला निरोधलीला है। इस लीला में प्रविष्ट भक्त सारे प्रपञ्च को भूल जाता है और भगवान के लीलारस का साक्षात् अनुभव करता है। (दृष्टव्य त्रिविध निरोध शब्द की परिभाषा) (भा.सु.11टी. पृ. 285)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
निष्काम गति
ब्रह्मानुभूति के अभाव में होने वाली जीव की शुभ गति निष्काम गति है। इसके दो भेद हैं - यम गति और सोम गति। दम्भरहित होकर गृह्य सूत्रों में प्रतिपादित स्मार्तकर्मों के अनुष्ठान से प्राप्त होने वाली गति यम गति है तथा श्रौत कर्मों के अनुष्ठान से प्राप्त होने वाली गति सोम गति है। ये दोनों ही निष्काम गति हैं और शुभ हैं। ब्रह्मानुभूति से होने वाली गति इससे भी उत्कृष्ट है और वह मुक्ति रूप है (अ.भा.पृ. 852)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
नैष्कर्म्य
समस्त ऐहिक और आमुष्मिक उपाधियों से निरपेक्ष होकर भगवान् में ही अंतःकरण को लगा देना नैष्कर्म्य है। लौकिक फल की कामना आदि ऐहिक उपाधि है तथा स्वर्गादि की कामना आदि आमुष्मिक उपाधि है। इनसे रहित होकर भगवदनुरक्ति नैष्कर्म्य है (अ.भा.पृ. 1062, 1240)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
पंचपर्वा विद्या
विद्या के पाँच पर्व हैं - वैराग्य, सांख्य, योग, तप और केशव में भक्ति। वैराग्य के बिना विद्या का अंकुरण भी संभव नहीं है। सांख्यशास्त्र भी विद्या का स्थान है। योग साधना और तप भी विद्या के पर्व हैं। केशव में भक्ति तो विद्या का सर्वोत्तम साधन है (त.दी.नि.पृ. 144)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
पंचात्मक भगवान्
भगवान् अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास, चातुर्मास्य, पशुयाग और सोमयाग, यह पाँच यज्ञ स्वरूप हैं। `यज्ञो वै विष्णुः` यह वचन इसी का समर्थक है (त.दी.नि.पृ. 130)।