श्रीमद्भागवत का अमृत द्रव शब्द श्री वल्लभाचार्य के अनुसार भक्ति रस का प्रतिपादक है क्योंकि उनके मतानुसार भक्तिरस अमृतपदवाच्य मोक्ष को भी द्रवित कर देने वाला है। अर्थात् भक्ति रस की तुलना में मोक्ष भी महत्त्वहीन है (भा.सु. 11टी. पृ. 48)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अमृतपाद
चतुष्पाद ब्रह्म के तीन अमृतपाद हैं - पृथ्वी, शरीर और हृदय-अथवा भू: -भुवः और स्वः में सभी भूत समाविष्ट हैं, यह ब्रह्म का एक पाद है `पादोSस्य विश्वा भूतानि` तथा महर्लोक से ऊपर जन, तप और सत्य लोक अमृत, क्षेम और अभय नामक त्रिविध सुखरूप हैं। इस दृष्टि से यहाँ क्रमानुसार अमृत रूप होने से केवल जनलोक ही अमृतपाद होना चाहिए। किन्तु अमृतत्त्व गुण उक्त त्रिविध सुखों में अनुस्यूत है, अतः यहाँ अमृत शब्द उक्त तीनों सुखों का उपलक्षक है। इसलिए जन, तपः और सत्य ये तीनों ही लोक ब्रह्म के अमृतपाद हैं `त्रिपादस्याभृतं दिवि` (अ.भा.पृ. 254)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अमृत शरीर
सामान्य जन का शरीर मरणशील होने से मृत्य कहा जाता है। किन्तु भगवान् की पुष्टि लीला में प्रवेश के अनन्तर भक्त को अमृत शरीर प्राप्त हो जाता है और वह भगवान् के नित्य लीला रस का अनुभव करता है (अ.भा.पृ. 1303)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अरुणान्याय
`अरुणया पिङ्गाक्ष्या एकहायन्या गवा सोमं क्रीणाति`। इस ज्योतिष्टोम प्रकरणस्थ वाक्य में केवल अरुणत्व गुण अर्थात् रक्त रूप सोम के क्रयण का साधन नहीं बन सकता क्योंकि अरुणा शब्द में स्त्रीलिंगत्व बोधक टाप् प्रत्यय का योग होने से अरुणा शब्द आरुण्य विशिष्ट गो पदार्थ का बोधक होगा। अतः आरुण्य गुण विशिष्ट लाल गौ सोमक्रयण का साधन बन सकता है केवल आरुण्य गुण नहीं`। फिर भी यहाँ सोमक्रयण के प्रति आरुण्य धर्म की ही प्रधानता होती है, गौ की नहीं। यह अरुणान्याय है। इस न्याय से `देवाः श्रद्धां जुहवति` यहाँ पर भी श्रद्धा गुण का हवन असंभव होने से श्रद्धा धर्म वाले मन का हवन प्रतिपादित होता है। किन्तु ऐसा होने पर भी श्रद्धा ही हवनीय रूप में मुख्य मानी जाती है और मन गौण माना जाता है (अ.भा.पृ. 833)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अर्चन
विष्णु की प्रीति के निमित्त प्रतिमा आदि पर गंध, पुष्प, अक्षत, नैवेद्य आदि का अर्पण रूप व्यापार अर्चन है। यह श्रवण कीर्तन आदि व्यापार से पृथक् है (शा.भ.सू.वृ.पृ. 160)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अर्चावतार
मन्त्रादि द्वारा संस्कार की गयी मूर्ति को अर्चावतार कहते हैं। ऐसी मूर्ती पूजा के निमित्त हुआ भगवान का अवतार विशेष है (शा.भ.सू.वृ.पृ. 151)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अर्चिमार्ग
ऊर्ध्व गति को या ब्रह्म गति को प्राप्त कराने वाला मार्ग अर्चिमार्ग है। यह मार्ग ज्ञानी भक्त को प्राप्त होता है। इसी मार्ग का वर्णन `अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्`, इस वचन द्वारा किया गया है। इसके विपरीत अज्ञानियों का मार्ग धूममार्ग है, जिससे पुनः अधोगति प्राप्त होती है। इसका वर्णन `धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्`, इस वचन से किया गया है (अ.भा.पृ. 822)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अर्धसम्पत्ति
मूर्छा आदि के अनन्तर मुग्ध भाव में रहने वाले जीवित व्यक्ति को हुई प्रतिपत्ति बुद्धि या ज्ञान अर्धसम्पत्ति है। यह प्रतिपत्ति अर्ध ही होती है, संपूर्ण नहीं अर्थात् मूर्छा आदि के अनन्तर की अवस्था में व्यक्ति की बुद्धि सामान्यात्मक होती है, विशेष का निश्चय नहीं कर पाती। इसीलिए फलेच्छा आदि विशेषण के न होने से उस व्यक्ति का काम्य यज्ञादि कर्म में अधिकार नहीं होता। केवल अधिकार के अन्यतम प्रयोजक जीवित्व के कारण पहले से प्रवृत्त अग्निहोम आदि कर्म ही कर पाता है। इसी प्रकार अन्य लौकिक व्यवहार भी उसका वही होता है जो पहले से प्रवृत्त है (अ.भा.पृ. 894)।
वेदांत में प्रस्तुत इस प्रसंग से विद्ध किया गया है कि मुग्ध भाव के कारण ही व्यक्ति को हुई प्रतिपत्ति अर्धसम्पत्ति होती है। अर्थात् विशेष का निर्धारण न कर पाने वाली सामान्यात्मिका बुद्धि होती है। ऐसा नहीं है कि मुग्धावस्था में उसके शरीर में किसी अन्य जीव का प्रवेश होने के कारण अर्धसम्पत्ति होती है। इसीलिए कहीं पूर्वानुस्मृतिका हेतु प्राप्त हो जाने पर मुग्ध को भी संपूर्ण बुद्धि हो जाती है। भिन्न जीव का प्रवेश मानने पर ऐसा कथमपि नहीं होता। इसीलिए सुषुप्ति के पूर्व जो जीव रहता है, वही सुषुप्ति के बाद भी रहता है, यह वेदांत का मान्य सिद्धांत है।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अवतार (अवतरण)
स्वसंकल्पपूर्वक भक्त वात्सल्य आदि अनेक गुणों से परिपूर्ण हो भगवान् इस प्रकार विग्रह को प्रक्रट करे कि मानो वह भक्तादि के पराधीन हो तो उसे अवतार कहते हैं। सभी अवतारों में ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज इन षड्गुणों की समान रूपता रहती है।
अवतार के चार भेद हैं - (1) गुणावतार, (2) लीलावतार, (3) विभवावतार, (4) अर्चावतार।
(1) सत्त्व, रज और तम गुणों को उपाधि बना कर हुआ अवतार गुणावतार है। जैसे, सत्त्वगुणोपाधिक विष्णु, रजो गुणोपाधिक ब्रह्मा एवं तमो गुणोपाधिक रुद्र, ये तीनों गुणोपाधिक अवतार गुणावतार हैं।
(2) स्वेच्छा से ग्रहण किया हुआ लीला शरीर रूप अवतार लीलावतार है। जैसे, मत्स्यादि अवतार। लीलावतार कल्प भेद से अनन्त होते हैं।
(3) स्वच्छन्दतापूर्वक गमनागमन एवं संश्लेष विश्लेष के योग्य दिव्य देह में प्रकटित अवतार विभवावतार है।
विभवावतार के दो भेद हैं - स्वरूपावतार और आवेशावतार। सर्वेश्वरत्व एवं अपने अलौकिक रूप को अन्य सजातीय रूप में प्रकट कर स्थित अवतार स्वरूपावतार है। इसके भी दो भेद हैं - मनुजावतार, जैसे -राम -कृष्ण आदि। अमनुजावतार, जैसे -देव तिर्यक रूप में उपेन्द्र, मत्स्य आदि अवतार।
आवेशावतार के दो भेद हैं - स्वरूपावेशावतार और शक्त्यावेशावतार। किसी चेतन में अपने स्वरूप से सन्निहित होकर स्थित अवतार स्वरूपावतार है। जैसे, कपिल, व्यास, परशुराम आदि। किसी चेतन में अपनी शक्ति से सन्निहित होकर स्थित अवतार शक्त्यावेशावतार है, जैसे, पृथुधन्वंतरि प्रभुति।
(4) अर्चावतार वह है जहाँ मंत्र संकल्प आदि के वश भगवान् सन्निहित होते हैं। जैसे, मन्त्रादि से संस्कार की हुई शालग्राम आदि मूर्ति अर्चावतार है।
प्रकारांतर से अवतार के भी दो भेद हैं - अंशावतार और पूर्णावतार। जिसमें भगवान् की अल्प शक्ति प्रकट हो, वह अंशावतार है। जैसे, मत्स्यादि अवतार। ऐसा अवतार जिसमें भगवान् की अनेक शक्ति आविष्कृत हो, पूर्णावतार है। जैसे, राम-कृष्ण आदि अवतार (शा.भ.सू.वृ.पृ. 151 तथा भा.सु.वे.प्रे.पृ. 6)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अवरोह
फल भोग के अनन्तर पुनः इस लोक में नीचे उतरना अवरोह है। इष्टादि कर्म से अतिरिक्त अनिष्ट कर्म करने वाले प्राणी का चन्द्रलोक में गमन नहीं होता है, किन्तु अपने अनिष्ट कर्मों का फल भोगने के लिए उसका यमलोक में आरोहण होता है और फल भोग के अनन्तर पुनः इस लोक में अवरोहण होता है। अर्थात् कर्मानुसार फलानुभव के लिए ऊपर आरोहण होता है और फल का भोग कर चुकने पर पुनः नीचे अवरोहण (उपरना) होता है, यही अवरोह है (अ.भा.पृ. 851)।