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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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अनुस्‍नान
पाशुपत विधि का एक अंग।
दिन में तीन बार भस्म स्‍नान करने के अपरांत यदि कभी किसी कारणवश जैसे उच्छिष्‍ट वस्तु के छू जाने से, थूकने से अथवा मूत्र या पुरीष आदि के उत्सर्ग से योगी का शरीर अपवित्र हो जाए तो उसे पुन: भस्मस्‍नान करना होता है, अर्थात् शरीर पर पुन: भस्म मलना होता है। इस तरह से अवश्य रूप से विहित तीन भस्म स्‍नानों के अतिरिक्‍त किसी आगन्तुक अशुद्‍धि को दूर करने के लिए किए जाने वाले तीन से अधिक चौथे या पाँचवें आदि भस्म स्‍नान को अनुस्‍नान कहते हैं। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 10)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अपहतपाप्या
सभी पापों से रहित।
साधक के पाशुपत विधि के अनुसार पाशुपत योग का पालन करने पर उसके समस्त पापों का क्षय हो जाता है। पाशुपत मत में पाप दो तरह के माने गए हैं-सुखलक्षण वाले तथा दुःखलक्षण वाले। उन्माद, मद, मोह, निद्रा, आलस्य, कोणता (कँपकँपी की बीमारी वाली अवस्था), लिङ्गरहित (पाशुपत मत को बताने वाले भस्मादि चिन्हरहित रहना), झूठ बोलना तथा बहुत भोजन करना आदि सुखलक्षण वाले पाप माने गए हैं; क्योंकि इन पापों को मनुष्य सुख प्राप्‍ति तथा आत्मतृप्‍ति के लिए करता है। शिरोवेदना, दंतपीड़ा, अक्षिपीड़ा आदि के कारणभूत पाप दुःखलक्षण वाले पाप माने गए हैं; क्योंकि यह शारीरिक पीड़ा देने वाले होते हैं और मनष्य का इन पर वश नहीं रहता है। पाशुपत साधक के इन सभी तरह के पापों के क्षय होने पर वह अपहत पाप्या अर्थात् पापों से पूर्णतया मुक्‍त हो जाता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 80)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अपितत्करण
पाशुपत योग की विशेष साधनाओं में से एक।
इसका अर्थ है सभी निंदनीय क्रियाओं को करना। पाशुपत साधक को क्राथन आदि सभी निंदनीय क्रियाएँ करनी होती हैं। यह नहीं, कि वह क्राथन, स्पंदन, मंटन आदि में से कोई एक क्रिया ही करे, अपितु उसे सभी क्रियाओं को करना होता है। तब कहीं योग सिद्‍धि होती है। इन सभी क्रियाओं के करने पर लोग कहेंगे कि यह पुरुष अनुचित कार्यों का कर्ता है। इसे शुचि, अशुचि, कार्य अकार्य का ज्ञान नहीं है। इन निंदा से वह पापों से छुटकारा पाता हुआ पुण्यों का ही अर्जत करता रहेगा और अंतत: शुद्‍धि को प्राप्‍त करेगा। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 87)।
गणकारिका की टीका के अनुसार पाशुपत साधक को कार्य और अकार्य के विवेक से शून्य होकर, अर्थात् क्या उचित है क्या नहीं इन बातों का ध्यान छोड़कर, ऐसे ऐसे कार्य करने होते हैं, जिनसे लोकनिंदा होती रहेगी। यही साधक की अपितत्करण नामक योग क्रिया है। (ग. का. टी. पृ. 19)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अपितद्‍ भाषण
पाशुपत योग की विशेष साधना का एक प्रकार।
पाशुपत मत में अपितद्‍भाषण भी एक साधना है जिसमें साधक को अनर्गल बोलते जाना होता है, ताकि लोग यह समझें कि यह पुरुष वक्‍तव्य तथा अवक्‍तव्य में अंतर नहीं जानता है, अनर्गल प्रलाप करता है। तब वे उसकी निंदा करने लग जाते हैं। ऐसी निंदा से साधक के सभी पापों का क्षय होता है (पा. सू. कौ. भा. पृ. 87)। क्योंकि परिभव के होने पर साधक श्रेष्‍ठ तप का अभ्यास करने वाला योगी बन जाता है। (परिभूयमानो हि विद्‍वान् कृत्स्‍नतपा भवति पा. सू. 3-19)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अप्रतीघात
पाशुपत सिद्‍धि का एक लक्षण।
पाशुपत मत के अनुसार युक्‍त साधक प्राप्‍त सिद्‍धियों के सामर्थ्य से अपने समस्त अभिप्रेत स्थानों व देशों में घूम फिर सकता है। उसको किसी तरह का कोई प्रतीघात (बाधा) नहीं पड़ता है। वह प्राकार के बीच में से संक्रमम करके बाहर जा सकता है; समुद्र के तल तक पहुँच सकता है; बिना किसी वायुयान के इच्छामात्र से देश देशांतरों का भ्रमण कर सकता है। उसे देश-काल का प्रतीघात अर्थात् रुकावट कहीं नहीं आती है। (ग. का. टी. प. 10)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अप्रमाद
पाशुपत योग में यमों का एक प्रकार।
पाशुपत योगी को सभी यमों का पालन करते हुए अप्रमादी रहना होता है; अर्थात् बहुत ध्यानपूर्वक रहना होता है; क्योंकि अप्रमाद, दम (संयम) तथा त्यागवृत्‍ति ब्राह्मण के घोड़े होते हैं, मन रथ होता है, शील लगाम होती है। मन रुपी ऐसे रथ पर साधक आरूढ होकर जन्म व जरा के पाशों का क्षय करके अप्रमादी बनकर ब्रह्मभाव को प्राप्‍त करता है। अतः अप्रमाद एक बहुत आवश्यक यम है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 33, 141)।
भासर्वज्ञ ने अप्रमाद को पंचम प्रकार का बल माना है। जब पाशुपत साधक की निश्‍चल स्थिति केवल शुद्‍ध ज्ञान में ही रहती है, उसकी ऐसी अवस्था को उन्होंने अप्रमाद कहा है। (ग. का. टी. पृ. 7)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अभयत्व
पाशुपत सिद्‍धि का लक्षण।
पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार मुक्‍त साधक को योग की उच्‍च भूमि पर अधिष्‍ठित होने के उपरांत किसी तरह का भय नहीं रहता है, अर्थात् भूत, वर्तमान व भविष्य संबंधी किसी भी बात का डर उसे नहीं रहता है। साधक की इस प्रकार की स्थिति अभयत्व कहलाती है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 49; ग. का. टी. पृ. 10)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अभीत
भयरहित।
पाशुपत मत में सिद्‍ध साधक को अतीव उत्कृष्‍ट कोटि का माना गया है। उसके लिए भूत, वर्तमान अथवा भविष्य में कभी भी कोई भय नहीं होता है। संसार तथा प्रकृति के नियमों के अनुसार इस जगत् का ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यंत क्षय होता है, अतः यहाँ पर यह प्रश्‍न उठता है कि पाशुपत साधक का भी अंततोगत्वा क्षय तो होना ही है; तो क्या उसे उस क्षय का भय नहीं होता है? पाशुपात शास्‍त्र का उत्‍तर है, नहीं। पाशुपत साधक को विनाश का भय नहीं होता है; क्योंकि वह अक्षय होता है। अतः उसे मृत्युभीति नहीं होती है। यहाँ पर अक्षय से यह तात्पर्य नहीं है कि पाशुपत साधक के स्थूल शरीर का क्षय नहीं होता है। स्थूल शरीर तो किसी दिन जीर्ण शीर्ण होकर समाप्‍त होता ही है, परंतु मुक्‍त साधक को जब वास्तविक ज्ञान हो जाता है तो वह अपनी आत्मा को तत्वत: जानकर अक्षयी समझने लगता है। वह मृत्यु से भी अभीत बनकर रहता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 49)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अमर
सिद्‍ध साधक का एक लक्षण।
पाशुपत मतानुसार सिद्‍ध साधक अमर होता है, अर्थात् उसकी मृत्यु नहीं होती है। इस स्थूल शरीर का प्राणों से वियोग तो अवश्यंभावी है, परंतु पाशुपत साधक को प्राण वियोग का भय नहीं होता है, अर्थात् प्राणों के वियोग से जन्य दुःख का संस्पर्श उसे नहीं होता है। उसका वास्तविक स्वरूप चमकता ही रहता है, अर्थात् उसकी शुद्‍ध आत्मा न कभी जन्मता है न कभी मरता है और उसे इस बात का ज्ञान होता है। अतएव उसे अमर कहा गया है। उसका वास्तविक स्वरूप में चमकते रहना ही अमरत्व होता है। (ग. का. टी. प. 10)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अमरत्व
पाशुपत सिद्‍धि का एक लक्षण।
पाशुपत साधक अमरत्व को प्राप्‍त करता है क्योंकि वह अपनी स्वतंत्र इच्छाशक्‍ति के बल से भिन्‍न भिन्‍न रूपों को धारण कर सकता है तथा उनका संहार भी कर सकता है। अतः ये स्थूल रूप उसके लिए कुछ अर्थ नहीं रखते। इनकी सृष्‍टि-संहार तो प्रकृति का नियम है। साधक की वास्तविक आत्मा अमर (मृत्यु रहित) होती है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 50)।
जैसा कि गणकारिका में कहा गया है कि साधक को प्राणादि के वियोग से उत्पन्‍न दुःख स्पर्श नहीं करता है; अर्थात् स्थूल शरीर की मृत्यु तो प्रकृति के नियम के अनुसार अपने निश्‍चित समय पर हो जाती है परंतु युक्‍त साधक को प्राण त्यागते समय साधारण मनुष्य के समान दुःख नहीं होता है। वह इस प्रकार से अमरत्व को प्राप्‍त करता है। (प्राणादिवियोगज दुःखासंस्पर्शित्ममरत्वम् ग.का.टी.पृ. 10)।
(पाशुपत शैव दर्शन)


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