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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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ब्रह्‍म
ईश्‍वर का नामांतर।
भगवान पशुपति को ब्रह्‍म नाम से भी अभिहित किया गया है, क्योंकि वह बृहत् (व्यापक अथवा श्रेष्‍ठ) है तथा उसमें बृंहण सामर्थ्य है (ग.का.टी.पृ.12)। बृंहण वृद्‍धि को या विकास को कहते हैं। परमेश्‍वर से ही समस्त ब्रह्‍माण्ड का विकास होता है। वे ही इसके विकासक या बृंहक हैं। इसीलिए उन्हें ब्रह्‍म कहा जाता है। ब्रह्‍म शब्द का ऐसा अर्थ काश्मीर शैव दर्शन के मालिनी विजय वार्तिक पृ.25 तथा पराजीशिका विवरण पृ.121 में भी दिया गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

ब्रह्‍मचर्य
पाशुपत योग में यमों का एक प्रकार।
मनुष्य की त्रयोदश इन्द्रियों (पञ्‍च कर्मेन्द्रिय, पञ्‍च ज्ञानेन्द्रिय तथा मन, बुद्‍धि व अहंकार) का संयम विशेषकर जिह्वा तथा उपस्था जननेन्द्रिय का संयम ब्रह्‍मचर्य कहलाता है। पाशुपतसूत्र के कौडिन्यभाष्य में जिह्‍वा और उपस्थ के संयम का विशिष्‍ट निर्देश दिया गया है। क्योंकि शेष ग्यारह इन्द्रियाँ इन्हीं दो से संबंधित होती हैं। जिह्वा व उपस्थ को मानव का शत्रु माना गया है, क्योंकि इन्हीं दो की प्रवृत्‍तियों से समस्त देहधारियों का पतन होता है। इन्द्रियों की प्रवृत्‍ति से, अर्थात् उनके किसी भी कर्म में प्रवृत्‍त होने से, दुःख उत्पन्‍न होता है, तथा उनके संयम में रहने से सुख होता है, क्योंकि जब इन्द्रियाँ प्रवृत्‍त नहीं होंगी तो किसी भी परिणाम की जनक नहीं बनेंगी। परिणाम, सुख अथवा दुःखपूर्ण, नहीं होगा तो सुख, दुःख दोनों आपेक्षिक भावों का जन्म नहीं होगा। अतः इन्द्रियों को संयम में रखना अतीव आवश्यक है। पाशुपत योग में ब्रह्मचर्य को बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है। जो ब्राह्मण ब्रह्मचर्य का सेवन करते हैं, वे दूध, मधु व सोमरस का पान करते हैं और मृत्यु के उपरांत अमरत्व को प्राप्‍त करते हैं। ब्रह्‍मचर्य वृत्‍ति में धैर्य है, तप है। जो ब्राह्‍मण ब्रह्‍मचर्यवृत्‍ति का पालन करते हैं उन्हें स्वर्गलोक की प्राप्‍ति होती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.21)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

भवोद्‍भव
ईश्‍वर का नामांतर।
भव (इस समस्त दृश्य जगत) का उत्पत्‍ति कारक होने के कारण ईश्‍वर को भवोद्‍भव कहा गया है। यद्‍यपि इस बाह्य जगत की उत्पत्‍ति जड़ प्रकृति तत्व से होती है। फिर भी उस तत्व को सृष्‍टि का कारण माना नहीं जाता है, क्योंकि वह तत्व स्वयं सृष्‍टि करने में समर्थ नहीं। उससे विश्‍व की सृष्‍टि तभी होती है जब ईश्‍वर उसमें से इस सृष्‍टि को करवाता है। अतः ईश्‍वर ही सृष्‍टि का प्रधान कारण है। अतः उसे भवोद्‍भव कहते हैं। उसे कारणकारणं भी कहते हैं (पा.सू.कौ.भा.पृ.55)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

भस्म
पाशुपत विधि का एक आवश्यक अंग।
इन्धन व अग्‍नि के संयोग से जो राख उत्पन्‍न होती है अर्थात् इन्धन को जलाकर जो राख बनती है, वह भस्म कहलाती है। पाशुपत संन्यासी को भस्म की भिक्षा मांगनी होती है, क्योंकि भस्म को पवित्रतम वस्तु माना गया है और यह पवित्रीकरण का एक उत्कृष्‍ट साधन है। अतः पाशुपत योगी को भस्मप्राप्‍ति चाहे थोड़ी मात्रा में ही हो, आवश्यक रूप से करनी होती है। साधक को दिन में कई बार भस्म मलना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.8)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

भस्मशयन
पाशुपत विधि का एक अंग।
पाशुपत विधि के अनुसार शारीरिक पवित्रीकरण के लिए भस्मशयन करना होता है। रात्रि में भस्मशय्या को छोड़कर कहीं और शयन करना विधि-विरुद्‍ध है। पाशुपत योगी के लिए रात्रि को भस्मशय्या पर ही शयन करना अतीव आवश्यक है। वह जब कभी लेटे तो उसे भस्म में ही लेटना होता है। उससे उसका शरीर सदा पवित रहता है। मन की पवित्रता भी उससे बढ़ती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.8)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

भस्मस्‍नान
पाशुपत विधि का एक अंग।
पाशुपत विधि के अनुसार भस्मस्‍नान विधि का एक आवश्यक अंग है। योगी को जल की अपेक्षा भस्म से ही शारीरिक पवित्रीकरण के लिए स्‍नान करना होता है। शरीर पर भस्म मलना ही भस्मस्‍नान होता है जिससे शरीर पर लगे स्‍निग्ध द्रव, तेल अथवा लेप या स्वेदजनित दुर्गन्ध आदि दूर हो। भस्मस्‍नान दिन में तीन बार पूर्वसन्ध्या, अपराह्नसन्ध्या तथा अपरसन्ध्या अर्थात् दिन के तीन विशेष पहरों में करना होता है। यदि किसी आगंतुक कारण से पवित्रता में भंग आए तो तब भी उसे पुन: भस्मस्‍नान करना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.9)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

भैक्ष्यम्
भिक्षा द्‍वारा प्राप्‍त किया हुआ अन्‍न।
भैक्ष्य पाशुपत साधक की वृत्‍ति का प्रथम प्रकार है। पाशुपत योग में साधक के जीवन की हर तरह की वृत्‍ति के बारें में उपदेश दिया गया है। उस योग की प्रथम भूमिका में साधक के भोजन के लिए भिक्षा का निर्धारण किया गया है। अतः पाशुपत साधक को भोजन केवल भिक्षा से ही करना होता है उसके अतिरिक्‍ति किसी भी अन्य व्यवसाय से नहीं। उसे शुद्‍धचरित्र गृहस्थों के घर-घर घूमकर भक्ष्य और भोज्य वस्तुओं की भिक्षा लेकर भोजन करना होता है। भिक्षा भी अधिक नहीं लेनी होती है। अपितु एक बार मांगने पर पात्र में जितनी भिक्षा (पात्रागतम्) मिल जाए, बस उसी से काम चलाना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 118)
(पाशुपत शैव दर्शन)

मण्टन / मन्दन
पाशुपत योग का एक अंग।
पाशुपत योग में मण्टन या मन्दन भी एक योग क्रिया है, जहाँ साधक को लंगड़ाकर चलने का अभिनय करना होता है, जैसे पैर में विरुपता हो। इस तरह के अभिनय से लोग उसका अपमान करेंगे और ऐसे अपमानित व निन्दित होते रहने पर वह उन निन्दकों के पुण्यों को प्राप्‍त करता रहेगा और उसके पाप उनमें संक्रमित होंगे। (पा.सू.कौ.भा.पृ.85)। अपमान से उसका वैराग्य बढ़ता है और लोक के प्रति राग बढ़ता नहीं, उससे चित निर्मल हो जाता है। (अपहतपादेन्द्रियस्येव गमन मन्दनम्-ग.का.टी.पृ.19)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

मतिप्रसाद
बल का एक प्रकार।
पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार बुद्‍धि की पूर्ण अकलुषता (शुद्‍धता) मतिप्रसाद नामक बल होता है। यह बल का द्‍वितीय प्रकार है। बुद्‍धि का अकालुष्य दो तरह का कहा गया है- पर अकालुष्य तथा अपर अकालुष्य। पर अकालुष्य में कलुषता का सबीज उच्छेद होता है अर्थात् जहाँ भविष्य में भी कलुषता के उत्पन्‍न होने की संभावना भी नहीं रहती है। वहाँ पर अकलुषत्व होता है। परंतु जहाँ कालुष्य का बीज तो रहता है लेकिन वर्तमान में उत्‍पन्‍न कालुष्य का निरोध होता है वहाँ बीज उपस्थित होने के कारण कभी भी कलुषता का समावेश हो सकता, अतः वह अपर अकालुष्य कहलाता है। (ग.की.टी.पृ.6)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

मननशक्‍ति
चिन्तनशक्‍ति।
पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार सिद्‍ध साधक में मनन शक्‍ति जागृत हो जाती है। सिद्‍ध साधक या मन्ता के द्‍वारा मन्तव्य (चिन्तनयोग्य ज्ञान) को मनन करने की शक्‍ति मननशक्‍ति कहलाती है; अर्थात् युक्‍त साधक समस्त चिन्तन योग्य ज्ञान को मनन करने की शक्‍ति प्राप्‍त कर लेता है। इससे उसकी अपनी समस्त शङ्काएं शान्त हो जाती हैं तथा वह औरों की शङ्काओं का भी प्रशमन कर सकता है। यह मननशक्‍ति पाशुपत योग साधना का एक फल है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.42)।
(पाशुपत शैव दर्शन)


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