पाशुपत शास्त्रों में ईश्वर को तत्पुरुष नाम से भी अभिहित किया गया है। क्योंकि वह आदि पुरुष है, जो समस्त जगत का कारणभूत तत्व है तथा जो समस्त विश्व के कण कण में व्याप्त होते हुए विविध रूपों में चमकता है (पा. सू.कौ.भा. पृ. 107)।
पाशुपत साधना में वेदोक्त तत्पुरुष के मंत्रों का भी प्रयोग किया जाता है। (तत् पुरुषाय विद्महे, महादेवाय धीमहि, तन्नो रुद्र: प्रचोदयात्)-पा. सू. 4-22, 23,24)। ऐसे मंत्र शैवी साधना में प्रयुक्त होते हैं। नारायणीय उपनिषद में भी ऐसे बहुत सारे शिवमंत्र दिए गए हैं।
(पाशुपत शैव दर्शन)
तप
लाभ का एक प्रकार।
तप लाभ का दूसरा प्रकार है। पाशुपत साधक की भस्मस्नान, भस्मशयन आदि क्रियाओं से उसमें जो धर्म उद्बुद्ध होता है, वह तप कहलाता है। इस तप के कई चिह्न होते हैं जैसे गति, प्रीति, प्राप्ति, धर्मशक्ति तथा अतिगति। (ग.का.टी.पृ. 15)। जैसे कोतवाल नगर की सम्पत्ति की रक्षा करता है, उसी तरह से तप धर्म की रक्षा करता है। अधर्म रूपी चोर से साधक को तप ही बचाए रखता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
तृतीयावस्था
पाशुपत साधक की एक अवस्था।
पाशुपत साधना की जिस अवस्था में साधक को भिक्षावृत्ति से जीविका का निर्वाह करना होता है, वह साधना की तीसरी अवस्था तृतीयावस्था कहलाती है। इस अवस्था में साधक की तपस्या में दिन प्रतिदिन वृद्धि हो जाती है और उसके मल साफ होते जाते हैं। उससे वह अपने ऐश्वर्य के साक्षात् अनुभव के योग्य बन जाता है, जो अनुभव उसे चतुर्थावस्था में प्राप्त होता है। (ग.का.टी.पृ.5)।