पाशुपत योगी के योग की चतुर्थावस्था छेदावस्था कहलाती है। जब साधक को किसी बाह्य क्रियाकलाप की आवश्यकता ही नहीं रहती है, अर्थात् इन सभी क्रियाओं का अवसान अथवा छेद हो जाता है। तात्पर्य यह है कि पाशुपत साधना के द्वारा जब साधक को अपनी वास्तविक परमेश्वरता रूप शक्ति का साक्षात्कार होने लगता है तो उसकी बाह्य क्रियाएं धीरे-धीरे छूटने लगती हैं। उन बाह्य क्रियाओं का छूट जाना ही यहाँ छेद शब्द से अभिप्रेत है। (ग.का.टी. पृ. 8)।