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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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उत्सृष्‍ट
वृत्‍ति का एक प्रकार।
साधक के जीवन निर्वाह के उपाय को वृत्‍ति कहते हैं। उत्सृष्‍ट वृत्‍ति का एक प्रकार है। पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार देवता या मातृका आदि के उद्‍देश्य से जो अन्‍न भेंट चढ़ाकर कहीं रखा गया हो अथवा कहीं छोड़ा गया हो वह अन्‍न उत्सृष्‍ट कहलाता है। पाशुपत साधक को साधना के मध्यम स्तर पर वही उत्सृष्‍ट अन्‍न खाना होता है, भिक्षा नहीं मांगनी होती है। उत्सृष्‍ट के रूप में जो भी मिले उसी पर निर्वाह करना होता है। यह उत्सृष्‍ट वृत्‍ति का द्‍वितीय भेद है। (ग. का. टी. पृ. 5)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

उन्मत्‍तवद् विचरण
पागल की भाँति विचरण।
पाशुपत साधक को पाशुपत योग करते करते भिन्‍न भिन्‍न आचारों का आचरण करना होता है। उनमें से साधना की उत्कृष्‍ट भूमिका में एक उन्मत्‍तवद्‍ विचरण नामक आचार है। इसमें साधक को उन्मत्‍त की तरह घूमना और व्यवहार करना होता है। उसको अपने अंतःकरणों और बाह्यकरणों में वृत्‍ति विभ्रम का अभिनय करना होता है। ऐसे उन्मत्‍त की तरह घूमते रहने से लोग उसको मूढ़ उन्मत्‍त कहकर निंदित करते हैं जिससे उसके पुण्य बढ़ते हैं तथा पाप घटते हैं क्योंकि साधक की प्रशंसा करने वाला उसके पापों को ले लेता है और फलत: साधक के सभी संचित कर्म दूसरों के लेखे में चले जाते हैं। साधक को कर्मों से छुटकारा मिलता है। यह बात मनुस्मृति में भी कही गई है। (मनु स्मृति 6-79)। संभवत: पाशुपत साधकों ने भी इसी सिद्‍धांत का अनुसरण करते हुए इस बात पर अत्यधिक बल दिया है। (पा. सू. कौ. मा. पृ. 96, 97)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

उपस्पर्शन
विधि का एक प्रकार।
पाशुपत साधक को आगंतुक मल (कलुष) निवृत्‍ति के लिए भस्म का स्पर्श करना होता है। उपस्पर्शन यहाँ पर स्‍नान के पर्याय के रूप में प्रयुक्‍त हुआ है। एक बार भस्म स्‍नान के बाद यदि कुछ उच्छिष्‍ट वस्तु छू जाए अथवा उच्छिष्‍ट व्यक्‍ति या पदार्थ पर दृष्‍टी पड़े तो साधक को फिर से दुबारा भस्म का स्पर्श करना उपस्पर्शन कहलाता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 37)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

उपहार
पाशुपत धर्म की विधि का एक अंग।
पाशुपत विधि के अनुसार व्रत या नियम को उपहार कहते हैं। पाशुपत साधक को अपने आप को उपहार रूप में भगवान महेश्‍वर को अर्पण करना होता है। अपनी समस्त इंद्रियों का प्रत्याहार करके, समस्त कायिक, वाचिक तथा मानसिक व्यापारों को महेश्‍वर को उपहार स्वरूप में अर्पित करके स्वयं भृत्यवत् व्यवहार करना होता है; अर्थात् पाशुपत साधक का कोई भी व्यापार अपने इस क्षुद्र सीमित व्यक्‍तित्व से संबंधित नहीं रखना होता है। अपितु समस्त व्यापारों को, यहाँ तक कि अपने आप को भी महेश्‍वर को दासवत् अर्पण करना होता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 14)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

उपाय
साधन।
ज्ञान, तप आदि पाँच लाभों के प्राप्‍ति के पाँच साधन पाशुपत दर्शन में उपाय कहलाते हैं। इस तरह से इस साधना के साधकतम साधन उपाय हैं अर्थात् वे साधनाएँ जिनके अभ्यास से साधक शुद्‍धि को प्राप्त करता है। (ग. का. टी. पृ. 4)। उपाय पंचविध हैं -
वासश्‍चर्या जपध्यानं सदा रूद्रस्मृतिस्तथा। प्रसादश्‍चैव लाभानामुपायाः पंच निश्‍चिताः।। (ग. का. 7 )।
इस तरह से उपायों के भीतर सभी स्तरों पर की जाने वाली पाशुपत साधना आती है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

उपाधिमाट
देखिए 'माट'।
(वीरशैव दर्शन)


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