ईश्वर को कलविकरण कहा गया है क्योंकि वह क्षेत्रज्ञों (जीवों) को भिन्न-भिन्न कलाओं (कार्याख्या-पृथ्वी आदि तथा कारणाख्या-शब्द आदि) से संपृक्त कर लेता है। अर्थात् जीवों को भिन्न-भिन्न स्थानों से संपृक्त करके उन्हें विविध गुणों (धर्म, ज्ञान, वैराग्य ऐश्वर्य, अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्वर्य) से युक्त बना देता है। इस तरह से कलाओं का विविधतया करण (निर्माण) करता हुआ वह कलविकरण कहलता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 74)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
कला
कार्य का एक प्रकार।
कला अचेतन है और चेतन कारण पर ही पूर्णत: निर्भर है। पञ्चभूत, उनमें रहने वाले गुण तथा कर्मेन्द्रियाँ कला कहलाते हैं। कला द्विविध है- कार्याख्याकला तथा कारणाख्याकला। कार्याख्याकला दस प्रकार की कही गई है-पञ्चभूत-पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश तथा उनमें रहने वाले पाँच गुण-गंध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द। कारणाख्या कला में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ घ्राण, रसना, चक्षु, त्वक् और श्रोत्र; पाँच कर्मेन्द्रियाँ- हाथ, पैर, वाणी, गुदा और उपस्थ तथा तीन अंतःकरण मन, बुद्धि और अहंकार आते हैं। इस तरह से कारणाख्याकला तेरह प्रकार की हुई। (सर्वदर्शन संग्रह, पृ. 168)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
कलितासनम्
ईश्वर का नामांतर।
ईश्वर कार्य से कलित अथवा विभूषित होने के कारण कार्य का आसन है। जैसे आकाश तारों से कलित होताहै ठीक उसी प्रकार ईश्वर तीन प्रकार के कार्य-विद्या, कला तथा पशु से विभूषित होता है क्योंकि इस तीन प्रकार की वही सृष्टि, स्थिति व संहार करता है। 'आसन' शब्द से यहाँ पर पद्मासन आदि से तात्पर्य नहीं है अपितु आसन शब्द यहाँ पर ईश्वर की शक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ है। ईश्वर कार्य में स्थित है- (आस्ते ട अस्मिन् आसनम् कार्यमनेव वा अध्यास्त इत्यासन मित्यर्थ :- पा. सू. कौ. भा. पृ. 58)। अव्यय या अमृतस्वरूप ईश्वर अपनी स्वतंत्र इच्छा से समस्त कार्य में स्थित रहता है और वह कार्य उसकी अपनी ही शक्ति में सदा ठहरा रहता है। अतः कार्य सदा कारण में स्थित रहता है। पर सत्तारूप पशुपति व्यापक है, कार्य व्याप्य है। वह अपनी स्वतंत्र इच्छा से समस्त कार्य की बहीः सृष्टि करता है। अतः कलितासनम् कहलाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 58,59,60)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
कापालिक
पाशुपत संन्यासियों का एक संप्रदाय।
कापालिक पाशुपत मत का ही अवान्तर भेद है। कापाली संन्यासी शिव के कपाली रूप को ही अधिकतर पूजते हैं। इसी कारण कापालिक कहलाते हैं। लिंग पुराण के नौवें अध्याय तथा कर्मपुराण के सोलहवें अध्याय में कापालिक मत को वेदबाह्य कहा गया है। कुछ अभिलेखों में कापालिकों को सोमसिद्धांती तथा शिवशासन, इन नामों से अभिहित किया गया है।
मैत्रायणीय उपनिषद में सोमसिद्धान्तियों का उल्लेख आया है। बृहत् संहिता के 86 वें अध्याय के बाइसवें श्लोक में कापालिकों का ऐसा उल्लेख हुआ है कि वे मानव हड्डियों की मालाएँ पहनते हैं, मानवखोपड़ी में भोजन खाते हैं और ब्राह्मण की खोपड़ी की हड्डी में सुरापान करते हैं तथा अग्नि में मानवमांस की बलि देते हैं। यह कापालिक मत प्राय: समस्त भारत में फैल गया था। भवभूति (आठवीं शती) के नाटक मालतीमाधव में कापालिकों का लंबा चौड़ा वृतांत आया है। जैन राजा महेंद्रवर्मन (छटी शती) के मत्तविलासप्रहसन में कापालिकों के आचार विचार का स्पष्ट वर्णन है। दण्डी के दशकुमार चरित में भी कापलिक संन्यासी का वर्णन है। कथासरित्सागर में कापालिकों संबंधी कई एक आख्यान आए हैं। यमुनाचार्य के आगमप्राभाष्य में भी इनका संक्षिप्त वर्णन आया है। कापालिकों के मत में निम्नलिखित छः मुद्राओं को धारण करने से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है। वे छः मुद्राएँ हैं-कर्णिका, रुचक, कुण्डल, शिखामणि, भस्म और यज्ञोपवीत। इनके अतिरिक्त कुछ गुप्त क्रियाओं का भी विधान किया जाता था।
इस तरह से पाशुपतों में से ही कोई अत्युग्र साधना में लगे हुए साधु साधक कापालिक कहलाते थे। इन्हें अतिमार्गी भी कहा गया है, क्योंकि इनकी साधना सभी शास्त्रीय मार्गों का अतिक्रमण करती है। इन्हें महाव्रती भी कहा जाता था, क्योंकि ये अतीव उग्र व्रतों का पालन करते रहे। वर्तमान आनन्दमार्गी साधुओं ने भी कापालिक मत के कई एक उग्र अंशों को ग्रहण किया है। महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में भी कापालिकों का वर्णन आता है। अग्रतर कापालिकों को कालामुख नाम दिया गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
कामरुपित्व
इच्छानुसार भिन्न-भिन्न रूपों को धारण करने की शक्ति।
कामरुपित्व उद्बुद्ध क्रियाशक्ति का दूसरा प्रकार होता है। सिद्ध साधक का अपनी स्वतंत्र इच्छा के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों को धारण कर पाना उसका कामरुपित्व होता है। 'काम' यहाँ पर इच्छा अर्थ में प्रयुक्त हुआ है तथा 'रुपित्व' भिन्न-भिन्न रूपों के अर्थ में। सिद्ध साधक का अधिकार सृष्टिकृत्य पर हो जाता है। जैसे गणकारिकाव्याख्या में कहा गया है कि कर्मादि से निरपेक्ष होकर स्वेच्छा से अनन्त रूपों को धारण करना ही कामरुपित्व होता है। (ग. का. टी. पृ. 10)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
कारण
हेतु।
पाशुपत दर्शन के अनुसार ईश्वर अथवा पति ही वास्तविक कारण पदार्थ है। ईश्वर ही समस्त कार्य अथवा सृष्टि का परम कारण है, भवोद्भव है। (पा. सू. 1.44)। ईश्वर समस्त सृष्टजगत का एकमात्र उद्भव है। वह इस सृष्ट जगत को केवल उत्पन्न ही नहीं करता है अपितु इस जगत की स्थिति व संहार भी करता है तथा इन कृत्यत्रय को करने में पति पूर्णरूपेण स्वतंत्र है। उसे और किसी बाह्य वस्तु या कारण की अपेक्षा नहीं होती है। पति ही जीवों को बंधन में डालता है तथा वहीं उनको मुक्ति देता है। अतः समस्त कार्य का एकमात्र आधारभूत कारण पति है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 54, 55)। जन्म के कारणभूत प्राक्तन कर्म तभी सफल होते हैं जब पति उन्हें सफल बनाएँ। अतः मूल कारण वही है। मूल प्रकृति तेईस तत्वों का उपादान कारण है, परंतु उसे परिणामशील बना देने वाला पति ही वास्तविक कारण है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
कारवण
पाशुपत मत का उद्भव स्थान।
पुराणों और अभिलेखों के आधार पर कारवण उस स्थान विशेष का नाम है, जहाँ पर महेश्वर ने लकुलीश के रूप में मानव अवतार धारण किया। उस समय उस स्थान का नाम कायावरोहण या कायारोहण पड़ गया। यह स्थान बड़ौदा नगर से उन्नीस मील दूर स्थित वर्तमान कारवन नाम गाँव से अभिन्न है। कायावरोहण का अर्थ काया का अवरोहण अर्थात् उतरना तथा कायारोहण का अर्थ काया का उठना या चढ़ना है। दोनों शब्द विपरीतार्थक हैं, परंतु इन दोनों नामों का औचित्य यों सिद्ध होता है। जब महेश्वर की काया का अवरोहण श्मशान में पड़े शव में हुआ तो उस स्थान का नाम कायावरोहण पड़ गया। उस शव में अवतरित काया उस शरीर या काया के माध्यम से ही उठी तो स्थान का नाम कायारोहण पड़ गया। इस स्थान कायावरोहण अथवा कायारोहण का विस्तृत वर्णन कारवन माहात्म्य में मिलता है जो ईश्वर, देवी तथा ऋषियों आदि का संवाद है तथा गणकारिका के परिशिष्ट के रूप में ओरियंटल इंस्टीट्यूट, बड़ौदा से छपा है। इसमें कारवन का महात्म्य गाया गया है तथा लकुलीश के अवतार लेने के बारे में लंबा चौड़ा वर्णन किया गया है। इसमें लकुलीश का मुनि अत्रि के वंश में विश्वराज के पुत्र के रूप में जन्म का वर्णन है। (ग.का कारवन माहात्म्य पृ. 51)। इसमें कहा गया है कि इस स्थान पर शंकर स्वयं निवास करते हैं तथा इस स्थान के चार युगों में चार नाम गिनाए गए हैं। वे हैं-कृतयुग (सत्ययुग) में इच्छापुरी, त्रेतायुग में मायापुरी, द्वापरयुग में मेघावती तथा कलियुग में कायावरोहण। इस तरह से कारवण-माहात्म्य में कायावरोहण अथवा कायारोहण को पुष्यस्थली माना है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
कार्य
जगत्।
पाशुपत दर्शन के मुख्य पाँच पदार्थों में प्रथम पदार्थ कार्य है। इस दर्शन में जगत् को कार्य (फल) कहा गया है। कार्य को अस्वतंत्र माना गया है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 147)। गणकारिका टीका में भी कार्य की यही व्याख्या है कि जो कुछ भी अस्वतंत्र है वह कार्य है। (यदस्वतंत्रं तत्सर्वंकार्यं-ग.का.टी.पृ. 10)। वहाँ पर कार्य को द्रव्य भी कहा गया है। माधव के अनुसार जो तत्व ईश्वर पर निर्भर है वह कार्य है। (सर्वदर्शनसंग्रह प-.167)। कार्य त्रिविध होता है-विद्या, कला तथा पशु। इस तीन तरह के कार्य का एकमात्र कारण ईश्वर है। उसी में कार्य उत्पन्न होते हैं, उसी में लीन होते हैं।
(पाशुपत शैव दर्शन)
काल
दीक्षा का अंग।
दीक्षा को देने का कोई विशेष समय होता है। वह पूर्वाह्न अथवा पूर्वसंध्या का समय या दिन का पूर्व भाग होता है। (ग.का.टी.पृ.8)। काल दीक्षा का द्वितीय अंग है। उचित काल पर दी हुई दीक्षा शिष्य के लिए सफल हो जाती है, अतः उचित काल पर ही दीक्षा देने का विधान पाशुपत साधना में माना गया है। इसीलिए गणकारिका में काल को दीक्षा का एक अंग माना गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
काल
ईश्वर का नामांतर।
पाशुपत शास्त्र में ईश्वर को 'काल' नाम से अभिहित किया गया है क्योंकि वह समस्त चराचर जगत् (ब्रह्मा से लेकर कीट पर्यन्त) का सृष्टि संहार करता है।
महेश्वर भिन्न-भिन्न जीवों को भिन्न-भिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न स्थानों पर उत्पन्न करता है तथा संहार करता है, अतः उनका विविध रूपों में कलन करता हुआ वह काल भी कहलाता है।