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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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यथालब्ध
वृत्‍ति का भेद।
पाशुपत योग विधि के अनुसार साधक की जीविका की तृतीय प्रकार की वृत्‍ति यथालब्ध होती है। जब साधक को श्मशान में निवास करते हुए एक दिन में या कई एक दिनों में जो भी अन्‍न बिना मांगे अपने आपही मिले, उसी यथालब्ध अन्‍न से उसे जीविका का निर्वाह करना होता है। इस वृत्‍ति का पालन साधना के ऊँचे स्तर पर किया जाता है। अन्‍न कई दिन न मिलने पर उसे जलपान पर निर्वाह करना होता है, परंतु श्मशान से बाहर जाकर भिक्षा नहीं करनी होती है। (ग.का.टी.पृ.5)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

योग
जीव और ईश्‍वर का संयोग।
पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार आत्मा का परमात्मा से संयोग ही योग होता है। (अत्रात्मेश्वर संयोगो योग : पा.सू.कौ.भा.पृ.6)। यह संयोग दो प्रकार का कहा गया है। एक तो श्येन का स्थाणु से जैसे संयोग होता है, वहाँ श्येन ही संयोग के लिए चेतनोचित कार्य करता है। स्थाणु तो जड़ होता है। उसी प्रकार से श्‍येन की तरह जीवात्मा अध्ययन, मनन, साधना आदि करके परमात्मा के साथ संयोग प्राप्‍त कर लेता है अर्थात् परमात्मा की ओर से कोई प्रयत्‍न नहीं होता है। समस्त प्रयत्‍न केवल जीवात्मा का ही होता है।
दूसरे प्रकार का संयोग दोनों परमात्मा व जीवात्मा के प्रयत्‍न से होता है। जैसे दो भेड़ों का संयोग उन दोनों के प्रयत्‍नों से होता है, उसी तरह जीवात्मा के पक्ष में उसका अध्ययन, मनन आदि प्रयत्‍न रहता है तथा परमात्मा का प्रयत्‍न जीवात्मा को शक्‍तिपात के रूप में मुक्‍ति के प्रति प्रेरित करना होता है अर्थात् जीवात्मा तभी अध्ययन, मनन रूप यत्‍न करता है जब परमात्मा का प्रयत्‍न (शक्‍तिपात्) कार्य कर चुका हो। इस प्रकार से संयोग जीवात्मा तथा परमात्मा दोनों के प्रयत्‍न का फल होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.6)।
गणकारिका टीका में भी योग का लक्षण दिया गया है। उसके अनुसार पुरुष के चित्त द्‍वारा ईश्‍वर के साथ संयोग ही योग होता है। (चित्‍तद्‍वारेणेश्‍वर संबंधः पुरुषस्य योगः ग.का.टी.पृ. 14)। वह योग दो प्रकार का होता है- क्रियालक्षण योग तथा क्रियोपरमलक्षण योग। क्रियालक्षणयोग में जप, धारण, ध्यान, स्मरण आदि क्रियाएँ होती हैं तथा क्रियोपरमलक्षण योग में समस्त साधना रूपी क्रियाओं का उपरम हो जाता है तथा समाधि आदि सभी योग साधनों के शांत हो जाने पर साधक अतिगति अर्थात् शिवसायुज्य को प्राप्‍त करता है। (ग.का.टी.पृ. 15)। पाशुपत दर्शन के अनुसार योग अकलुषमति तथा प्रत्याहारी साधक को ही सिद्‍ध होता है। (ग.का.टी.पृ. 15)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

योगित्व
योगी की स्थिति।
रुद्रतत्व अर्थात् परमात्मतत्व पर ही चित्‍त की स्थिति योगित्व होती है। योगित्व युक्‍त साधक का लक्षण होता है जिस दशा पर पहुँचकर साधक बाह्य क्रिया-कलाप से असंपृक्‍त रहता है। (ग.का.टी.पु. 16; पा.सू.कौ.भा.पृ.110)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

योगी
जिस साधक की आत्मा का संयोग परमात्मा से हुआ हो वह योगी कहलाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.110)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

योगांग
देखिए 'अंग'।
(वीरशैव दर्शन)


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