पाशुपत शास्त्र के अनुसार जिन शक्तियों के द्वारा साधक मुक्ति को प्राप्त कर सकता है, वे शक्तियाँ बल कहलाती हैं। बल पाँच प्रकार के होते हैं- गुरुभक्ति, प्रसाद, द्वन्द्वजय, धर्म तथा अप्रमाद (ग.का.इ)। ये पाँच विषय भी पाशुपत दर्शन के प्रतिपाद्य विषयों में महत्वपूर्ण विषय हैं। तभी गणकारिका में इन्हें गिनाया गया है और टीका में इन पर प्रकाश डाला गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
बलप्रमथन
ईश्वर का नामांतर।
पाशुपत मत में ईश्वर को बलप्रमथन कहा गया है क्योंकि उसमें बलों (धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनैश्वर्य, इच्छा, द्वेष तथा प्रयत्न) की प्रवृत्ति का मन्थन अथवा निरोध करने की शक्ति होती है। तात्पर्य यह है कि इन बुद्धि धर्मों में अपना बल कोई नहीं है, इन्हें ईश्वर ही बल प्रदान करता है। उसी के द्वारा स्थापित नियति के आधार पर इनमें बल ठहराया जाता है। तो बल केवल शक्तिमान ईश्वर में ही है। वही किसी को बल दे सकता है और किसी के बल को विरुद्ध कर सकता है। अतः उसे बलप्रमथन कहते हैं। (पा.सू.कौ.भा.पृ.75)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
बहुरुपी
रूद्र के विविध रूपों संबंधी जप।
बहुरुपी रौद्री का ही नामांतर है तथा बहुरूप अघोर रूद्र का नामांतर है। रुद्र संबंधी जप में जब रुद्र के बहुत से रूपों का गायन होता है तो वही रौद्री बहुरूपी कहलाती है। अथवा यह जप-विशेष उस बहुरूप की प्राप्ति करवाता है (पा.सू.कौ.भा.पृ. 124)। इस बहुरूपी मंत्र का विस्तार बहुरूपगर्भस्तोत्र में मिलता है। पाशुपतसूत्र के तृतीय अध्याय के इक्कीसवें सूत्र से लेकर छब्बीसवें सूत्र तक बहुरूपी ऋचा का उपदेश किया गया है तदनुसार वह ऋचा यह है- अघोरेम्योടथ घोरेभ्य: घोरघोरतरेभ्यश्च सवेभ्य: शर्वसर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररुपेभ्य:। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 81-91)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
ब्रह्म
ईश्वर का नामांतर।
भगवान पशुपति को ब्रह्म नाम से भी अभिहित किया गया है, क्योंकि वह बृहत् (व्यापक अथवा श्रेष्ठ) है तथा उसमें बृंहण सामर्थ्य है (ग.का.टी.पृ.12)। बृंहण वृद्धि को या विकास को कहते हैं। परमेश्वर से ही समस्त ब्रह्माण्ड का विकास होता है। वे ही इसके विकासक या बृंहक हैं। इसीलिए उन्हें ब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म शब्द का ऐसा अर्थ काश्मीर शैव दर्शन के मालिनी विजय वार्तिक पृ.25 तथा पराजीशिका विवरण पृ.121 में भी दिया गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
ब्रह्मचर्य
पाशुपत योग में यमों का एक प्रकार।
मनुष्य की त्रयोदश इन्द्रियों (पञ्च कर्मेन्द्रिय, पञ्च ज्ञानेन्द्रिय तथा मन, बुद्धि व अहंकार) का संयम विशेषकर जिह्वा तथा उपस्था जननेन्द्रिय का संयम ब्रह्मचर्य कहलाता है। पाशुपतसूत्र के कौडिन्यभाष्य में जिह्वा और उपस्थ के संयम का विशिष्ट निर्देश दिया गया है। क्योंकि शेष ग्यारह इन्द्रियाँ इन्हीं दो से संबंधित होती हैं। जिह्वा व उपस्थ को मानव का शत्रु माना गया है, क्योंकि इन्हीं दो की प्रवृत्तियों से समस्त देहधारियों का पतन होता है। इन्द्रियों की प्रवृत्ति से, अर्थात् उनके किसी भी कर्म में प्रवृत्त होने से, दुःख उत्पन्न होता है, तथा उनके संयम में रहने से सुख होता है, क्योंकि जब इन्द्रियाँ प्रवृत्त नहीं होंगी तो किसी भी परिणाम की जनक नहीं बनेंगी। परिणाम, सुख अथवा दुःखपूर्ण, नहीं होगा तो सुख, दुःख दोनों आपेक्षिक भावों का जन्म नहीं होगा। अतः इन्द्रियों को संयम में रखना अतीव आवश्यक है। पाशुपत योग में ब्रह्मचर्य को बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है। जो ब्राह्मण ब्रह्मचर्य का सेवन करते हैं, वे दूध, मधु व सोमरस का पान करते हैं और मृत्यु के उपरांत अमरत्व को प्राप्त करते हैं। ब्रह्मचर्य वृत्ति में धैर्य है, तप है। जो ब्राह्मण ब्रह्मचर्यवृत्ति का पालन करते हैं उन्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.21)।