पाशुपत योग में मण्टन या मन्दन भी एक योग क्रिया है, जहाँ साधक को लंगड़ाकर चलने का अभिनय करना होता है, जैसे पैर में विरुपता हो। इस तरह के अभिनय से लोग उसका अपमान करेंगे और ऐसे अपमानित व निन्दित होते रहने पर वह उन निन्दकों के पुण्यों को प्राप्त करता रहेगा और उसके पाप उनमें संक्रमित होंगे। (पा.सू.कौ.भा.पृ.85)। अपमान से उसका वैराग्य बढ़ता है और लोक के प्रति राग बढ़ता नहीं, उससे चित निर्मल हो जाता है। (अपहतपादेन्द्रियस्येव गमन मन्दनम्-ग.का.टी.पृ.19)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
मतिप्रसाद
बल का एक प्रकार।
पाशुपत शास्त्र के अनुसार बुद्धि की पूर्ण अकलुषता (शुद्धता) मतिप्रसाद नामक बल होता है। यह बल का द्वितीय प्रकार है। बुद्धि का अकालुष्य दो तरह का कहा गया है- पर अकालुष्य तथा अपर अकालुष्य। पर अकालुष्य में कलुषता का सबीज उच्छेद होता है अर्थात् जहाँ भविष्य में भी कलुषता के उत्पन्न होने की संभावना भी नहीं रहती है। वहाँ पर अकलुषत्व होता है। परंतु जहाँ कालुष्य का बीज तो रहता है लेकिन वर्तमान में उत्पन्न कालुष्य का निरोध होता है वहाँ बीज उपस्थित होने के कारण कभी भी कलुषता का समावेश हो सकता, अतः वह अपर अकालुष्य कहलाता है। (ग.की.टी.पृ.6)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
मननशक्ति
चिन्तनशक्ति।
पाशुपत शास्त्र के अनुसार सिद्ध साधक में मनन शक्ति जागृत हो जाती है। सिद्ध साधक या मन्ता के द्वारा मन्तव्य (चिन्तनयोग्य ज्ञान) को मनन करने की शक्ति मननशक्ति कहलाती है; अर्थात् युक्त साधक समस्त चिन्तन योग्य ज्ञान को मनन करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है। इससे उसकी अपनी समस्त शङ्काएं शान्त हो जाती हैं तथा वह औरों की शङ्काओं का भी प्रशमन कर सकता है। यह मननशक्ति पाशुपत योग साधना का एक फल है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.42)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
मनोजवित्व
कार्यसंपादन में अतीव त्वरितता।
पाशुपत दर्शन के अनुसार सिद्ध साधक में उद्बुद्ध क्रियाशक्ति का एक प्रकार मनोजवित्व है। साधक में जब ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति उद्बुद्ध होती हैं तो उसकी इच्छाशक्ति इतनी सफल तथा स्वतंत्र हो जाती है कि वह जैसे ही मन में किसी कार्य के फलीभूत होने की इच्छा करता है, वह कार्य तुरंत विचार आते-आते ही फलीभूत होता है। ज्यों ही उसे किसी कार्य को करने की इच्छामात्र होती है, वह कार्य उसी क्षण हो जाता है। (निरतिशय शीघ्रकारित्व मनोजवित्वम्-ग.का.टी.पृ.10, पा.सू.कौ.भा.पृ.44)।)
(पाशुपत शैव दर्शन)
मनोടमन
ईश्वर का नामांतर।
पाशुपत दर्शन में ईश्वर को मनोमन नाम से अभिहित किया गया है। सकल (कलाओं सहित) तथा निष्कल (कलाओं रहित) दोनों ही अवस्थाओं में शक्तिमान होने के कारण ईश्वर को मनोടमन कहा गया है। मन से यहाँ पर अन्तःकरण से तात्पर्य है। पाशुपत दर्शन के अनुसार ईश्वर विश्वोत्तीर्ण तथा विश्वमय है। जब वह विश्वमय होकर रहता है तो सकल होने के कारण मन (अंतःकरणों) से संपृक्त रहने के कारण 'मन' कहलाता है। परंतु दूसरे पक्ष में जब वह विश्वोत्तीर्ण होकर कलाओं से रहित होने पर 'मन' से असंपृक्त रहता है तो 'अमन' कहलता है। तथा इन दोनों पक्षों में समान रूप से रहने के कारण मनोടमन कहलाता है। (पा.सू.कौ.भाऋ पृ. 76)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
मल
अशुद्धि।
पाशुपत साधक आत्मा के जिन भावों का क्षय करने के लिए साधना, जप व तप करता है, वे मल कहलाते हैं (ग.का.टी.पृ.4)। मल पाँच प्रकार के होते हैं- मिथ्याज्ञान, अधर्म, सक्ति हेतु, च्युति तथा पशुत्व (ग.का.8)। मलों के कारण पशु संसृति के बंधन में पड़ा रहता है। अतः मुक्ति को पाने के लिए मलों को धो डालना परम आवश्यक होता है। इसीलिए मलों को भी गणकारिका में शास्त्र के प्रतिपाद्य विषयों में गिना गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
महत्
ईश्वर का नामांतर।
पाशुपत मत में ईश्वर के स्वतंत्र ज्ञानशक्ति व क्रियाशक्ति संपन्न होने के कारण तथा समस्त पशुओं से उत्कृष्ट होने पर उसे महत् कहते हैं। पशु, पक्षी, मानव आदि की अपेक्षा देवगणों में बढ़चढ़कर ज्ञान और क्रिया की शक्तियाँ होती हैं। उनसे भी अधिक शक्तिमान ब्रह्मा, विष्णु आदि होते हैं। परंतु सभी शक्तिमानों की शक्तियों से बहुत बड़ी शक्तियाँ परमेश्वर में ही होती हैं। अतः उसे महान् (महत्) कहा जाता है। (फ.सू.कौ.भा.पृ. 127; ग.का.टी.पृ.11)
(पाशुपत शैव दर्शन)
महत्व
पाशुपत साधक का लक्षण।
पाशुपत मत में युक्त साधक नाना सिद्धियों की प्राप्ति से बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लेता है, क्योंकि उसमें और सभी जीवों से अधिक ऐश्वर्य होता है (सर्वपशुम्योടभ्यधिकत्वमैश्वपर्याति-शयान्ममहतवम्-ग.का.टी.पृ.10)। साधक के इस महत्व के निरुपण से पाशुपत योग के महत्व पर भी प्रकाश पड़ता है। पातंजल योग से केवल दुःखनिवृत्ति हो जाती है परंतु पाशुपत योग से परम ऐश्वर्य भी प्राप्त हो जाता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
महादेव
ईश्वर का नामांतर।
पाशुपत मत में ईश्वर का एक नामांतर महादेव आया है। ईश्वर के अति उत्कृष्ट ज्ञानशक्ति संपन्न होने के कारण उन्हें महादेव कहा गया है। देव शब्द का अर्थ क्रीडनशील, जयशील, प्रकाशनशील आदि होता है। ये गुण इन्द्र आदि सभी देवगणों में होते हैं। उनसे भी बढ़चढ़कर ब्रह्मा, विष्णु आदि पाँच कारणों में होते हैं। परंतु सबसे उत्कृष्ट जो देवत्व है वह एकमात्र परमेश्वर में ही होता है। इस कारण उसको महादेव कहते हैं। (पा.सू.कौ.भा.पृ.14)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
महाव्रत
पाशुपत शास्त्र में पाशुपत योगविधि का अनुसरण करना महाव्रत अथवा पाशुपत व्रत कहलाता है। पाशुपतसूत्र के चतुर्थ अध्याय में महाव्रत पाशुपत योगी के आचार मार्ग के रूप में प्रतिपादित हुआ है जहाँ साधक को अर्जित विद्या, व्रत, संस्कृत व पवित्र वाणी को गूढ़ (गुप्त) रखना होता है। इसके विपरीत उन्मत्त, अज्ञानी, मूढ़, दुराचारी आदि की तरह आचरण करना होता है, ताकि लोग उसके वास्तविक, पवित्र व सुसंस्कृत रूप से अपरिचित होने के कारण उसके बाह्य आचार को देखकर उसकी निंदा व अपमान करें।
पाशुपत सूत्र के कौडिन्य भाष्य में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि लोगों के द्वारा निन्दित होते रहने से साधक के समस्त पाप, निन्दा करने वाले लोगों को लगेंगे तथा उनके पुण्य साधक को लगेंगे। परंतु इस तरह के निन्द्यमान आचरण का वास्तविक तात्पर्य साधक की त्यागवृत्ति को बढ़ाना है। अर्थात् जब साधक वास्तव में सदाचारी व ज्ञानी होते हुए भी दुराचारी व अज्ञानी मूढ़ की तरह आचरण करेगा तो लोग उसके वास्तविक स्वरुप से अनभिज्ञ रहकर अपमान व निन्दा करेंगे। उस अपमान से साधक का चित्त सांसारिक मोह माया से पूर्णतः निवृत्त हो जाएगा और सदा रुद्र में ही संसक्त रहेगा। यदि साधक का वास्तविक सभ्य व पवित्र आचार लोक में प्रकट हो तो लोग उसकी प्रशंसा करेंगें। प्रशंसा से अहंकार बढ़ता है और अहंकार से चित्त मलिन हो जाता है और परिणामतः ईश्वर में चित्त का योग नहीं होता। प्रशंसा को पाशुपत सूत्र कौडिन्यभाष्य में विष की तरह हानिकारक कहा गया है। इस तरह से पाशुपत साधक को महाव्रत का पालन करना होता है। अथर्वशिरस उपनिषद में भी पाशुपत व्रत का उल्लेख हुआ है। परंतु वहाँ मन्दन, क्राथन, श्रृंगारण आदि साधनाओं का कई उल्लेख नहीं आया है। इन सभी विशेष साधनाओं का आधार पाशुपत सूत्र ही है।