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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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भवोद्‍भव
ईश्‍वर का नामांतर।
भव (इस समस्त दृश्य जगत) का उत्पत्‍ति कारक होने के कारण ईश्‍वर को भवोद्‍भव कहा गया है। यद्‍यपि इस बाह्य जगत की उत्पत्‍ति जड़ प्रकृति तत्व से होती है। फिर भी उस तत्व को सृष्‍टि का कारण माना नहीं जाता है, क्योंकि वह तत्व स्वयं सृष्‍टि करने में समर्थ नहीं। उससे विश्‍व की सृष्‍टि तभी होती है जब ईश्‍वर उसमें से इस सृष्‍टि को करवाता है। अतः ईश्‍वर ही सृष्‍टि का प्रधान कारण है। अतः उसे भवोद्‍भव कहते हैं। उसे कारणकारणं भी कहते हैं (पा.सू.कौ.भा.पृ.55)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

भस्म
पाशुपत विधि का एक आवश्यक अंग।
इन्धन व अग्‍नि के संयोग से जो राख उत्पन्‍न होती है अर्थात् इन्धन को जलाकर जो राख बनती है, वह भस्म कहलाती है। पाशुपत संन्यासी को भस्म की भिक्षा मांगनी होती है, क्योंकि भस्म को पवित्रतम वस्तु माना गया है और यह पवित्रीकरण का एक उत्कृष्‍ट साधन है। अतः पाशुपत योगी को भस्मप्राप्‍ति चाहे थोड़ी मात्रा में ही हो, आवश्यक रूप से करनी होती है। साधक को दिन में कई बार भस्म मलना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.8)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

भस्मशयन
पाशुपत विधि का एक अंग।
पाशुपत विधि के अनुसार शारीरिक पवित्रीकरण के लिए भस्मशयन करना होता है। रात्रि में भस्मशय्या को छोड़कर कहीं और शयन करना विधि-विरुद्‍ध है। पाशुपत योगी के लिए रात्रि को भस्मशय्या पर ही शयन करना अतीव आवश्यक है। वह जब कभी लेटे तो उसे भस्म में ही लेटना होता है। उससे उसका शरीर सदा पवित रहता है। मन की पवित्रता भी उससे बढ़ती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.8)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

भस्मस्‍नान
पाशुपत विधि का एक अंग।
पाशुपत विधि के अनुसार भस्मस्‍नान विधि का एक आवश्यक अंग है। योगी को जल की अपेक्षा भस्म से ही शारीरिक पवित्रीकरण के लिए स्‍नान करना होता है। शरीर पर भस्म मलना ही भस्मस्‍नान होता है जिससे शरीर पर लगे स्‍निग्ध द्रव, तेल अथवा लेप या स्वेदजनित दुर्गन्ध आदि दूर हो। भस्मस्‍नान दिन में तीन बार पूर्वसन्ध्या, अपराह्नसन्ध्या तथा अपरसन्ध्या अर्थात् दिन के तीन विशेष पहरों में करना होता है। यदि किसी आगंतुक कारण से पवित्रता में भंग आए तो तब भी उसे पुन: भस्मस्‍नान करना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.9)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

भैक्ष्यम्
भिक्षा द्‍वारा प्राप्‍त किया हुआ अन्‍न।
भैक्ष्य पाशुपत साधक की वृत्‍ति का प्रथम प्रकार है। पाशुपत योग में साधक के जीवन की हर तरह की वृत्‍ति के बारें में उपदेश दिया गया है। उस योग की प्रथम भूमिका में साधक के भोजन के लिए भिक्षा का निर्धारण किया गया है। अतः पाशुपत साधक को भोजन केवल भिक्षा से ही करना होता है उसके अतिरिक्‍ति किसी भी अन्य व्यवसाय से नहीं। उसे शुद्‍धचरित्र गृहस्थों के घर-घर घूमकर भक्ष्य और भोज्य वस्तुओं की भिक्षा लेकर भोजन करना होता है। भिक्षा भी अधिक नहीं लेनी होती है। अपितु एक बार मांगने पर पात्र में जितनी भिक्षा (पात्रागतम्) मिल जाए, बस उसी से काम चलाना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 118)
(पाशुपत शैव दर्शन)

भक्‍त
देखिए 'अंगस्थल'।
(वीरशैव दर्शन)

भक्‍त-स्थल
देखिए 'अंगस्थल' शब्द के अंतर्गत 'भक्‍त'।
(वीरशैव दर्शन)

भक्‍ति
परशिव की विमर्शशक्‍ति स्वस्वातंत्र्य के बल से दो भागों में विभक्‍त होकर अंगस्थल और लिंग-स्थल को आश्रय करती है। इनमें लिंगस्थलाश्रित शक्‍ति 'कला' और अंगस्थलाश्रित शक्‍ति 'भक्‍ति' कहलाती है। यह भक्‍ति निर्धूम दीपक के प्रकाश की तरह है, अर्थात् यह प्रपंच की वासनाओं से निर्मुक्‍त रहती है। भक्‍ति जीव के जीवत्व को हटाकर शिवस्वरूप प्राप्‍त करने में उसकी सहायक बनती है। मोहित गुणों के अधीन न रहने के कारण इसको निवृत्‍तिरूपा, ऊर्ध्वमुखी, निर्माया और शुद्‍धा कहते हैं। कला की अपेक्षा भक्‍ति श्रेष्‍ठ है, क्योंकि यह जीव को स्वस्वरूप का साक्षात्कार कराने में सहायक होती है (अनु. स. 2/23-31)।
जिस प्रकार जल छः रसों से युक्‍त होकर षड्‍रसस्वरूप बन जाता है, उसी प्रकार भक्‍ति भी अंग (शुद्‍ध जीव) के षट्‍भेद से 'श्रद्‍धा भक्‍ति', 'निष्‍ठाभक्‍ति', 'अवधानभक्‍ति', 'अनुभव भक्‍ति', 'आनंदभक्‍ति', और 'समरस भक्‍ति' नाम से छः प्रकार की बन जाती है (अनु. सू. 4/21-27; श.वि.द. पृष्‍ठ 183)।
क. श्रद्‍धाभक्‍ति
साधक का अष्‍टावरण और पंचाचारों में रहने वाला निरतिशय प्रेम ही 'श्रद्‍धाभक्‍ति' कहलाता है। इस स्तर में भक्‍ति करने वाले साधक और उपास्य शिव में भेद-बोध रहता है। श्रद्‍धाभक्‍ति से शिव को अर्पित किए जाने वाले पदार्थ स्थूल ही होते हैं। यह भक्‍ति ज्यादातर स्थूल शरीर से ही संबंध रखती है। श्रद्‍धाभक्‍ति भक्‍तस्थल के साधक में रहती है (अनु.सू. 4/27; शि.श.को. पृष्‍ठ 51)।
ख. निष्‍ठाभक्‍ति
जब साधक की श्रद्‍धा अत्यंत दृढ़ होती है, तब वह 'निष्‍ठा-भक्‍ति' कहलाती है। यह महेश्‍वर-स्थल के साधक में रहती है। इस अवस्था में भी स्थूल पदार्थों का ही अर्पण होता है। श्रद्‍धा-भक्‍ति से शिव को पदार्थो का अर्पण करते समय प्रेम रहता है और निष्‍ठा से अर्पण करते समय प्रगाढ़-प्रेम रहता है। यही 'श्रद्‍धा-भक्‍ति' और 'निष्‍ठाभक्‍ति' में अंतर है। निष्‍ठाभक्‍ति से मन का चांचल्य धीरे-धीरे कम हो जाता है। इस निष्‍ठा-भक्‍ति को ही 'नैष्‍ठिक-भक्‍ति' भी कहते हैं (अनु. सू. 4/27; शि.श.को. पृष्‍ठ 51)।
ग. अवधानभक्‍ति
अवधान मन की एकाग्रता से संभव है। 'अवधान-भक्‍ति' मन से संबंधित है। निष्‍ठाभक्‍ति की परिपक्‍व अवस्था ही अवधानभक्‍ति है। साधक का मन अपनी उपभोग्य वस्तुओं को शिव को समर्पण करते समय यदि भूत और भविष्य का चिंतन छोड़कर वर्तमानकालिक अर्पण-क्रिया के प्रति जाग्रत् और एकाग्र रहता है, तब मन की उस अवस्था को अवधानावस्था कहते हैं। इस अवस्था में होने वाली अर्पण-क्रिया ही 'अवधान-भक्‍ति' कहलाती है। यह 'प्रसादि-स्थल' के साधक में पाई जाती है। इस भक्‍ति से साधक के अहंकार का निरसन हो जाता है। अतः अवधान-भक्‍ति-युक्‍त साधक प्रत्येक क्रिया में 'मैं करता हूँ' इस भाव को छोड़कर शिव को ही प्रेरक समझता है (अनु. सू. 4/26; शि.श.रको. पृष्‍ठ 51)।
घ. अनुभव-भक्‍ति
साधक अहंकार शून्य होकर निरंतर शिवध्यान में तत्पर होने के कारण 'भ्रमर-कीट-न्याय' से, अर्थात् जैसे कीट निरंतर भ्रमर-चिंतन से भ्रमर बन जाता है, वैसे यह साधक भी अपने में शिव-स्वरूप का अनुभव करने लगता है। इस शिवानुभव को शिव की ही कृपा समझना 'अनुभव-भक्‍ति' कहलाती है। यह भक्‍ति 'प्राणलिंगि-स्थल' के साधक में रहती है (अनु.सू. 4/26; शि.श.को. पृष्‍ठ 51)।
ड. आनंदभक्‍ति
अनुभव-भक्‍ति का विकास ही 'आनंदभक्‍ति' है। शिवतादात्म्य अनुभव से प्राप्‍त अलौकिक सुख ही आनंद कहलाता है। अतएव साधक के अनुभव का पर्यवसान आनंद में होता है। शिवानुभव से प्राप्‍त आनंद को शिव की कृपा समझना ही 'आनंद-भक्‍ति' कहलाती है। यह 'शरण-स्थल' के साधक में रहती है। इस आनंदभक्‍ति से युक्‍त साधक की सभी सांसारिक वासनायें प्राय: नष्‍ट हो जाती है। (अनु. सू. 4/25; शि.श.को. पृष्‍ठ 51)।
च. समरस-भक्‍ति
यह श्रद्धाभक्‍ति की पूर्ण परिणति है। साधक अपने संपूर्ण जीवभाव को त्यागकर जिस भक्‍ति की सहायता से अपने मूल स्वरूप परशिव में समरस हो जाता है, उसे ही 'समरस-भक्‍ति' कहते हैं। यह 'ऐक्य-स्थल' के साधक में रहती है। इस समरस-भक्‍ति को प्राप्‍त कर लेना ही षट्‍स्थल साधना का अंतिम लक्ष्य है। इस समरस-भक्‍ति से संपन्‍न साधक 'ऐक्य-स्थल' का सिद्ध शिवयोगी है। (अनु.सू. 4/25 : शि.श.को. पृष्‍ठ 51)।
(वीरशैव दर्शन)

भसित
देखिए 'अष्‍टावरण' शब्द के अंतर्गत 'विभूति'।
(वीरशैव दर्शन)

भस्म
देखिए 'अष्‍टावरण' शब्द के अंतर्गत 'विभूति'।
(वीरशैव दर्शन)


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