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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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आचार्य
उत्कृष्‍ट गुरु।
गुरु दो प्रकार का होता है-साधक और आचार्य। उत्कृष्‍ट गुरु को आचार्य कहते हैं। पाशुपत दर्शन के नौ गणों के तत्व को सामान्यतया जानने वाला और शिष्य का संस्कार करने वाला गुरु होता है। साधक गुरु अपने गुरु से पाशुपत शास्‍त्र के तत्वों के सामान्य ज्ञान को प्राप्‍त करके पाशुपत योग का अभ्यास पूरी दिलचस्पी से करता है और उसके फलस्वरूप अपवर्ग को प्राप्‍त कर लेता है। परंतु आचार्य वह गुरू होता है जो पाशुपत दर्शन के सभी तत्वों अर्थात् लाभ, मल, उपाय आदि को ठीक तरह से और विशेष ढंग से जानने वाला हो और शिष्य को उनके तत्वों का रहस्य समझा सके। इस तरह से वह परिपूर्ण शास्‍त्र ज्ञान को अच्छी तरह जानकर पाशुपत साधना के द्‍वारा अपवर्ग को प्राप्‍त करता है। आचार्य को पर गुरु भी कहा गया है। (ग. का. टी. पृ. 3)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

आचार्याभास
वस्तुत: गुरु न होने पर गुरु का आभास मात्र।
पाशुपत मत के अनुसार जो गुरु आगमों में से तत्वज्ञान को जानकार ही तृप्‍त होकर, आगे उस तत्वज्ञान का लाभ किसी को करा नहीं सकता है, उसे आचार्य नहीं, आचार्याभास कहते हैं। उसे अपर गुरु भी कहा गया है। आचार्याभास को तो शास्‍त्र का केवल पद-पदार्थ ज्ञानमात्र ही होता है, उस पर श्रद्‍धा नहीं होती है। नहीं तो यदि श्रद्‍धा हो भी तो फिर भी उसे योग साधना के द्‍वारा लाभ आदि तत्वों का साक्षात् अनुभव नहीं होता है। संक्षेप में केवल पढ़ने पढ़ाने वाला अध्यापक आचार्याभास कहलाता है। (ग. का. टी. पृ. 4)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

आयतनवासी
घर में अथवा मंदिर में रहने वाला।
पाशुपत धर्म के अनुसार साधना के प्रारंभिक स्तर में समस्त धार्मिक विधियाँ आयतन अर्थात् घर में या देव मंदिर में करनी होती है, क्योंकि दोनों धार्मिक कृत्यों के लिए उपयुक्‍त स्थान होते हैं। आयतन का अर्थ देव मंदिर अथवा घर होता है। पाशुपत योगी को आरंभ में भस्म स्‍नान, अनुष्‍ठान आदि सभी धार्मिक विधियों को आयतन में करना होता है। क्योंकि पाशुपत सूत्र कौडिन्य भाष्य में कहा गया है कि यदि शूलपाणि महेश्‍वर का कोई मंदिर (पुण्य स्थान) हो तो वह धार्मिकों का उपयुक्‍त आवास होता है तथा वहाँ धार्मिक कृत्य करने से सद्‍य: सिद्‍धि होती है। ग्राम से बाहर वृक्ष मूल आदि में रहने वाला साधक भी आयतनवासी कहलाता है। जिस पवित्र और शुद्‍ध स्थल में शिवोपासना सफलता से की जा सके वही आयतन माना गया है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 13)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

आहारलाघव
पाशुपत योग में यमों का एक प्रकार।
पाशुपत धर्म में पाशुपत संन्यासी के लिए भोजन प्राप्‍त करने की विशेष विधि प्रस्तुत की गई है। पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार दूषित उपायों से अर्जित भोजन की न्यून मात्रा भी लघु नहीं होती है और उचित उपायों से गृहीत भोजन की विपुल मात्रा भी लघु ही होती है। अर्थात् भोजन के परिमाण, मात्रा लाघव के नियामक नहीं है, अपितु भोजन अर्जित करने के उपाय नियामक है। उचित उपायों पर ही लाघव निर्भर रहता है। उचित घर से उचित रीति से यदि बहुत मात्रा में भी भोजन प्राप्‍त किया हो उसमें आहार लाघव ही होता है; परंतु अनुचित रीति से अर्जित अल्पमात्रा का भोजन भी आहार लाघव नहीं होता है। अतएव भोजन प्राप्‍त करने के ढंग में आहार लाघव रहता है। (पा. सू. कौ. वा. पृ. 31)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

आचार
शास्‍त्रविहित कर्मों के आचरण से शिवभक्‍ति की उत्पत्‍ति होती है। इन कर्मों का अनुष्‍ठान ही 'आचार' कहलाता है। यह आचार जिज्ञासु तथा ज्ञानी दोनों के लिये अलंकार बन जाता है। अतः वीरशैव दर्शन में ज्ञान के साथ शास्‍त्रविहित कर्मों के अनुष्‍ठान रूप 'आचार' को अधिक महत्व दिया गया है। (चं.ज्ञा.आ. क्रियापाद. 9/16-18)। (वीरशैव दर्शन में 'पंचाचार' और 'सप्‍ताचार' प्रसिद्‍ध हैं। इनकी परिभाषा यथास्थान देखिए।
(वीरशैव दर्शन)

आचारलिंग
देखिए 'लिंग-स्थल'।
(वीरशैव दर्शन)

आणवमल
देखिए 'मल'।
(वीरशैव दर्शन)

आदिपिण्ड
देखिए 'पिण्ड'।
(वीरशैव दर्शन)

आदिशक्‍ति
देखिए 'शक्‍ति'।
(वीरशैव दर्शन)

आनंदभक्‍ति
देखिए 'भक्‍ति'।
(वीरशैव दर्शन)


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