पाशुपत मत में ईश्वर को शंकर भी कहा गया है क्योंकि वह सभी कल्याणों को करने वाला होता है तथा निर्वाण या मुक्ति को देने वाला होता है अतः शंकर कहलाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.71)।
(शमसुखनिर्वाणकरत्वम् शंकरत्वम् ग.का.टी.पृ.11) शं पद का अर्थ कल्याण होता है। भगवान शिव ही अनुग्रहशक्ति के द्वारा पशुओं का कल्याण करते हैं।
(पाशुपत शैव दर्शन)
शर्व
ईश्वर का नामांतर।
विद्यादि कार्य का एकमात्र कारणभूत होने के कारण ईश्वर उसका शरणस्थल है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.90)। व्याकरण में शर्व धातु को हिंसार्थक माना गया है, परंतु कौडिन्य ने शरण देने के अर्थ में इसकी व्याख्या की है। भगवान शिव अनुग्रह के द्वारा साधकों को विद्या आदि प्रदान करते हुए उन्हें शरण देते हैं, अतः वे शर्व कहलाते हैं।
पाशुपत मत के अनुसार ईश्वर सदा परिपूर्ण तथा आत्मतृप्त रहता है, तथा कल्याणकारी होता है, अतः शिव कहलाता है (पा.सू.कौ.भा.पृ.146; ग.का. टी. पृ. 12 ) । शिव की सृष्टि, संहार आदि ईश्वरीय कृत्यों को करने के लिए किसी सहकारी कारण की आवश्यकता नहीं रहती है। वह चाहे तो कर्म के नियम की भी अवहेलना करे। प्रकृति आदि उपादान कारण उसकी इच्छा के अनुसार ही परिणामशील बनते हैं। यह सारा ऐश्वर्य उसकी परिपूर्ण आत्मतृप्तता का आधार बनता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
शून्यागारवासी
शून्य गृह का निवासी।
पाशुपत योग में केवल क्रियाओं संबंधी विधि की ही व्याख्या नहीं की गई है अपितु युक्त साधक की जीवन वृत्ति आदि के बारे में भी कहा गया है। उसके अनुसार योगी के निवास स्थान के बारे में कहा गया है कि साधक को शून्य अर्थात् एकांत घर में निवास करना होता है, जहाँ वह सभी निर्दिष्ट कृत्यों का अभ्यास निर्बाध रूप से कर सके। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 116)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
श्रृंगारण
द्वार का एक प्रकार।
पाशुपत विधि की इस क्रिया में साधक को झूठमूठ ही किसी स्त्री समूह से कुछ दूरी पर खड़े होकर श्रृंगारिक भावों का प्रदर्शन करना होता है। (रूपयौवन-सम्पन्नां स्त्रियमवलोकयन् कामुकभिवात्मानं यैर्लिङ्ग: प्रदर्शयति तच्छृङ्गारणं) (ग.का.टी.पृ.19)। साधक की ऐसी कुचेष्टा देखकर लोग उसकी अमानना करेंगे परंतु साधक तो झूठमूठ श्रृंगारण का अभिनय मात्र कर रहा होगा। अतः लोगों की ऐसी अवमानना से उसके पापों का नाश होगा और पुण्य बढ़ेंगे। (पा.सू.कौ.भा.पृ.86)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
शौच
यमों का एक प्राकर।
पाशुपत योग में शौच तीन प्रकार का कहा गया है- गात्र शौच, भाव शौच तथा आत्म शौच। गात्र शौच में शरीर को भस्मस्नान से शुद्ध करना होता है। पाशुपत शास्त्र के अनुसार संसर्गजन्य अथवा माता-पिता से ग्रहण किए हुए दोष, जिनका कारण खान-पान होता है, भस्म से जल जाते हैं। कीड़ों या केशों से अपवित्र बना हुआ भोजन भस्मस्पर्श से शुद्ध हो जाता है। महान पाप भस्मस्नान व भस्मशयन से कट जाते हैं। भस्मस्नान करने वाला अपनी इक्कीस पीढ़ियों को परमगति प्राप्त करवाता है। अतः भस्मशयन व भस्मस्नान के द्वारा गात्रशौच को पाशुपत विधि में बहुत महत्ता दी गई है।
भावशौच, दूसरे प्रकार का शौच मानसिक भावों का शौच होता है। गात्रशौच केवल शरीर की अशुद्धि को दूर करता है, बुद्धि की अशुद्धि तो बनी रहती है अतः भावशुद्धि के लिए सत्य, तप, इन्द्रिय-संयम सभी जीवों के प्रति दयाभाव आदि शौच हैं। पहले भावशौच होना आवश्यक है। तब कहीं गात्रशौच हो सकता है। जिस योगी की भावशुद्धि न हुई हो अर्थात् अशुद्ध मन व बुद्धि हो, उसको गात्रशौच होता ही नहीं है चाहे सहस्रों भस्मस्नान करे।
आत्मशौच, तीसरे प्रकार का शौच, अकलुषित मन अर्थात् विचारों की पवित्रता होती है। मूलत: योगी का मन पवित्र व शुद्ध होना चाहिए तब भावशौच और गात्रशौच हो सकते हैं। आत्मा की शुचिता ही वास्तविक शुचिता होती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 29,30)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
श्मशानवासी
श्मशान में रहने वाला।
पाशुपत योग के अनुसार योग के अंतिम स्तर पर पाशुपत साधक के निवास के लिए श्मशान निर्धारित किया गया है। युक्त साधक को श्मशान में किसी वृक्ष के मूल में रहना होता है ताकि उसकी योग क्रियाओं में बाह्य संसर्ग के कारण कोई बाधा न पड़े। इस स्तर तक पहुँचे हुए योगी ने जीवन के द्वन्द्वों (सुख, दुःख आदि) को जीत लिया होता है तथा उसका ध्यान पूर्णरूपेण रूद्र में ही लगा होता है। ऐसी अवस्था में और भी निःसंग रहने के लिए श्मशान में निवास का उपदेश दिया गया है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.132)।
भासर्वज्ञ ने श्मशान को देश का एक प्रकार माना है। पाशुपत साधक को साधना की चतुर्थावस्था में श्मशान में निवास करना होता है। (ग.का.टी.पु.17)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
श्रवणशक्ति
साधक की एक शक्ति।
पाशुपत साधक को केवल दर्शन शक्ति ही नहीं; श्रवणशक्ति भी प्राप्त होती है अर्थात् श्रवणशक्ति के जागृत होने पर सिद्ध साधक रूपी श्रोता समस्त श्रव्य का श्रवण कर लेता है; अर्थात् उसके लिए समस्त जगत् में कोई भी शब्द अश्नव्य नहीं रहता है, चाहे शब्द उसकी स्थूल कर्णेन्द्रिय से कितनी भी दूरी पर उत्पन्न हुआ हो। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 42)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
शक्ति
वीरशैव दर्शन में 'शक्ति' परशिव का एक अविभाज्य स्वरूप है। जैसे चंद्रमा में वस्तुओं की प्रकाशिका चांदनी अविनाभाव संबंध से रहती है, उसी प्रकार समस्त विश्व को प्रकाशित करनेवाली यह शक्ति परशिव के साथ अविनाभाव-संबंध से रहती है (सि.शि. 20/4 पृष्ठ 202)। सृष्टि की रचना में यह शक्ति परशिव की सहायक बनती है, अतः इसे सर्वलोकों की प्रकृति तथा परशिव की सहधर्मचारिणी कहा गया है (सि.शि. 1/8 पृष्ठ)।
यह शक्ति वस्तुत: एक होने पर भी सृष्टि के समय स्व-स्वातंत्र्य बल से चिच्छक्ति, पराशक्ति, आदिशक्ति, इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति तथा क्रियाशक्ति के नाम से छः प्रकार की हो जाती है। (अनु.सू. 3/26, 2/7)।
क. चिच्छक्ति
सूक्ष्म कार्य-कारण रूप प्रपंच की उपादानकारणीभूत शक्ति ही 'चिच्छक्ति' कहलाती है (शि.मं. पृष्ठ 27)। इसी को विमर्शशक्ति और परामर्श-शक्ति भी कहा जाता है। यह शक्ति बोधरूप है, अर्थात् इस चिच्छक्ति या विमर्श शक्ति से संयुक्त होने पर ही परशिव को 'अस्मि' (मैं हूँ), 'प्रकाशे' (मैं प्रकाशमान हूँ), 'नंदामि' (मैं आनंदरूप हूँ) इत्याकारक, सत-चित्-आनंदस्वरूप का बोध होता है। अपने प्रकाशमय स्वरूप का बोध न होने पर स्फटिक आदि की तरह परशिव को भी जड़ मानना पड़ेगा, जो कि अभीष्ट नहीं है (सि.शि. 2/12,13 पृष्ठ 14)।
इस विमर्श-शक्ति के कारण ही परशिव सर्वकर्ता, सर्वव्यापक और सर्व कर्मों का साक्षी बन जाता है (सि.शि. 20/4, पृष्ठ 199)। यह विमर्श-शक्ति ही 'शिवतत्व' से 'पृथ्वीतत्व' स्थिति एवं लय का भी कारण है (शि. मं. पृष्ठ 33-34; सि.श. 20/1 :5 पृष्ठ 198-199)।
ख. पराशक्ति
योगियों के ध्यान-योग्य अपने को बनाने के लिए चिच्छक्ति-युक्त परशिव जब चिंतन करने लगता है, तब परशिव के सहस्रांश से 'पराशक्ति' का प्रादुर्भाव होता है (वा.शु. तंत्र 1/24)। यह आनंद-स्वरूप है, इसे ही परशिव की अनुग्रह-शक्ति कहा जाता है। इसी शक्ति से युक्त होकर वह योगियों के ऊपर अनुग्रह करता है (शि. मं. पृष्ठ 27)।
ग. आदि-शक्ति
पराशक्ति के सहस्रांश से आदि-शक्ति का उदय होता है (वा.शु.तं. 1/25)। प्रपंच की कारणीभूत इच्छा, ज्ञान और क्रियाशक्ति के पहले इसकी स्थिति है, अर्थात् आदि-शक्ति से ही इनकी उत्पत्ति होती है। अतएव इसे आदिशक्ति कहा जाता है (शि.मं. पृष्ठ 27)। इस आदिशक्ति से संयुक्त होकर ही परशिव प्राणियों का निग्रह करते हैं, अर्थात् प्राणियों के निगृहीत करने की सामर्थ्य इस आदिशक्ति से यही प्राप्त है।
घ. इच्छा-शक्ति
आदि शक्ति के सहस्रांश से इच्छाशक्ति का उदय होता है (वा.शु.तं. 1/25)। ज्ञानशक्ति और क्रिया-शक्ति इन दोनों शक्तियों की साम्यावस्था को ही इच्छा-शक्ति कहते हैं। यह इच्छा-शक्ति ही अपने में विद्यमान ज्ञान और क्रियाशक्तियों के माध्यम से इस विश्व को उत्पन्न करती है। यही विश्व की बीज रूप है। संहार के समय यह विश्व पुन: इच्छाशक्ति में ही विलीन होकर रहता है, अतः इस इच्छाशक्ति को संहार-शक्ति भी कहा जाता है। इसी से युक्त होकर ही परशिव प्रपंच का संहार करता है (शि.मं. पृष्ठ 27,34)।
ड. ज्ञानशक्ति
इच्छा-शक्ति के सहस्रांश से ज्ञानशक्ति की उत्पत्ति होती है। (वा. शु. तं. 1/26)। इस ज्ञानशक्ति के कारण ही शिव सर्वज्ञ कहलाता है और उसको अपने में विद्यमान प्रपंच का 'इदं' (यह) इत्याकारक बोध होता है। अतएव इस ज्ञान-शक्ति को बहिर्मुख शक्ति भी कहते हैं। इस शक्ति से युक्त होकर शिव प्रपंच की उत्पत्ति में निमित्त कारण बनता है और उत्पत्ति के अनंतर उसका पालन भी करता है (शि.मं. पृ. 27, 34)।
च. क्रियाशक्ति
ज्ञान-शक्ति के सहस्रांश से क्रियाशक्ति का प्रादुर्भाव होता है (वा.शु. तंत्र 1/26)। यह क्रियाशक्ति इस प्रपंच का उपादान-कारण होती है। इस शक्ति से युक्त होने से शिव सर्वकर्ता बन जाता है। यही शिव की कर्तृत्वशक्ति है। इस शक्ति को स्थूल प्रयत्नरूपा भी कहते हैं (शि.मं. पृष्ठ 27, 34)।
(वीरशैव दर्शन)
शक्तिविशिष्टाद्वैत
वीरशैवदर्शन को 'शक्तिविशिष्टाद्वैत' नाम से संबोधित किया जाता है। 'शक्तिश्च शक्तिश्च शक्तीताभ्यां विशिष्टौ जीवेशौ तयोरद्वैतं = शक्तिविशिष्टाद्वैतम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार शक्ति-विशिष्ट जीव और शक्तिविशिष्ट शिव इन दोनों का अद्वैत, अर्थात् अभेद ही शक्तिविशिष्टाद्वैत है। यहाँ पर 'सूक्ष्मचिदचिद्रूपाशक्ति' तथा स्थूल चिदचिद्रूपाशक्ति के नाम से शक्ति के दो भेद हैं। सूक्ष्मचिच्छक्ति का अर्थ है सर्वज्ञत्व और सूक्ष्म अचिच्छक्ति का अर्थ सर्वकर्तृत्व है। इस तरह सर्वज्ञत्व और सर्वकर्तृत्वरूप शक्ति को 'सूक्ष्मचिदचिद्रूपाशक्ति' कहते हैं। यह शक्ति परशिवब्रह्म की है (शि.द. पृष्ठ 6-8)। इसी प्रकार स्थूलचिच्छक्ति का अर्थ है किंचिज्ज्ञत्व और स्थूलअचिच्छक्ति का अर्थ किंचित्-कर्तृत्व है। इस तरह किंचिज्ज्ञत्व और किंचित्-कर्तृव्य रूप शक्ति को 'स्थूलचिदचिद्रूपा शक्ति' कहते हैं। यह शक्ति जीव की है (शि.द. पृष्ठ 22-23)। इस प्रकार परस्पर शक्ति-विशिष्ट जीव तथा ईश्वर के सामरस्य, अर्थात् अभेद के प्रतिपादक इस दर्शन को 'शक्ति-विशिष्टाद्वैतदर्शन' कहते हैं।
यहाँ पर सर्वज्ञत्व आदि शक्ति-विशिष्ट को शिव और किंचिज्ज्ञत्व आदि शक्ति-विशिष्ट को जीव कहने का तात्पर्य यह है कि परशिव की लीलावस्था में दोनों का भेद है और शक्ति-विशिष्टों के अद्वैत का प्रतिपादन मुक्तिकाल में दोनों के अभेद को बतलाने के लिये है। इस तरह इस दर्शन में द्वैत और अद्वैत प्रतिपादक दोनों श्रुतियों का समन्वय हो जाता है (श.वि.द. पृष्ठ 17-19; क्रि.सा. 1-93-95)।