पाशुपत योग के अनुसार युक्त योगी विषयों से असंपृक्त होकर रुद्र में चित्त को पूरी तरह से संलग्न करके निष्कल रूप धारण करता है अर्थात् इंद्रियाँ और सांसारिक विषय उस साधक की चित्तवृत्ति से स्वयमेव छूट जाते हैं और वह रुद्र के साथ ऐकात्म्य प्राप्ति करके एक बन जाता हे। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 139)। शरीर तथा इंद्रियों से असंपृक्त हो जाने के अनंतर महेश्वर में तादात्म्य ही 'एकत्व' कहलाता है। (शरीरादि वियुक्तत्वम् एकत्वम्-ग. का. टी. पृ. 16)। यहाँ ऐकात्मका या ऐक्य से सायुज्य ही अभिप्रेत है, अद्वैत नहीं।
(पाशुपत शैव दर्शन)
एकवासा
एक वस्त्र को पहनने वाला।
पाशुपत संन्यासी को संन्यास की प्रथम अवस्था में केवल एक वस्त्र पहनना होता है। वह वस्त्र बैल की खाल या कोशों से निर्मित अथवा भूर्ज निर्मित वल्कल अथवा चर्म से निर्मित होता है। पाशुपत सूत्र के कौडिन्य भाष्य के अनुसार एक वस्त्र कौपीन रूप में केवल लज्जा के प्रतीकार के लिए पहनना होता है और इस वस्त्र को भिक्षा में ही प्राप्त करना होता है। इस सब का यही तात्पर्य निकलता है कि साधक किसी भी तरह से वस्तु संग्रह न करे और सांसारिक बंधनों में न फँसे। जितना उससे हो सकता है, वह उतनी मात्रा में अपरिग्रही बने। किसी भी वस्तु के स्वामी होने का अभिमान उसमें न रहे। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 34)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
एष
ईश्वर का नामांतर।
ईश्वर के सदा व सर्वदा अविचलित पर स्वभाव में रहने के कारण 'एष' नाम से उसे अभिहित किया गया है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 127; ग. का. टी. पृ. 11)। एष शब्द की ऐसी व्याख्या यद्यपि निरुक्त या व्याकरण के आधार पर ठहराई नहीं गई है, फिर भी कौडिन्य आदि ने एष शब्द का ऐसा अर्थ माना है।