भासर्वज्ञ ने जन को देश का एक प्रकार माना है। पाशुपत साधक को साधना की द्वितीयावस्था में जन अर्थात् लोक में निवास करना होता है। जहाँ वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले जन (लोग) रहते हों वही जन साधक का देश होता है। तात्पर्य यह है कि साधना के द्वितीय सोपान पर साधक प्राय: ग्राम में रहता है जहाँ लोग उसकी भिन्न भिन्न प्रकार की साधनाओं को देखते हुए उसकी निंदा अवहेलना आदि करते रहते हैं। उससे साधक में त्यागवृत्ति का वर्धन होता है और वह योग में परिपक्व बनता जाता है। (ग. का. टी. पृ. 16)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
जप
पाशुपत धर्म की विधि का एक अंग।
सद्योजातादि मंत्रों के अक्षरों से युक्त पंक्तियों पर मन का समस्त ध्यान लगाना जप कहलाता है। (पा.सू.कौ. भा.पृ. 14)। यह जप दो तरह का कहा गया है-प्रत्याहार फल जप तथा समाधि फल जप। प्रत्याहार फल जप में साधक का ध्यान विषयों से खिंचकर परतत्व की साधना में लग जाता है। समाधि फल जप प्रत्याहार फल जप की निष्पत्ति के बाद ही संपन्न होता है। उसमें साधक परतत्व पर समाधिस्थ हो जाता है, अथात् जिस जप का परम फल समाधि है। (ग.का.टी.पृ. 20)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
जपपूर्वक ध्यान
पाशुपत योगी के ध्यान की एक अवस्था।
इस अवस्था में साधक मंत्र जप से रुद्र तत्व में ही अपनी समस्त चिंतन शक्ति को लगाता है। अर्थात् भगवान-रुद्र का ध्यान करते हुए तत्पुरुष आदि से संबधित मंत्रों का तन्मयतापूर्वक सतत निर्बाध रूप से जप करता रहता है। ऐसे सतत जप की अवस्था जपपूर्वक ध्यान रूप अवस्था कहलाती है। (ग. का. टी. पृ. 20)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
जयावस्था
अवस्था का एक प्रकार।
पाशुपत योगी की साधना की तृतीय अवस्था जयावस्था कहलाती है। जब साधक अपनी समस्त इंद्रियों पर विजय पा लेता है तथा उसका ध्यान सदैव विषयों से पूर्णत: खिंचकर केवल रुद्र में ही लगा रहता है। उसकी वह अवस्था जयावस्था कहलाती है। यह अवस्था उसे रुद्र सायुज्य की प्राप्ति के प्रति अग्रसर बना देती है। (ग. का. टी. पृ. 8)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
जितेंद्रित
इंद्रिय विजयी।
पाशुपत दर्शन के अनुसार सिद्ध साधक इंद्रियों पर पूर्ण विजय पा लेता है। उसकी इंद्रियाँ किसी भी विषय के प्रति आसक्त नहीं होती हैं। बुद्धि आदि करणगण जब अपनी तीव्र इच्छा के बल से दोषों से निवृत्त करके धर्म वृत्ति में लगाए जाते हैं तो वे दर्वीकर सर्प की तरह विषविहीन हो जाते हैं और साधक निरंतर महेश्वर ध्यान में स्थित रहता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 117)।
गणकारिका व्याख्या में जितेंद्रिय को इंद्रियजयी कहा गया है। तथा इंद्रियजयत्व पाशुपत साधक के लक्षण के रूप में आया है। (लक्षण भेदादिन्द्रियोत्सर्ग ग्रह्यो: प्रभुत्वभिन्द्रिय जय:-ग.का.टी.पृ. 22)। योग की उच्च भूमिका पर पहुँचने के उपरांत साधक इंद्रियों के द्वारा ग्रहण व उत्सर्ग अपनी स्वतंत्र इच्छानुसार कर सकता है, अर्थात् वह इंद्रियों का स्वामी बन जाता है और अपनी इच्छानुसार सभी विषयों को इंद्रियों के द्वारा जान सकता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
ज्ञान
लाभ का एक प्रकार।
पाशुपत साधक को साधना करने से जो विशेष लाभ या उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं, ज्ञान उनमें से प्रथम है। साधक जब दुःखांत प्राप्ति कर लेता है तो उसे सिद्धि की प्राप्ति होती है। वह सिद्धि दो प्रकार की होती है-ज्ञानशक्तिमयी और क्रियाशक्तिमयी। ज्ञानशक्तिमयी सिद्धि ही प्रथम प्रकार का लाभ है जिसके प्रभाव से साधक में दूरदर्शन, दूरश्रवण आदि शक्तियों का आविर्भाव हो जाता है। (ग.का.टी.पृ. 10)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
ज्येष्ठ
ईश्वर का नामांतर।
ईश्वर समस्त कार्य पदार्थों से परे है। अतः ज्येष्ठ कहलाता है। सिद्ध साधक ऐश्वर्यप्राप्ति व मुक्तिप्राप्ति कर लेते हैं। पर फिर भी ईश्वर ही सबका अधिष्ठाता बना रहता है, सिद्धों का भी तथा असिद्धों का भी। सिद्धजन शिवतुल्यता की अवस्था को प्राप्त करके सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् बन जाते हैं। परंतु फिर भी इस ब्रह्मांड के सृष्टि, स्थिति, संहार आदि का संचालन भगवान् पशुपति ही करता रहता है। ईश्वर ही साधक की सिद्धि का कारण बनता है, अतः वह सबसे परे है। फिर उसका ऐश्वर्य उसका नैसर्गिक स्वभाव है, अतः वह सबसे बड़ा ऐश्वर्यवान् होता हुआ ज्येष्ठ कहलाता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 57)।