पाशुपत शास्त्र में शिव के मुख्य पाँच स्वरूप माने गए हैं। वे हैं- सद्योजात, कामदेव, अघोर, तत्पुरुष तथा ईशान। (देखिए पा.सू. तथा ग.का.)। इस 'मंत्र' पद की व्याख्या पाशुपत शास्त्रों में भी नहीं मिलती है और सिद्धांत शैव शास्त्रों में भी नहीं। काश्मीर शैव शास्त्र के अनुसार भेदभूमिका पर उतरे हुए शिव के पाँच दिव्य रूपों को पञ्चमंत्र कहा जाता है। इन पाँच रूपों के समष्टि स्वरूप शिव को स्वच्छनाद कहते हैं, जो पंचमुख हैं और जिसके उन मुखों के नाम ईशान, तत्पुरुष आदि हैं। मंत्र शब्द का तात्पर्य है भेद भूमिका पर उतरा हुआ शुद्ध प्रमाता।
(पाशुपत शैव दर्शन)
पंचमावस्था
पाशुपत साधक की एक उत्कृष्टतर अवस्था।
पाशुपत साधना की इस अवस्था में साधक साधना पूर्ण कर चुका होता है तथा उसका स्थूल शरीर शेष नहीं रहता है, अतः जीविका के लिए उसे किसी भी वृत्ति की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। यह साधना की अंतिम अवस्था पंचमावस्था कहलाती है। (ग.का.टी.पृ.5)। ऐसा भासर्वज्ञ का विचार है। यह तो मुक्त योगी की स्थिति होती है सांसारिक साधक की नहीं।
पाशुपत सूत्र के कौडिन्य भाष्य में भी योग की पाँचवी भूमिका का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। (पा.सू.कौ.भा. अध्याय 5)। संसार में ही रहते हुए योगी की उसी दशा को पञ्चमावस्था माना जाए तो अधिक उपयुक्त होगा।
(पाशुपत शैव दर्शन)
पंचार्थ
पाँच कोटियों वाला, पाँच वर्गों वाला।
पाशुपत सूत्र के व्याख्याता कौडिन्य (राशीकार) ने पाशुपत दर्शन को पाँच वर्गों या कोटियों में विभाजित किया है। ये पाँच वर्ग हैं- कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखान्त। इन्हीं पाँच कोटियों को पंचार्थ कहते हैं तथा पाशुपतसूत्र कौडिन्य भाष्य को पंचार्थ भाष्य के नाम से भी अभिहित किया जाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 1,2)। इस भाष्य में पाशुपत दर्शन के इन पाँच प्रतिपाद्य विषयों का विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
पति
स्वामी। शिव।
पाशुपत दर्शन में इस जगत के सृष्टिकर्ता व स्थितिकर्ता को पति कहा गया है। जो पशुओं अर्थात् समस्त जीवों (अर्थात् उनके सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों) की सृष्टि करता है तथा उनकी रक्षा करता है, वह पति कहलाता है। पति विभु है, वह अपरिमित ज्ञानशक्ति व क्रियाशक्ति से संपन्न है। अपनी इस अपरिमित तथा व्यापक शक्ति से पति इस जगत का सृष्टि व स्थिति कारण बनता है। पति की ही शक्ति से समस्त पशुओं (जीवों) का इष्ट, अनिष्ट, शरीर, स्थान आदि निर्धारित होते हैं। अर्थात् पति ही समस्त विश्व का एकमात्र संचालक है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.5)। पशु अथवा जीव के समस्त कार्यों पर स्वामित्व ही पति (ईश्वर) का पतित्व होता है। (ग.का.टी.पृ 10)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
पशु
जीव।
पाशुपत दर्शन के अनुसार समस्त चेतन जीव, सिद्धों व जीवन्मुक्तों को छोड़कर, पशु कहलाते हैं। क्योंकि सामान्यतया ये जीव ऐश्वर्यविहीन होते हैं और ऐश्वर्यविहीनता ही बंधन होता है। अतः ऐश्वर्य और स्वातंत्र्य का अभाव जीव को भिन्न-भिन्न पाशों के बंधन में बांध देता है और पाशो के बंधनों में बंध जाने के कारण ही जीव पशु कहलाता है। सांख्य दर्शन के तेईस तत्व ही पाशुपत दर्शन में पाश कहलाते हैं। ये पाश कलाएं भी कहलाती हैं। इन कलाओं के बंधन में बंध जाने के कारण जीव परवश हो जाता है, वह स्वतंत्र नहीं रहता है। अस्वातंत्र्य ही जीव के बंधन का मुख्य रूप बनकर उसे पशु बना देता है। (पाशुनात् पशव:-पा. सू. कौ. भा. पृ. 5)।
कौडिन्य भाष्य में पशु को तीन प्रकार का बताया गया है- देव, मनुष्य और तिर्यक्। देव ब्राह्म आदि आठ प्रकार के कहे गए हैं। मनुष्य ब्राह्मण आदि विविध तरह के तथा तिर्यक् मृगादि पाँच प्रकार के कहे गए हैं। इन सभी तरह के, पशुओं में कुछ साञ्जन (शरीर व इन्द्रिय सहित) तथा कुछ निरञ्जन (शरीर व इन्द्रियरहित) होते हैं। (पा.सू.कौ.भा.पृ 147)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
पशुत्व
मल का एक प्रकार।
पाशुपत दर्शन के अनुसार पशुत्व, जो पुरुष का गुण है तथा धर्म-अधर्म दोनों से व्यतिरिक्त है, पंचम प्रकार का मल है। पुरुष की ज्ञानशक्ति व क्रियाशक्ति में जो संकोचरूपी बंधन पड़ता है, वही पशुत्व होता है, जिससे पुरुष बंधन में पड़ा रहता है। असर्वज्ञत्व, अपतित्व आदि पशुत्व के भेद भी गिने गए हैं। इस तरह का ऐश्वर्यहीनता रूप बंधन ही पशुत्व है और वही संसार तथा जन्ममरण का अनादि कारण है। (ग.का.टी.पु.23)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
पशुत्वहानि
विशुद्धि का भेद।
पाशुपत साधना का अभ्यास करते-करते युक्त साधक के पशुत्व का पूर्णरूपेण उच्छेद हो जाता है। उसका पशुत्व रूपी बंधन कट जाता है, तथा वह पशुत्वहानि रूप विशुद्धि को प्राप्त कर लेता है, जिसकी प्राप्ति से साधक साधना के पथ पर आगे बढ़ते हुए उत्कृष्ट स्तर की विशुद्धि को प्राप्त करने के प्रति अग्रसर हो जाता है। (ग.का.टी.पृ.7)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
पशुपति
भगवान महेश्वर का नामांतर।
पशुओं अर्थात् समस्त जीवात्माओं के ईश्वर, स्वामी व पालक को पाशुपत दर्शन में पशुपति (पशुओं का पति) नाम से अभिहित किया गया है। (पा.सू.कौ.भा. पृ. 5)।
पति ही पशुओं के लिए जगत की सृष्टि करता है। उस सृष्टि मे वे कर्मफल भोग को भी प्राप्त करते हैं और पाशुपत योग का अभ्यास भी करते हैं। इस तरह से उनका हित करता हुआ परमेश्वर उनका पालक या पति है।
केवल उसी पशु की योग में प्रवृत्ति हो जाती है जिस पर शिव अनुग्रह करते हैं। इस तरह से अनुग्रह द्वारा जीवों को योग में प्रवृत्त करने वाला और उसके फलस्वरूप उन्हें संसृति के कष्टों से बचाने वाला शिव उन पशुओं का पति कहलाता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
पाशुपत दर्शन
सम्प्रति उपलब्ध पाशुपत साहित्य के ग्रंथों में पाशुपत मत के दार्शनिक सिद्धांतों का विशेष प्रतिपादन नहीं हुआ है। इसमें अधिकतर पाशुपत धर्म तथा पाशुपत योग के बारे में व्याख्या हुई है। पाशुपत मत वास्तव में दर्शन की एक व्यवस्थित पद्धति नहीं थी अपितु योगियों का सम्प्रदाय था। योगियों के समूहों के समूह शिव को आराध्य देव मानकर साधना विशेष का अभ्यास करते-करते समस्त भारत का भ्रमण करे रहते थे। कहीं-कहीं पर उस समय के राजा लोग भी उन संन्यासियों से प्रभावित होकर उन्हें आश्रय दे देते थे तथा शिव की पूजा व भक्ति को अपनाते थे।
वैदिक रूद्र का आदिम निवासियों के शिव के साथ एकीकरण होने पर कालांतर में शिव ने जब प्रमुख स्थान ग्रहण कर लिया तब शैवमत भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न धाराओं में समृद्ध होने लगा। दक्षिण में तमिलनाडू में शैव सिद्धांत, कर्नाटक में वीर शैव, काश्मीर में प्रत्यभिज्ञा शैव दर्शन तथा राजपूताना, गुजरात आदि में पाशुपत मत के रूप में शैव दर्शन पनपने लगा। वैसे पाशुपत संन्यासी समस्त भारत में भ्रमण करते रहे हैं, परंतु पाशुपत मत के संस्थापक लकुलीश के गुजरात काठियावाड़ में अवतार लेने के कारण वही स्थान पाशुपत मत का केंद्र माना जाने लगा। इस तरह से पाशुपत मत प्रधानरूप से संन्यासियों में पनपी योगविधि थी दार्शनिक सिद्धांत नहीं। परंतु बाद में पाशुपत मत के जो ग्रंथ बने उनमें पाशुपत सिद्धांतों की थोड़ी बहुत व्याख्या की गई है।
पाशुपतसूत्र तथा उसके कौडिन्यकृत पञ्चार्थीभाष्य में पाँच पदार्थों की व्याख्या की गई। पाशुपत दर्शन के विषयों को पाँच वर्गों में बांटा गया है। वे हैं- कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखांत। गणकारिकाकार ने पाशुपत सिद्धांत को नौ गणों में विभाजित किया है। इनमें से आठ गण पंचक हैं तथा एक गण त्रिक। परंतु पाशुपत मत व दर्शन का मुख्य विषय योगविधि है तथा समस्त योग, धर्म व दर्शन का फल दुःखांत अर्थात् समस्त सांसारिक क्लेशों की पूर्ण निवृत्ति और ऐश्वर्यपूर्ण सिद्धियों की प्राप्ति है। माधवाचार्य तथा हरिभद्र ने भी अपने ग्रंथों में अर्थात् सर्वदर्शन संग्रह तथा षड्दर्शन समुच्चय में पाशुपत सूत्र तथा गणकारिका के आधार पर ही पाशुपत मत का प्रतिपादन किया है।
इन सब ग्रंथों के आधार पर पाशुपत दर्शन का मुख्य सार है कि समस्त फल अर्थात् जगत कार्य है। इसका एकमात्र हेतु (कारण) ईश्वर है, जिसको भिन्न-भिन्न नामों से अभिहित किया गया है। ईश्वर स्वतंत्र है। वह समस्त कार्य को उत्पन्न करने अथवा संहार करने में पूर्णत: स्वतंत्र है। उसे किसी अन्य कारण की अपेक्षा नहीं होती है। पाशुपत मत में कर्म सिद्धांत या माया अथवा अविद्या का कहीं भी उल्लेख नहीं हुआ है। ईश्वर शतश: निरपेक्ष रूप से कार्य का कारण बनता है तथा जीवों को मुक्ति दिलाने में उसी का एकान्तिक प्रसाद काम करता है। जिस पर ईशप्रसाद होगा, वही मुक्तिमार्ग में लगेगा। उसकी एकमात्र स्वतंत्र इच्छा से, जीवों को इष्ट, अनिष्ट, स्थान, शरीर, विषय इंद्रियों आदि की प्राप्ति होती है।
पाशुपत मत में योग के साथ-साथ भक्ति पर काफी बल दिया गया है। भक्ति सिद्धि का एक आवश्यक सहायक तत्व है, तथा मोक्ष पारमैश्वर्य प्राप्ति है। परंतु मुक्त जीव ईश्वर के साथ एक नहीं होता है, अपितु उसी की जैसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है जिस स्थिति को रूद्र सायुज्य कहा गया है। पाशुपत दर्शन, योग व धर्म का चरम उद्देश्य सापाक को रुद्रसायुज्य की प्राप्ति करवाना है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
पाशुपत धर्म
पाशुपत मत में मुख्य विषय योगविधि है, परंतु योगविधि का अनुसरण करने से पूर्व हर साधक को उस योग से संबंधित धर्मविशेष का अनुसरण करना पड़ता है। पाशुपत धर्म वैदिक धर्म से कई बातों में भिन्नता लिए है। वैसे पाशुपत मत का अनुयायी केवल ब्राह्मण या द्विज ही हो सकता है। शूद्र और स्त्री के साथ बोलना या उन्हें देखना भी साधक के लिए निषिद्ध है। यदि गलती से देख ही ले तो उसे शुद्धि करनी पड़ती है। (पा.सू. 1-12, 13,14,15)।
पाशुपत मत में वैदिक धर्म की कुछ एक बातें अवश्य समाई हैं, वह है ओंङ्कार पर ध्यान लगाना तथा अघोर आदि मंत्रों का जप करना। परंतु और सभी अनुष्ठानों में पाशुपत धर्म भिन्नता लिए हुए हैं। इसमें बलि, हवन आदि को कहीं स्थान नहीं मिला है। बस एकमात्र पूजा और योग साधना को ही प्रमुख स्थान मिला है।
वास्तव में पाशुपत धर्म में भी भिन्न-भिन्न विधियाँ ही हैं। पाशुपत धर्म साधारण गृहस्थ के लिए नहीं प्रतिपादित हुआ है। पाशुपत धर्म के आचार्यों ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि साधारण मानवमात्र के लिए कौन-सी धर्मविधि अपेक्षित है, परंतु पाशुपत साधक के लिए कौन-सी धर्मविधि अपेक्षित है, उसे साधना करते-करते कहाँ निवास करना चाहिए, कैसे जीविका का निर्वाह करना चाहिए, वस्त्र कैसे पहनने चाहिए? आदि सभी बातों की व्याख्या की गई है। इस प्रकार से पाशुपत धर्म केवल योगियों के लिए ही बना है।
पाशुपत धर्म में अहिंसा पर काफी बल दिया गया है, परंतु साधक मांस का सेवन कर सकता है, यदि वह भिक्षा में मिला हो। परंतु स्वयं पशु को मार कर उसका मांस खाना निषिद्ध है। आहार लाघव नामक यम में भी यही बात कही गई है कि साधक के भोजन की मात्रा नही अपितु उसके भोजन अर्जित करने के ढंग में आहारलाघव होता है। भिक्षा में मिला अन्न या जो कहीं पड़ा हो, केवल उसी अन्न को पाशुपत साधक खाए तो आहारलाघव नामक यम का पालन माना जाएगा। परंतु यदि किसी से बलात्कार से छीना हुआ एक ग्रास भी ले, वह अनुचित है।
पाशुपत धर्म में शिव की मूर्ति की पूजा को पूरे अनुष्ठान से करने को कहा गया है।