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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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रुद्र
ईश्‍वर का नामांतर।
पाशुपतसूत्र के कौडिन्यभाष्य के अनुसार ईश्‍वर इस उत्पन्‍न जगत को भयमुक्‍त कर देता है अतः रुद्र कहलाता है। रुद्र शब्द 'रूत' (भय) तथा 'द्रावण' (संयोजन) शब्दों से बना है। अतः जो इस स्थूल जगत में विचित्र भयों का संयोजन करता है, उसे रुद्र नाम से अभिहित किया गया है। सांसारिक भय की सृष्‍टि भी तो रुद्र ही करता है। वैसे द्रावण का अर्थ विनाश करना भी होता है। रुद्र साधकों को भयमुक्‍त करता हुआ उनके भय को नष्‍ट कर देता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.57)।
भासर्वज्ञ ने रूद्र को देश का एक प्रकार भी माना है। पाशुपत साधक का साधना की अन्तिम पंचमावस्था में रूद्र में निवास होता है। अर्थात् योग की पर दशा में इस स्थूल शरीर के छूट जाने पर योगी का रुद्र के साथ ऐकात्म्य होता है। अतः रूद्र ही उसका देश होता है। (ग.का.टी.पृ. 17)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

रुद्रसामीप्य
रुद्र की समीपता।
पाशुपत दर्शन के अनुसार जीवन का एक परम लक्ष्य रुद्र की समीपता प्राप्‍त करना है और पाशुपत साधक को विविध प्रकार की विधियों का आचरण करते हुए रुद्र सामीप्य अर्थात् रुद्र की सन्‍निधि प्राप्‍त करनी होती है। यह मोक्ष की एक दशा होती है। इस सामीप्यमोक्ष से उत्कृष्‍टतर दशा सायुज्यमोक्ष की होती है। सामीप्य मोक्ष में युक्‍त साधक परमेश्‍वर की सन्‍निधि का अनुभव प्रतिक्षण करता रहता है और उससे उसे अपूर्व आनन्द की अनुभूति हुआ करती है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

रुद्रसायुज्य
मुक्‍ति की एक ऊँची अवस्था।
पाशुपत दर्शन में मुक्‍ति का परमस्वरूप रुद्रसायुज्य है। जहाँ जीवात्मा परमात्मा में तन्मय हो जाता है। जीवात्मा का रूद्र के साथ साक्षात् योग हो जाता है। परंतु जीवात्मा का पूर्ण विलोप नहीं होता है। वह अपनी सत्‍ता को बनाए रखते हुए अपने आपको रुद्र से अभिन्‍न मानता है। यह भेदाभेद की उत्कृष्‍ट अवस्था होती है। पाशुपत मत में मुक्‍त आत्मा रूद्र के साथ ऐकात्म्य प्राप्‍त करने के बाद भी अपनी व्यक्‍तिगत सत्‍ता को बनाए रखता है। क्योंकि पाशुपत मत में मोक्ष केवल ऐसा दुःखांत नहीं है जहाँ केवल दुःखों की निवृत्‍ति हो या जहाँ पर जीवात्मा की सत्‍ता ही विलुप्‍त हो जाए, अपितु दुःखांत के उपरांत मुक्‍तात्मा में सिद्‍धियों का समावेश हो जाता है, वह शिवतुल्य बन जाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 131)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

रुद्रस्मृति
रुद्र का बारम्बार स्मरण करना।
पाशुपत योग के अनुसार साधक को सदा अर्थात् बिना किसी बाधा के रुद्र (परमकारणभूत ईश्‍वर) का स्मरण करना होता है, जिससे वह रुद्र सामीप्य, रुद्रसायुज्य आदि की प्राप्‍ति कर लेता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.122)। सदारुद्रस्मृति पाशुपत साधना के उपायों का एक प्रकार है। यह रुद्रस्मृति पाशुपत योग का एक मुख्य प्रकार होता है। (ग.का.टी.पृ.21)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

रौद्री
जप में उपयुक्‍त होने वाली रुद्र संबंधी ऋचा रौद्री कहलाती है। यह मंत्र जप रुद्र-सान्‍निध्य की प्राप्‍ति कर लेने में सहायक बनता है। इस जप में रुद्र का ध्यान किया जाता है। अतः जप की यह ऋचा रौद्री कहलाती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 39,124)। इस ऋचा का छंद गायत्र होता है। अतः इसे रौद्री गायत्री कहते हैं। वह रौद्री गायत्री यह है-
(तत् पुरुषाय विद्‍महे। महादेवाय धीमहि। तन्‍नो रूद्र: प्रचोदयात्) (पा.सू. 4 22, 23, 24)
सायं संध्या को रौद्री सन्ध्या कहते हैं (ग.का.टी.पृ. 18)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

रक्षा
देखिए 'अष्‍टावरण' शब्द के अंतर्गत 'विभूति'।
(वीरशैव दर्शन)

रुद्राक्ष
देखिए 'अष्‍टावरण'।
(वीरशैव दर्शन)


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