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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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घोर
ईश्‍वर का नामांतर।
पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार ईश्‍वर केवल अघोर रूप ही नहीं है अर्थात् वह केवल कल्याणमय रूपों को ही धारण नहीं करता है, अपितु अशिव तथा अशांत रूपों को भी वही शिव धारण करता है, जो कल्याणमय रूपों को धारण करता है। घोर रूपों पर अधिष्‍ठातृ रूप बनने की उसकी शक्‍ति को घोरत्व कहते हैं। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 89)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

घोरतर
ईश्‍वर का नामांतर।
पाशुपत मत के अनुसार ईश्‍वर भिन्‍न भिन्‍न प्राणियों को भिन्‍न भिन्‍न शरीरों से युक्‍त करता है। जो शरीर दुःखकारक बनते हैं वे घोरतर कहलाते हैं। (ग.का.टी.पृ. 11)। परमेश्‍वर ही उन घोरतर रूपों को धारण करता हुआ घोरतर कहलाता है। ऐसे शरीरों पर अधिष्ठातृ रूप बनने की उसकी शक्‍ति को घोरतरत्व कहते हैं। नारायणीय उपनिषद के एक मंत्र में भी पशुपति के अघोर, घोर और घोरतर रूपों का उल्लेख आता है -
अघोरेभ्योടथघोरेभ्यो घोरघोर तरेभ्यश्‍च। सर्वेभ्य: सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेട स्तु रुद्ररुपेभ्य:। (नारायणीय अपनिषद 19)
ईश्‍वर को अघोर, घोर तथा घोरतर रूपों का अधिष्‍ठाता बताने का तात्पर्य है कि भगवान् सर्वसामर्थ्यपूर्ण है। विश्‍व के कण कण का अधिष्‍ठाता एकमात्र शिव ही है। उसी की एकमात्र इच्छा के कारण अघोर, घोर, तथा घोरतर रूप प्रकट होते हैं। (वा. सू. कौ. भा. पृ. 89)।
(पाशुपत शैव दर्शन)


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