पाशुपत मत के अनुसार ईश्वर के परस्वरूप का वर्णन वाणी से नहीं हो सकता है, वहाँ वाणी पूर्णरूपेण निवर्तित होती है। अतः वह वाग्विशुद्ध कहलाता है। तात्पर्य यह है कि वाणी का विषय बनने से जो प्रमेयतारूपिणी अशुद्धि सांसारिक भावों में आती है, परमेश्वर उस अशुद्धि से सर्वथा हीन है, अतः वाग्विशुद्ध कहलाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 127, ग.का.टी.पृ.11)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
वाम
ईश्वर का नामांतर।
पाशुपत मत में ईश्वर को श्रेष्ठ शक्ति संपन्न होने के कारण वाम कहा गया है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 56)। वाम शब्द का अर्थ सुंदर भी होता है। जैसे 'वामोरू' शब्द का अर्थ होता है सुंदर ऊरुओं वाली ललना। परमेश्वर परम आनन्दमय होने के कारण अतीव सुंदर अर्थात् हृद्य तथा स्पृहणीय है। अतः उसे वाम कहते हैं।
(पाशुपत शैव दर्शन)
वास
उपाय का एक भेद।
पाशुपत दर्शन में वास के कई अर्थ दिए गए हैं। भासर्वज्ञ के अनुसार इसका पहला अर्थ है-ग्रहण-अर्थात् शास्त्रवाक्यों के सम्यक् अर्थ को अच्छी तरह से समझना ग्रहण नामक वास होता है। उन शास्त्र सिद्धांतों को बड़ी देर तक अच्छी तरह से याद रखना धारण नामक वास होता है। उस समझे हुए ज्ञान का बाहर विविध स्थानों में अर्जित ज्ञान के साथ ठीक तरह से तालमेल बिठाना ऊह नाम वास होता है। अपने मत की दृढ़ प्रतिपत्ति के लिए दूसरे मत के दार्शनिक सिद्धांतों का खंडन करने की शक्ति अपोह को भी वास कहते हैं। जिस श्रुति की अनेकार्थक व्याख्या हुई हो, उसको वास्तविक रूप में समझने की शक्ति तथा अपने सिद्धांतों को दूसरे लोगों में प्रचार करने की क्षमता विज्ञान नामक वास होता है। पुनरुक्तिदोष से मुक्त तथा परस्पर व्याघातरहित भाषणशक्ति वचन नामक वास होता है। दोष रहित उच्चारण से गुरु को प्रसन्न रखना तथा उसकी परिचर्या करना क्रिया नामक वास होता है। शास्त्रीय सिद्धांतों के पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्ष दोनों के परस्पर शास्त्रार्थ का उचित पर्यालोचन करके फिर उचित अर्थ का अनुष्ठान करने का प्रयत्न यथान्यायामि निवेश नामक वास होता है। इस तरह से भासर्वज्ञ ने गणकारिका टीका में वास के कई अर्थ दिए हैं और सभी अर्थ प्राय: ज्ञान व शास्त्र को समुचित रूप से समझने के अर्थ में ही दिए गए हैं (ग.का.टी.पृ.17)। अतः वास को यहाँ पर निवास के अर्थ में कदापि नहीं लिया जाना चाहिए। यह एक तान्त्रिकी संज्ञा है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
विकरण धर्मित्व
सिद्ध योगी की एकशक्ति।
करणरहित होने पर भी ऐश्वर्यरूप ज्ञानशक्ति तथा क्रियाशक्ति की उपस्थिति विकरणधर्मित्व नामक शक्ति होती है। पाशुपात दर्शन के अनुसार सिद्ध साधक में ऐसी शक्ति उद्बुद्ध हो जाती है कि वह विकरण होने पर भी अर्थात् इन्द्रिय रहित होने पर भी अपार ऐश्वर्य का भोक्ता बनता है, उसे ऐश्वर्ययुक्त कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 45 ग.का.टी.पृ.10)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
विज्ञान
विशिष्ट ज्ञान।
पाशुपत साधक की विज्ञान शक्ति साधना के अभ्यास से जागृत हो जाती है। इस सिद्धि को प्राप्त कर लेने के अनन्तर साधक समस्त विज्ञेय को विशिष्ट रूप से जान लेता है। अर्थात् समस्त विज्ञेय का वास्तविक ज्ञान उसे हो जाता है। वह समस्त विषयों को उनके तात्विक स्वरूप में पहचानता है। अतः युक्त साधक या विज्ञाता को विज्ञेय का ज्ञान होना विज्ञानशक्ति कहलाता है। विज्ञान विशेषकर अनुभूति द्वारा वस्तुतत्व का साक्षात्कार रूप विशिष्ट ज्ञान होता है। सुनने और पढ़ने तथा सोचने से जो ज्ञान होता है, वह बौद्ध अध्यवसाय मात्र होता है। विशिष्ट ज्ञान योगज अनुभूति से ही होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.42)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
विद्या
कार्य का एक प्राकर।
पाशुपत मत के अनुसार विद्या जीव का एक गुण है। विद्या दो तरह की कही गई है- बोधात्मिका (ज्ञानरूपा) अबोधात्मिका (अज्ञानरूपा) बोधात्मिका विद्या भी दो तरह की होती है- विवेकप्रवृत्ति तथा अविवेकप्रवृत्ति। विवेकप्रवृत्ति चित्त कहलाती है क्योंकि चित्त के द्वारा ही सभी प्राणियों का विषयज्ञान या विवेकप्रवृत्ति होती है। पशु (बद्धजीव) के धर्म और अधर्मसंबंधी विद्या अबोधात्मिका विद्या होती है। (सर्वदर्शन संग्रह प. 168)।
इस विविध विद्या के द्वारा ही जीव की उत्पत्ति, स्थिति व तिरोभाव होते हैं और अन्तत: इसी विद्या के द्वारा दुःखांत की ओर गति होने लगती है। आगे बोधात्मिका विद्या के द्वारा पुरुष योग साधना में प्रवृत्त होकर दुःखांत प्राप्ति के लिए यत्न करता है तथा अबोधात्मिका विद्या के द्वारा सांसारिक विषयों के प्रति प्रवृत्त होता हुआ सृष्टिकृत्य में बंध जाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.14)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
विधि
साधना पद्धति।
पाशुपत योग के अनुसार विधि का एक अपना निश्चित तथा महत्वपूर्ण स्थान है। विधि के अभ्यास के बिना पर तत्व के साथ ऐकात्म्य संभव नहीं है। विधि के अंतर्गत कुछ ऐसी क्रियाएँ आती हैं जिनका पालन करने से पशु (जीव) मुक्ति की ओर अग्रसर होता है। विधि दो प्रकार की कही गई है- मुख्य विधि तथा गौण विधि। मुख्य विधि भी दो प्राकर की कही गई है- व्रत तथा द्वार। भस्मस्नान, भस्मशयन, उपहार या नियम (जिसमें ह्रसित, गीत, नृत्य आदि विविध क्रियाएँ आती हैं) आदि व्रत कहलाते हैं। क्राथन, स्पन्दन, मन्दन, श्रृंगारण, अपितत्करण, अपितद्भाषण आदि क्रियाएँ द्वार कहलाती हैं, जो पूर्ववर्णित व्रतों के द्वार स्वरुप हैं अर्थात् उन व्रतों के उत्कृष्टतर अनुष्ठान के लिए संन्यासी को योग्य बनाती है।
गौण विधि में अनुस्नान आदि योग क्रियाएँ आती हैं। (पा.सू.कौ.भा; ग. का.टी.पृ.12)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
विप्र
ईश्वर का नामांतर।
पाशुपत शास्त्र में ईश्वर को स्वतंत्र ज्ञानशक्ति संपन्न होने के कारण विप्र नाम से अभिहित किया गया है (पा.सू.कौ.भा.पृ.127; ग.का.टी.पृ.11)। धर्मशास्त्र में भी वेदाध्ययन आदि से प्राप्त ज्ञान ही ब्राह्मण को विप्र पद के योग्य बनाता है। परमेश्वर का ज्ञान तो उससे भी बढ़चढ़कर है, क्योंकि स्वतंत्र है और स्वाभाविक है तथा साधनों से साध्य नहीं है। अतः परमेश्वर का नाम भी विप्र है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
विशुद्धियाँ
शुद्धियाँ।
पाशुपत साधक में साधना के अभ्यास के उपरांत मिथ्याज्ञान व अज्ञान आदि का पूर्णत: शोधन होना विशुद्धि कहलाता है। विशुद्धि पाँच प्रकार की कही गई है-अज्ञानहानि, अधर्महानि, सङ्करहानि, च्युतिहानि तथा पशुत्वहानि। (ग.क.4)। गणकारिका में गिनाए गए नौ गणों में से एक गण विशुद्धियों का भी है। इस तरह से विशुद्धियाँ पाशुपत दर्शन के प्रतिपाद्य विषयों में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
(पाशुपत शैव दर्शन)
वीतशोक
मुक्त जीव का लक्षण।
यहाँ पर शोक का तात्पर्य चिन्तन से है। पाशुपत मत में मुक्त जीव अच्छे बुरे सभी चिन्तन, अध्ययन, ध्यान, स्मरण, अनध्ययन, अध्यान तथा अस्मरण से रहित हो जाता है। जब साधक निर्विकल्प अवस्था में ठहर जाता है और उसके मन में किसी भी तरह का विचार नहीं आता है, 'कि मैं जप करूँ या न करूँ' आदि ऐसे चिन्तनों से मुक्ति प्राप्त करने पर वह आत्मा वीतशोक कहलाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.140)।
गणकारिका में भी कहा गया है कि समस्त चिन्ताओं से मुक्ति वीतशोकत्व कहलाती है (समस्तचिन्ता रहितत्व वीतशोकत्वम्-ग.का.टी.पृ.16)। यह योग की एक उत्कृष्टतर अवस्था होती है।