पाशुपत योग के अनुसार साधक को भगवान महादेव के चरणों में छः अंगों वाला उपहार अर्पण करना होता है। षडंगोपहार के छः अंग हसित, गीत, नृत्यु, डुंडुंकार, नमस्कार तथा जप हैं। (ग.का.टी.पृ. 19)। साधक शिव मंदिर में शिवमूर्त्ति अथवा शिवलिंग के सामने गाता है, नाचता है, खिलखिलाकर हँसता है, हुडक्कार सुनाता है, दण्डवत् प्रणाम करता है और शिव मंत्र का जप करता है। इस तरह से इन छः पूजा कार्यों की भेंट शिवजी को चढ़ाता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
षट्स्थल
देखिए 'अंग-स्थल'।
(वीरशैव दर्शन)
षट्स्थल-संप्रदाय
जीव को मोक्ष की प्राप्ति कराने वाली षट्स्थल-प्रक्रिया के प्रतिपादक वीरशैव दर्शन को षट्स्थल-संप्रदाय कहते हैं। इस संप्रदाय में उपासक अंग (जीव) के मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होने पर क्रमशः भक्त, महेश्वर, प्रसादी, प्राणलिंगी, शरण तथा ऐक्य नाम की छः अवस्थाओं की प्राप्ति बताई गयी है इन अवस्थाओं की परिभाषा 'अंग-स्थल' शब्द में प्रतिपादित है। जैसे उपासक जीव की छः अवस्थायें हैं, उसी प्रकार उपास्य लिंग (शिव) की भी आचारलिंग, गुरुलिंग, शिवलिंग, जंगम-लिंग, प्रसादलिंग और महालिंग के नाम से छः लीला-अवस्थायें मानी गयी हैं (इन अवस्थाओं की परिभाषा के लिये 'लिंग-स्थल' शब्द देखिये)।
शिव के इन लीला-विग्रहों की उपासना करता हुआ जीव अपनी उपासना के बल से तथा शिव के अनुग्रह के क्रमशः भक्त, महेश्वर आदि अवस्थाओं को प्राप्त करता हुआ अंत में 'ऐक्य-स्थल' में महालिंग के साथ समरस हो जाता है। इस प्रकार छः प्रकार की उपासनाजन्य अवस्थाओं की प्राप्ति के द्वारा उपासक जीव के लिये मोक्षमार्ग के प्रतिपादक इस वीरशैव दर्शन को षट्स्थल-संपदाय कहा गया है।