डुडुंकार डुंडुंकरण को कहते हैं, अर्थात् जिह् वागत से तालु का स्पर्श करके शब्दविशेष निकालना डुंडुंकार होता है। इसे पुण्य शब्द कहा गया है और यह शब्द बैल के शब्द के सदृश होता है। हुडुक्कार भी इसी का नामांतर है। पाशुपत योगी को डुंडुंकार शब्द का उच्चारण पूजा के अंग के रूप में करना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 14)। शैव साधकों में ऐसी प्रसिद्धि है कि दक्ष प्रजापति ने बकरे का सिर लग जाने पर बकरे की वाणी से, जो भगवान् पशुपति की स्तुति की थी उससे भगवान् अतीव प्रसन्न होकर उसके प्राक्तन अपराधों को भूल गए थे। उसी स्तुति का अनुकरण अब भी शैवसाधक शिवजी की पूजा में करते हैं।