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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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संकरहानि
विशुद्‍धि का एक भेद।
पाशुपत योगी की समस्त वैषयिक आसक्‍ति का जब अत्यंत उच्छेद हो जाता है तो उसे सङ्करहानि नामक विशुद्‍धि की प्राप्‍ति होती है। सङ्करहानि विशुद्‍धि का तृतीय भेद है। (ग.का.टी.पृ.7)। सङ्कर से तात्पर्य है वैषयिक आसक्‍ति का मनोवृत्‍तियों में मिलकर रहना। सङ्कर एक विशेष प्रकार का मानस संसर्ग होता है। मुक्‍ति पाने के लिए इस संकर को सर्वथा धो डालने से योगी संकरहानि रूपिणी विशुद्‍धि का पात्र बन जाता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

सक्‍तिहेतु
मल का एक विशेष प्रकार।
भासर्वज्ञ के अनुसार भौतिक विषयों के प्रति आसक्‍ति से मनुष्य को जो सुख मिलता है तथा उस सुख से उसे जो अभिमान होता है, `कि मैंन अमुक कार्य किया या करूँगा, उससे मुझे अमुक प्रकार का आनन्द मिला या मिलेगा` इस प्रकार का उसका यह सुखाभिमान ही सक्‍ति हेतु नामक मल होता है। यह मल का तीसरा प्रकार है तथा बन्धन का एक कारण बनता है। इसीलिए इसे मलों के भीतर गिना गया है। (ग.का.टी.पृ.22)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

सत्य
यमों का एक प्रकार।
पाशुपत योग में सत्य नामक यम दो प्रकार का कहा गया है-परिदृष्‍ट भूतार्थ तथा वाक् सत्य। समस्त दृष्‍ट अर्थों को जिस रूप में देखा हो, उन्हें ठीक उसी रूप में प्रस्तुत करना परिदृष्‍ट भूतार्थ सत्य होता है। वाणी में सत्य अर्थात् जिस सत्य को कहने से किसी का भला हो सकता है। यदि वह उस रूप में न भी देखा गया हो परंतु आपदा में पड़े जीव की रक्षा के लिए झूठ को भी सत्य बनाकर बोलना पड़े, वह वाक् सत्य होता है क्योंकि कहा भी गया है -
सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्‍न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्। प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्म: सनातनः।।
अतः कभी-कभी भलाई के लिए बोला हुआ अनृत (झूठ) भी सत्य बन जाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.21,22)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

सद्‍योजात
ईश्‍वर का नामांतर।
पाशुपत सूत्र के कौडिन्य भाष्य के अनुसार 'सद्योजात' शब्द में विग्रह करके तीन भिन्‍न-भिन्‍न शब्द बनकर ईश्‍वर की तीन शक्‍तियों का अर्थ निकलता है। विग्रह इस प्रकार से है- सन् + आद्य + अजात, अर्थात् सद्य इस पद में दो अर्थ हैं सन् (सत्‍ता) तथा आद्य (आदिकारण), अतःजिसक सत्‍ता सदा व सर्वदा रहती है, जिसकी सत्‍ता अनादिकाल से है तथा जो जन्ममरण रहित (अजात) है, वह परमसत्‍ता सद्योजात कहलाती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 52,53)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

सन्
मुक्‍त जीव का एख लक्षण।
पाशुपत दर्शन के अनुसार मुक्‍त जीव निश्‍चल स्थिति में रहता है अर्थात् साधक समस्त आंतरिक व बाह्य, सूक्ष्म व स्थूल क्रियाओं से विरत होकर तथा चित्‍त को रूद्र में लगाकर अचल तथा स्थिर स्थिति को धारण करता है। उसी स्थिर स्थिति को सन् (निष्क्रिय) कहा गया है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 138)।
इस स्थिति पर पहुँचकर साधक को कोई योगाभ्यास भी नहीं करना होता है अतः उसे निष्‍क्रिय कहा गया है। (ग.का.टी.पृ. 16)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

समीप
सान्‍निध्य।
पाशुपत साधक का चित्त जब विषयों के प्रति काफी इच्छुक होते हुए भी रूद्रतत्व में ही लगा रहे अर्थात् चित्‍तवृत्‍तियों का सतत प्रवाह रूद्र तत्व से विचलित न होने पाए, वह अवस्था समीप कहलाती है। इस तरह से समीप योगधारण की एक स्थिर ध्यानमयी साधना के अभ्यास का नाम है। इस अभ्यास से चित्‍त शुद्‍ध हो जाता है और साधक रूद्र सामीप्य और रूद्र सायुज्य के प्रति आगे बढ़ता जाता है। (ग.का.टी.पृ.15)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

सर्व
ईश्‍वर का नामांतर।
पाशुपत दर्शन के अनुसार ईश्‍वर स्वयमेव ही सभी भूतों में स्थित है क्योंकि समस्त सृष्‍टि उसकी स्वतंत्र इच्छाशक्‍ति की क्रीड़ा है। अतः उसे 'सर्व' कहा गया है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.90)। ईश्‍वर को सर्व कहने का तात्पर्य है कि वही सब कुछ है। जो कुछ भी दीखता है वह सब वस्तुतः परमेश्‍वर ही है, क्योंकि परमेश्‍वर की परमसत्‍ता के भीतर ही विश्‍व की सत्‍ता होती है। विश्‍व स्वयं अपने बल से कुछ भी नहीं है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

सर्वज्ञता
पाशुपत साधक की एक शक्‍ति।
पाशुपत योग के अनुसार सिद्‍ध साधक की सर्वज्ञत्व शक्‍ति जागृत हो जाती है। विज्ञानशक्‍ति के जागृत होने पर सिद्‍ध साधक वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप को जानता है तथा सर्वज्ञत्व शक्‍ति के जागृत होने पर वह समस्त वस्तुओं (चाहे वे जगत के किसी भी कोने में हों) के स्वरूप को जान लेता है। अतः इस सिद्‍धि को प्राप्‍त कर लेने पर सिद्‍ध साधक को समस्त कार्य का ज्ञान हो जाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.43)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

सर्वभूतदमन
ईश्‍वर का नामांतर।
पाशुपत मत में ईश्‍वर को सर्वभूतदमन कहा गया है। पाशुपत सूत्र के कौडिन्य भाष्य के अनुसार ईश्‍वर देवताओं, मनुष्यों तथा पशुओं के विशेष स्थान, शरीर व विषयों के प्रति रति या वासना का दमन या शमन करता है, अतः सर्वभूत दमन कहलाता है। यह व्याख्या ईश्‍वर के अनुग्रहकृत्य की दृष्‍टि के की गई है। (क.सू.कौ.भा.पृ. 75)।
गणकारिका टीका के अनुसार ईश्‍वर देवताओं, मनुष्यों तथा पशुओं के विशेष स्थान, शरीर व विषयों के प्रति वासना या मोह को बढ़ाता है अतः सर्वभूतदमन कहलाता है। यह व्याख्या भगवान के निग्रह कृत्य को दृष्‍टि में रखते हुए की गई है। (ग.का.टी.पृ. 11)।
ये दोनों ही दृष्‍टिकोण अपनी-अपनी दृष्‍टि से समुचित लगते हैं। प्रथम दृष्‍टिकोण से देखें तो ईश्‍वर मोक्षकारक बनकर समस्त चेतनों पर शक्‍तिपात करके उनके मोह का आवरण हटाकर उनमें समस्त सांसारिक वासना मिटा देता है। दूसरे दृष्‍टिकोण के अनुसार ईश्‍वर स्वयं ही बन्धकारक होने के कारण समस्त भूतों में मोह उत्पन्‍न करके उन्हें बन्धन में डालता है। पाशुपतमत में ईश्‍वर ही समस्त विश्‍व का एकमात्र कारण है। वही मोक्ष व बन्धन, विद्‍या तथा अविद्‍या दोनों का कारण है अतः ऊपर्युक्‍त दोनों व्याख्याएँ उपयुक्‍त हैं।
(पाशुपत शैव दर्शन)

सार्वकामिक
ईश्‍वर का नामांतर।
पाशुपत दर्शन के अनुसार ईश्‍वर समस्त कार्य को अपनी स्वतंत्र इच्छाशक्‍ति से ही उत्पन्‍न करता है। किसी बहीः कारण पर निर्भर नहीं करता है। समस्त जगत की उत्पत्‍ति अपनी इच्छानुसार करता है। जैसे चाहता है वैसे करता है अतः सार्वकामिक कहलाता है। उसे जीवों के अनादि कर्म पर उनकी अनादि अविद्‍या या अनादि वासना पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। वह स्वतंत्र है। अतः जैसे वे चाहता है वैसे ही सब कुछ घटता है। इसीलिए उसे सार्वकामिक कहते हैं। (पा.सू.कौ.भा.पृ.60)।
(पाशुपत शैव दर्शन)


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