logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

Please click here to read PDF file Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

धर्म
बल का एक प्रकार।
पाशुपत शास्‍त्र में पाशुपत धर्म की निर्धारित विधि का सदैव पालन करना धर्म कहलाता है। धर्म बल का चतुर्थ भेद है। क्योंकि धर्म पर स्थित होने से बल आता है (ग.का.टी.पृ.7)। धर्म से पूजापाठ आदि प्रसिद्‍ध लोकप्रिय धर्म तथा यम नियम आदि विशेष साधक धर्म यहाँ अभिप्रेत हैं। इन धार्मिक कृत्यों के अनुष्‍ठान से चित्‍त शोधन होता है और उससे साधना सफल होती है। इस तरह से धर्म रूपी बल साधना में सफलता प्राप्‍त करने में सहायक बनता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

धर्मशक्‍ति
तप का चतुर्थ लक्षण।
पाशुपत दर्शन के अनुसार जिस शक्‍ति के बल से साधक का योगनिष्ठ चित्‍त किसी भी बाह्य स्थूल विषय की ओर आकृष्‍ट न हो, अर्थात् किसी भी प्रकार के मोह से मोहित न हो, वह सामर्थ्य धर्मशक्‍ति कहलाती है। (ग.का.टी.पृ.15)। इसी शक्‍ति से योगी काम, क्रोध, लोभ आदि से अस्पृष्‍ट रहता हुआ स्थिरता से अपने अभ्यास में ही लगा रहता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

धर्मात्मा
युक्‍त साधक का लक्षण।
पाशुपत मत के अनुसार साधक समस्त द्‍वंद्‍वों पर विजय पाकर 'धर्मात्मा' बन जाता है। यमों व नियमों के अभ्यास से श्रेष्‍ठ कर्मों की प्राप्‍ति करता है जिससे इस लोक में उसे अभ्युदय की प्राप्‍ति होती है तथा परलोक में मोक्ष को पा लेता है। तात्पर्य यह है कि योगी उत्कृष्‍ट अवस्था में पहुँच कर भी यम नियम आदि धर्मों को तथा भस्म-स्‍नान आदि क्रियाओं को छोड़ता नहीं और उससे उसका माहात्म्य बढ़ता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.131)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

धारणा
मन को दृढ़रूपेण ध्यान में स्थापित करना।
पाशुपत योग के अनुसार हृदय में ओंकार की धारणा करनी होती है। धारणा वह उत्कृष्‍ट योग है जहाँ आत्म तत्व में लगाए हुए ध्यान को स्थिरता दी जाती है। ध्यान जब दीर्घ काल के लिए साधक के मन में स्थिर रहता है तो वह धारणा कहलाती है। इसको पर ध्यान भी कहा गया है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.126)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

धारणापूर्वक ध्यान
ध्यान की पर अवस्था।
पाशुपत मत के अनुसार जहाँ साधक चित्‍त को पूर्णरूपेण निरालंबन बनाकर अर्थात् चित्‍त के ध्यान का विषय किसी भी स्थूल या सूक्ष्म वस्तु को न रखते हुए तथा निर्मल बनाकर केवल रुद्र तत्व में ही अपने आपको स्थापित करता है। साधक की यह अवस्था पाशुपत योग की पर (उत्कृष्‍टतर) दशा होती है। (ग.का.टी.पृ.20)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

ध्यान
परस्वरूप महेश्‍वर का चिंतन। (ध्यानं चिंतनमित्यर्थ:)
ध्यै चिंतालक्षणं ध्यानं ब्रह्म चोंकार लक्षणम्। धीयते लीयते वापि तस्मांद् ध्यानमिति स्मृतम्।। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 115)।
ध्येय ब्रह्म है तथा ओंकार है क्योंकि पाशुपत ध्यान में परब्रह्म के ओंकार स्वरूप का ध्यान (चिंतन) किया जाता है तथा उसी ध्यान में लीन होना होता है। (रुद्रतत्वे सदृश चिंता प्रवाहो ध्यानम्-ग.का.टी.पृ. 20)।
भासर्वज्ञ के अनुसार ध्यान दो तरह का होता है-जपपूर्वक ध्यान तथा धारणापूर्वक ध्यान। (ग.का.टी.पृ.20)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

धर्माचार
देखिए 'सप्‍ताचार'।
(वीरशैव दर्शन)


logo