पाशुपत साधना की इस अवस्था में साधक को यथालब्ध से, अर्थात् बिना मांगे जो स्वयमेव ही भिक्षा रूप में मिले उसी से जीविका का निर्वाह करना होता है। यह साधक की वृत्ति हुई। साधक का देश अर्थात् निवास स्थान इस अवस्था में श्मशान होता है। अर्थात् साधक को साधना की इस उत्कृष्ट अवस्था में पहुँचकर श्मशान में निवास करना होता है। साधना की यह चौथी अवस्था चतुर्थावस्था कहलाती है। (ग.का.टी.पृ.5)। इस अवस्था में साधक का पाशुपत व्रत तीव्रता की ओर बढ़ता है। इस चतुर्थावस्था की साधना के अभ्यास से साधक को रुद्र सालोक्य की प्राप्ति होती है। (पा.सू. 4-19.20)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
चर्या
उपाय का एक प्रकार।
पाशुपत धर्म की भस्मस्नान, भस्मशयन आदि क्रियाओं को चर्या कहते हैं। (ग.का.टी.पृ. 17)। चर्या त्रिविध कही गई है- दान, याग और तप। इनमें से दान 'अतिदत्तम्', याग 'अतीष्टम्' तथा तप 'अतितप्तम्', इन शीर्षकों के अंतर्गत आए हैं। चर्या के इन तीन प्रकारों के भी दो दो अंग होते हैं-व्रत तथा द्वार। व्रत गूढ़ व्रत के अंतर्गत आया है तथा द्वार क्राथन, स्पंदन मंदन आदि पाशुपत साधना के विशेष प्रकारों को कहते हैं।
(पाशुपत शैव दर्शन)
च्युति
मल का एक प्रकार।
पाशुपत दर्शन के अनुसार जब साधक का चित्त रुद्र तत्व में न लगकर वहाँ से च्युत हो जाए, अर्थात् ध्येय में से चित्त की स्थिर निश्चल स्थिति हट जाए, तो चित्त के ऐसे च्यवन को च्युति कहा गया है जो कि मलों का एक प्राकर है; क्योंकि इस तरह की च्युति से साधक बंधन में पड़ जाता है तथा उसकी मुक्ति में बाधा पड़ती है। (ग.का.टी.पृ. 22)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
च्युतिहानि
विशुद्धि का एक प्रकार।
पाशुपत दर्शन के अनुसार च्युतिहानि विशुद्धि का चतुर्थ भेद है। जब पाशुपत साधक की योग में इतनी दृढ़ स्थिति हो जाती है कि उस परावस्था से फिर च्युति (अध:पतन) नहीं होती है, तब वह च्युतिहानि रूप शुद्धि की प्राप्ति अंतत: साधक को मुक्ति प्रदान करने में सहायक बनती है क्योंकि उसका चित्त पर ध्यान में सतत रूप से समाहित रहता है। (ग.का.टी.पृ. 7)।