नकुलीश पाशुपत मत के संस्थापक लकुलीश का ही नामांतर है। शिव पुराण वायवीय संहिता के नौवे अध्याय में तथा कूर्म पुराण के तिरपनवें (53वें) अध्याय में नकुलीश को कलियुग में पाशुपत मत का आदि गुरु बताया गया है। माधवाचार्य ने सर्वदर्शन संग्रह में पाशुपत मत को नकुलीश-मत कहा है। परंतु काशमीर के शैव आगमों के इस मत के संस्थापक को लकुलीश या लाकुल कहा गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
नमस्कार
पाशुपत धर्म की विधि का एक अंग।
पाशुपत धर्म के अनुसार नमस्कार महेश्वर के प्रति मानसिक नमस्करण होता है। यह नमस्कार मुह से, शब्द विशेष से या शरीर की किसी मुद्रा से नहीं किया जाता है, अपितु पाशुपत योगी को मन ही मन महेश्वर के प्रति नमस्करण करके नमस्कार नामक विधि के इस अंग का पालन करना होता हे। ऐसा नमस्कार ही सर्वोत्तम नमस्कार होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 14)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
नित्यात्मा
आत्मतत्व के साथ शाश्वत योग।
पाशुपत मत के अनुसार युक्त साधक को आत्मा के साथ निरंतर योग होता है, अर्थात् वह आत्म तत्व के साथ सदैव एकाकार बनकर ही रहता है। सर्वदा चित्तवृत्ति का आत्मतत्व में ही समाधिस्थ होकर रहना नित्यात्मत्व कहलाता है। (अनुरूध्यमान चितवृत्तित्वं नित्यात्मत्वम्- ग.का.टी.पृ. 16)। नित्यात्मत्व अवस्था को प्राप्त साधक नित्यात्मा कहलाता है। (पा.सू.पृ. 5.3)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
निर्माल्यम्
पाशुपत विधि का एक अंग।
मूर्ति विशेष पर चढ़ाई हुई पुष्पमाला को निर्माल्य कहते हैं। पुष्पों की माला बनाकर आराध्य देव की मूर्ति पर चढ़ाकर, फिर वहाँ से ग्रहण करके, उसको अपने शरीर पर धारण करना निर्माल्यधारण होता है। निर्माल्यधारण पाशुपत योगी की भक्ति की वृद्धि में सहायक बनता है और उसके पाशुपत धर्म के अनुयायी होने का चिह्न भी होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 11)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
निष्ठावस्था
अवस्था का एक प्रकार।
पाशुपत योगी की साधना की पंचमावस्था निष्ठावस्था कहलाती है, जिसे सिद्धावस्था भी कहा गया है। जिस अवस्था में बाह्य साधना की सभी क्रियाएं पूर्ण रूपेण शांत हो चुकी हों, वह अंतिम अचल अवस्था निष्ठावस्था कहलाती है। (ग.का.टी.पृ. 8)। इस अवस्था में साधक को आत्मा का पूर्ण बोध होता है। अतः न ही कोई मल शेष रहता है और न ही किन्हीं उपायों की आवश्यकता रहती है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
नृत्य
पाशुपत धर्म की विधि का एक अंग।
पाशुपत संन्यासी को भगवान महेश्वर को प्रसन्न करने के लिए उसकी मूर्ति के सामने नृत्यशास्त्रानुसारी नृत्य करना होता है, अर्थात् हाथों पैरों व भिन्न-भिन्न अंगों का चालन व आकुञ्चन रूपी नृत्य गान के साथ-साथ करना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.13)। इस नृत्य को शैवधर्म की अनेकों शाखाओं में पूजा का एक विशेष अङ्ग माना जाता रहा है। अब भी दक्षिण में शिवमंदिरों में आरती के समय नृत्य किया जाता है। कालिदास ने भी महाकालनाथ के मंदिर में होने वाले नृत्य का उल्लेख किया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
नि:शून्य-वस्तु
देखिए 'सर्वशून्य-निरालंब'।
(वीरशैव दर्शन)
नित्याचार
देखिए 'सप्ताचार'।
(वीरशैव दर्शन)
निरालम्ब चित्
वीरशैव संतों ने शून्य तत्व की 'सर्वशून्य-निरालम्ब', 'शून्यलिंग' और 'निष्कल-लिंग' के नाम से तीन अवस्थाओं को माना है। ये तीनों अवस्थाएँ विश्व की उत्पत्ति की कारणावस्था से परे हैं। जब निष्कल-लिंग में कारणावस्था का उदय होने लगता है, तब उस निष्कल-लिंग से एक प्रकाश निकलता है। इस प्रकाश को 'चित्' कहते हैं। इस चित् का कोई अन्य आलम्ब अर्थात् आधार नहीं है, वह स्वतंत्र है। अतः उसे 'निरालम्ब-चित्' कहा जाता है। इसको ज्ञानस्वरूप होने से 'ज्ञान-चित्' और विश्व की उत्पत्ति का मूल कारण होने से 'मूल चित्' भी कहते हैं।
इस निरालम्ब चित् से सर्वप्रथम 'अ', 'उ' और 'म' इन तीन वर्णो की सृष्टि होती है। इन तीनों को 'नाद', 'बिंदु' और 'कला' कहते हैं। चिद्रूप निरालम्ब चित् से उत्पन्न होने के कारण ये तीनों भी चिद्रूप ही हैं। अतः इनको चिन्नाद, चिद्बिंदु, चित्कला कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि 'अ' कार ही 'चिन्नाद', 'उ' कार ही 'चिद्बिंदु' और 'म' कार ही 'चित्कला' कहा जाता है।
अ, उ, म ये तीनों वर्ण जब अपने कारणीभूत 'निरालम्ब-चित्' से संयुक्त हो जाते हैं, तब ऊँकाररूपी मूल प्रणव की उत्पत्ति होती है। यह ऊँकार उस अखंड 'चित्' का एक व्यक्त स्वरूप होने से 'चित् पिंड' कहा जाता है। इस चित् पिंड को ही वीरशैव संतों ने 'अनादि-पिंड' कहा है। इस चित् पिंड में आनंदस्वरूप की भी अभिव्यक्ति होती है, अतः उस ऊँकार को 'चिदानंद' भी कहते है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि 'चित् पिंड', 'अनादिपिंड', और 'चिदानंद' ये तीनों ऊँकार के ही पर्याय हैं। वीरशैव दर्शन में इस ऊँकार से ही समस्त विश्व की सृष्टि मानी जाती है। (शि.श.को.पृ. 14,15; तों.व.को.पृ.17)।