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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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गण
पाशुपत दर्शन के दार्शनिक विषयों का वर्ग भेद।
गणकारिका में पाशुपत दर्शन के मुख्य विषयों को नवगणों में वर्गीकृत किया गया है। आठ गणों में पाँच पाँच विषय हैं तथा एक गण में तीन विषय हैं। इस तरह से आठ पंचकों और एक त्रिक के सर्वयोग से तेंतालीस विषय बनते हैं। (पंचकास्त्वष्ट विज्ञेया गणश्‍चेकस्‍त्रिकात्मक:-ग.का.टी.पृ. 3)। इन नव गणों के नाम हैं- लाभ, मल, उपाय, देश, अवस्था, विशुद्‍धियाँ, दीक्षा, बल और वृत्‍तियाँ। इन्हीं का निरुपण गणकारिका तथा उसकी टीका में किया गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

गति
तप का चिह्न।
पाशुपत साधक की योग साधना में योग की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में गमन गति कहलाता है। (ग.का.टी.पृ. 15)। पाशुपत योग की सफलता के तीन या चार उत्‍तरोत्‍तर उत्कृष्‍टतर सोपान माने गए हैं। उनमें से सामान्य पूजा आदि के स्तर पर सफलता को प्राप्‍त करके साधक द्‍वितीय स्तर में संक्रमण करता है। वहाँ भी सफलता को प्राप्‍त करता हुआ साधना के तीसरे व चौथे उत्कृष्‍टतर स्तरों में प्रवेश करता है। इस तरह का उत्‍तरोत्‍तर स्तरों पर उसका जो पहुँचना है, वही इस शास्‍त्र में गति कहलाता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

गायत्री
जप मंत्र विशेष।
गायत्री रौद्री का ही नामांतर है, क्योंकि रौद्री (गातारं त्रायते) मंत्र के गाने वाले का त्राण (रक्षा) करती है, अतः गायत्री कहलाती है। अथवा रौद्री गायत्री छंद में निर्मित होती है इस कारण भी गायत्री कहलाती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 39)। प्रसिद्‍ध सामवेदीय गायत्री मंत्र के अनुसार प्रत्येक शैव, वैष्णव, शाक्‍त आदि देवताओं की गायत्री का निर्माण हुआ है। पाशुपत सत्रों में तत्पुरुष की गायत्री को ही रौद्री गायत्री के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वह मंत्र निम्‍नलिखित है -
तत् पुरुषाय विद्‍महे महादेवाय धीमहि तन्‍नो रुद्र: प्रचोदयात्-पा.सू. 4-22, 23,24)
(पाशुपत शैव दर्शन)

गीत
पाशुपत धर्म की विधि का एक अंग।
पाशुपत योगी को महेश्‍वर की मूर्ति के सामने महेश्‍वर संबंधी गीत गाने होते हैं। उन गीतों में महेश्‍वर का गुणगान, उसके भिन्‍न भिन्‍न नामों का संकीर्तन तथा उसकी अपार महिमा की प्रशंसा समाहित होती है। ये गीत संगीतशास्‍त्र (गंधर्वशास्‍त्र) के अनुसार रचे होने चाहिए अर्थात् संगीतशास्‍त्र के नियमों के अनुसार इन गीतों की ताल व लय होने चाहिए। इन गीतों द्‍वारा साधक आत्मनिवेदन करता हुआ पशुपति के साथ तन्मयता को प्राप्‍त करता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.13)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

गुरु
दार्शनिक विषयों का ज्ञाता तथा शिक्षक।
पाशुपत दर्शन के दार्शनिक विषयों का ज्ञाता तथा शिष्य के संस्कारों को करने वाला शिक्षक गुरु कहलाता। (वेत्‍ता नवगणस्यास्य संस्कर्ता गुरुरूच्यते-ग. का.टी.पृ. 3)। जो पाशुपत दर्शन के नवगण (दार्शनिक विषयों) का वेत्‍ता (ज्ञाता) अथवा विचारक हो, चिंतक हो तथा इन विषयों की शिष्यों को दीक्षा दे सकता हो वह गुरु कहलाता है।
भासर्वज्ञ ने गुरु को 'देश' का एक प्रकार भी माना है। योगाभ्यास करते समय पाशुपत साधक के लिए विशेष निवासस्थान निर्दिष्‍ट किए गए हैं। उसके अनुसार योगाभ्यास की प्रथम अवस्था में गुरु के पास निवास करना होता है। (ग.का.टी.पृ. 16)। गणकारिका में ही गुरु को दीक्षा का पंचम अंग भी माना गया है, जो दीक्षा देता है। यह गुरु दो तरह का होता है-पर गुरु तथा अपर गुरु। पर गुरु को आचार्य कहा गया है तथा अपर गुरु को आचार्याभास कहा गया है। (ग.का.टी.पृ.3)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

गुरु भक्‍ति
पाँच बलों में से एक भेद।
पाशुपत मत के अनुसार गुरु साधक के लिए पंचार्थ का उपदेष्‍टा होता है, अर्थात् उनके रहस्य का उपदेशक होता है। साधक अपने को मलों के कारण होने वाले तीव्र दुःखों का पात्र समझता है और उसे यह विश्‍वास होता है कि मेरा गुरु मुझे इन सभी कष्‍टों से पार ले जाकर वांछनीय लाभों का पात्र बना सकता है। साधक का गुरु के प्रति जो ऐसा भाव होता है, उसी को यहाँ गुरू भक्‍ति कहा जाता है। (ग.का.टी.पृ. 5)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

गुरुशुश्रूषा
पाशु योग के अनुसार यमों का एक प्रकार।
पाशुपत योग के अनुसार योगी के लिए गुरु-शुश्रूषा नामक यम का पालन करना आवश्यक होता है। क्योंकि उस योग में गुरु को अत्यधिक महत्‍ता प्रदान की गई है। गुरु के हर एक कृत्य का छाया की तरह अनुसरण करना ही गुरु शुश्रूषा होती है। जैसे-शिष्य गुरु से पहले ही निद्रा से जागे और गुरु के सोने के पश्‍चात् सोए। गुरु ने किसी कार्य के लिए नियोजित किया हो अथवा न किया हो, शिष्य उसके किसी भी कार्य को करने के लिए सदैव तत्पर रहे। अपना सर्वस्व अर्पण करने को तत्पर रहे और भस्म स्‍नान आदि क्रियाओं को करने में गुरु का अनुसरण छाया की भांति करे। शिष्य का नित्य आचार हो कि गुरु की सेवा में सदा प्रस्तुत रहकर यह विचार रखे कि यह कार्य कर लिया है, अमुक कार्य करूँगा और क्या क्या कार्य करना है। गुरु की दी हुई शिक्षा का आगे प्रचार करना भी गुरु शुश्रूषा होती है। ब्रह्मचर्य अवस्था के अवसानोपरांत गुरू का सम्मान व श्रद्‍धा ही ब्रह्मचर्य होता है। गुरू मोक्ष का ज्ञान करवाता है, योग का दर्शन करवाता है। अतएव गुरु पूजा शिव पूजा के समान श्रेयस्कर होती है। अतः जो गुरु को पूजता है मानो वह शिव को ही पूजता है। (पा.सू.कौ.भा.प. 27,28)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

गुहावासी
गुफा में निवास करने वाला।
पाशुपत योग में साधना के एक मध्यम स्तर पर पहुँचने पर पाशुपत साधक के निवास के लिए शून्य घर या गुहा का उपदेश दिया गया है, अर्थात् साधक को किसी पर्वत की गुफा में निवास करना होता है, ताकि वह निर्बाध रूप से संग आदि दोषों से पूर्णरूपेण मुक्‍त होकर साधना का अभ्यास कर सके। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 116)।
भासर्वज्ञ ने गुहा को देश का एक प्राकर माना है। साधक को साधना के तृतीय चरण में गुहा में निवास करना होता है। (ग.का.टी.पृ. 16)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

गूढ़ पवित्रवाणि
पवित्र वाणी का गोपन।
पाशुपत विधि के अनुसार साधक के लिए एक विधि होती है कि वह संस्कृत मंत्र, भजन रूपी पवित्र वाणी (जो वाणी पूजन आदि में प्रयुक्‍त होती है) को गुप्‍त रखे, क्योंकि सुंदर, संस्कृत व पवित्र वाणी को स्पष्‍टतया प्रकट करने पर साधक की विद्‍या का स्फुट प्रकाशन होगा और लोग उस साधक की विद्‍याबुद्‍धि की प्रशंसा करेंगे। प्रशंसा को पाशुपत शास्‍त्र में बंधकारक माना गया हे। क्योंकि प्रशंसा से आदमी में गर्व तथा अभिमान आता है, जिसके कारण उसमें पापों व दोषों का समावेश हो जाता है। अतः पाशुपत योग में बारंबार इस बात पर बल दिया गया है कि पाशुपत साधक प्रशंसा से दूर रहे। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 94,95)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

गूढ़विद्‍या
विद्‍या का गोपन।
पाशुपत योग में विद्‍या का संगोपन करना भी एक तरह की विधि है। वहाँ साधक को अर्जित ज्ञान को संगुप्‍त रखना होता है अर्थात् अर्जित ज्ञान का प्रकाशन नहीं करना होता है। विद्‍या को गुप्‍त रखने से वह तप: स्वरूप बन जाती है और अंतत: परम उद्‍देश्य की प्राप्‍ति करवाती है। बहि: प्रकाशन से विद्‍या क्षीण हो जाती है। (पा.सू.कौ.भा. पृ. 92)।
(पाशुपत शैव दर्शन)


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