ऐक्य अर्थात् जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त होकर जो व्यक्ति भक्तस्थल के साधक के द्वारा किये जाने वाले इष्टलिंग की पूजा, पंचाक्षरमंत्र का जप, पंचाचारों का पालन आदि नित्य-कर्मों को करता रहता है, उसे 'ऐक्य-भक्त' कहते हैं। शिव-स्वरूप का ज्ञान होने पर भी वह भक्त की क्रियाओं को इसलिये करता रहता है कि लोक में बड़े व्यक्तियों के आचरण को देखकर छोटे लोग उसका अनुकरण करते हैं। ज्ञानी स्वयं कृतकृत्य होने से इष्टलिंग की पूजा आदि को यदि छोड़ देता है, तो अज्ञानी लोग भी उसे देखकर पूजा आदि के अनुष्ठान का परित्याग कर सकते हैं। अतः अज्ञानियों के मार्गदर्शन के लिये ज्ञानी को भी धर्माचरण करना आवश्यक है और वीरशैव दर्शन में उसके लिये धर्माचरण करने का विधान भी है (सि.शि. 16/7-8 पृष्ठ 92)।
जीवन्मुक्त होकर भी कर्म करने से ज्ञानी को कोई हानि नहीं है। जैसे जल में खींची गयी रेखा जल में अंकित नहीं होती, अथवा जैसे दग्धबीज पुन: अंकुरित नहीं होता, उसी प्रकार ज्ञानी के द्वारा किये गये कर्म उसके जन्मातंर के कारण नहीं बन पाते (अ.वी.सा.सं. 27/19-23)। इस प्रकार लोक संग्रहार्थ नित्यकर्म आदि का अनुष्ठान करने वाले इस जीवन्मुक्त को 'ऐक्य भक्त' कहते हैं।