लकुलीश को ऐतिहासिक पाशुपत मत का संस्थापक माना जाता है और चन्द्रगुप्त द्वितीय के मथुरा शिलालेख के आधार पर इतिहासवेत्ताओं ने लकुलीश को द्वितीय शती में रखा है। वायुपुराण के तेइसवें अध्याय तथा लिंगपुराण के चौबीसवें अध्याय में उल्लेख आया है कि जब वासुदेव कृष्ण जन्मे तभी महेश्वर ने ब्रह्मचारी के रूप में लकुलिन नाम से कायावतार या कायावरोहण नामक स्थान के एक श्मशान में पड़े एक शव में प्रवेश करके अवतार लिया। यह कायावतरण या कायावरोहण वर्तमान काल का कारवन है जो बड़ौदा मण्डल के दुनाई तालुक में है। पाशुपत सूत्र के भाष्यकार कौडिन्य ने भी पञ्चार्थीभाष्य में इसका उल्लेख किया है। (पा. सू.कौ.भा.पृ. 3)। इसका विशेष वृतांत कारवणमाहात्म्य में आया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
लगुड़ीश
लगुड़ीश पाशुपत मत के संस्थापक लकुलीश का ही नामांतर है। लकुलीश को नकुलीश, लकुलिन्, लगुडीश, लकुटपाणि, लगुडपाणि तथा लकुलीश्वर नामों से भी अभिहित किया गया है। काश्मीर आगमों में इसे लाकुल भी कह गया है। ये सभी नाम लकुल, लकुट या लगुड शब्द से बने हैं, जिनका अर्थ 'दण्ड' है, क्योंकि अभिलेखों में महेश्वर के अवतार लकुलीश के हाथ में दण्ड लिए हुए उसे चित्रित किया गया है। उदयपुर के निकट नाथमंदिर में एकलिंगजी शिलालेख में (1000 शती) उल्लेख किया गया है कि भृगु के द्वारा महेश्वर के मानव अवतार को (जो हाथ में लगुड लिए हुए है) भृगुकच्छ में प्रसन्न किया जाता है। 'कारवणमाहात्म्य' में भी लकुलीश को लकुटपाणि कहा गया है। (कारवणमाहात्म्यम् पृ. 37 गणकारिका के परिशिष्ट में छपा हुआ है)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
लाभ
पाशुपत साधना से प्राप्त होने वाली विशेष उपलब्धियाँ।
पाशुपत साधक पाशुपत योग साधना के अभ्यास से जिन योग फलों को अथवा उपलब्धियों को प्राप्त करता है, उन्हें लाभ कहा जाता है। लाभ पंचविध माने गए हैं। वे हैं-ज्ञान, तप, नित्यत्व, स्थिति और सिद्धि। (ग.का.टी.पृ.4)। गणकारिका में जिन नौ गणों का नामोल्लेख किया गया है उनमें से एक गण लाभों का भी है। इस तरह से लाभ पाशुपत दर्शन के प्रतिपाद्य विषयों में गिनाए गए हैं।
(पाशुपत शैव दर्शन)
लिंग
चिह्न।
पाशुपत मत में भस्म पाशुपत साधक का लिंङ्ग अर्थात् पाशुपत योगी का चिह्न है जैसे-गृहस्थ, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ भिक्षु आदि के अपनी-अपनी अवस्था को व्यक्त करने वाले चिह्न होते हैं; उसी तरह से पाशुपत योगी के चिह्न भस्म स्नान, भस्मशयन, रूद्राक्ष, मालाधारण, एकवासा आदि हैं जो उसके पाशुपत योगी होने का संकेत देते हैं। इन चिह्नों को धारण करने से साधक ईश्वर में लीन होता है तथा औरों से अलग पहचाना जा सकता है। अतः ये लिंग कहलाते हैं। (लीयनाल्लिङ्ग नाच्च लिंगनम् पा.सू.कौ.भा.पृ. 12)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
लिंगधारी
चिह्न को धारण करने वाला।
हर धर्म के अपने-अपने कुछ चिह्न विशेष होते हैं, जिनसे यह पहचाना जाता है कि अमुक संन्यासी अमुख धर्म से संबंधित है। ये चिह्न भिन्न-भिन्न धर्मों में भिन्न-भिन्न होते हैं। पाशुपत धर्म में भस्मस्नान, भस्मशयन, अनुस्नान तथा निर्माल्यधारण पाशुपत योगी के चिह्न कहे गए हैं और इन चिह्नों को धारण करने वाला योगी लिङ्गधारी कहलाता है। पाशुपत साधना की प्रारंभिक भूमिकाओं में लिंगधारी बनना आवश्यक होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 12)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
वाग्विशुद्ध
ईश्वर का नामांतर।
पाशुपत मत के अनुसार ईश्वर के परस्वरूप का वर्णन वाणी से नहीं हो सकता है, वहाँ वाणी पूर्णरूपेण निवर्तित होती है। अतः वह वाग्विशुद्ध कहलाता है। तात्पर्य यह है कि वाणी का विषय बनने से जो प्रमेयतारूपिणी अशुद्धि सांसारिक भावों में आती है, परमेश्वर उस अशुद्धि से सर्वथा हीन है, अतः वाग्विशुद्ध कहलाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 127, ग.का.टी.पृ.11)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
वाम
ईश्वर का नामांतर।
पाशुपत मत में ईश्वर को श्रेष्ठ शक्ति संपन्न होने के कारण वाम कहा गया है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 56)। वाम शब्द का अर्थ सुंदर भी होता है। जैसे 'वामोरू' शब्द का अर्थ होता है सुंदर ऊरुओं वाली ललना। परमेश्वर परम आनन्दमय होने के कारण अतीव सुंदर अर्थात् हृद्य तथा स्पृहणीय है। अतः उसे वाम कहते हैं।
(पाशुपत शैव दर्शन)
वास
उपाय का एक भेद।
पाशुपत दर्शन में वास के कई अर्थ दिए गए हैं। भासर्वज्ञ के अनुसार इसका पहला अर्थ है-ग्रहण-अर्थात् शास्त्रवाक्यों के सम्यक् अर्थ को अच्छी तरह से समझना ग्रहण नामक वास होता है। उन शास्त्र सिद्धांतों को बड़ी देर तक अच्छी तरह से याद रखना धारण नामक वास होता है। उस समझे हुए ज्ञान का बाहर विविध स्थानों में अर्जित ज्ञान के साथ ठीक तरह से तालमेल बिठाना ऊह नाम वास होता है। अपने मत की दृढ़ प्रतिपत्ति के लिए दूसरे मत के दार्शनिक सिद्धांतों का खंडन करने की शक्ति अपोह को भी वास कहते हैं। जिस श्रुति की अनेकार्थक व्याख्या हुई हो, उसको वास्तविक रूप में समझने की शक्ति तथा अपने सिद्धांतों को दूसरे लोगों में प्रचार करने की क्षमता विज्ञान नामक वास होता है। पुनरुक्तिदोष से मुक्त तथा परस्पर व्याघातरहित भाषणशक्ति वचन नामक वास होता है। दोष रहित उच्चारण से गुरु को प्रसन्न रखना तथा उसकी परिचर्या करना क्रिया नामक वास होता है। शास्त्रीय सिद्धांतों के पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्ष दोनों के परस्पर शास्त्रार्थ का उचित पर्यालोचन करके फिर उचित अर्थ का अनुष्ठान करने का प्रयत्न यथान्यायामि निवेश नामक वास होता है। इस तरह से भासर्वज्ञ ने गणकारिका टीका में वास के कई अर्थ दिए हैं और सभी अर्थ प्राय: ज्ञान व शास्त्र को समुचित रूप से समझने के अर्थ में ही दिए गए हैं (ग.का.टी.पृ.17)। अतः वास को यहाँ पर निवास के अर्थ में कदापि नहीं लिया जाना चाहिए। यह एक तान्त्रिकी संज्ञा है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
विकरण धर्मित्व
सिद्ध योगी की एकशक्ति।
करणरहित होने पर भी ऐश्वर्यरूप ज्ञानशक्ति तथा क्रियाशक्ति की उपस्थिति विकरणधर्मित्व नामक शक्ति होती है। पाशुपात दर्शन के अनुसार सिद्ध साधक में ऐसी शक्ति उद्बुद्ध हो जाती है कि वह विकरण होने पर भी अर्थात् इन्द्रिय रहित होने पर भी अपार ऐश्वर्य का भोक्ता बनता है, उसे ऐश्वर्ययुक्त कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 45 ग.का.टी.पृ.10)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
विज्ञान
विशिष्ट ज्ञान।
पाशुपत साधक की विज्ञान शक्ति साधना के अभ्यास से जागृत हो जाती है। इस सिद्धि को प्राप्त कर लेने के अनन्तर साधक समस्त विज्ञेय को विशिष्ट रूप से जान लेता है। अर्थात् समस्त विज्ञेय का वास्तविक ज्ञान उसे हो जाता है। वह समस्त विषयों को उनके तात्विक स्वरूप में पहचानता है। अतः युक्त साधक या विज्ञाता को विज्ञेय का ज्ञान होना विज्ञानशक्ति कहलाता है। विज्ञान विशेषकर अनुभूति द्वारा वस्तुतत्व का साक्षात्कार रूप विशिष्ट ज्ञान होता है। सुनने और पढ़ने तथा सोचने से जो ज्ञान होता है, वह बौद्ध अध्यवसाय मात्र होता है। विशिष्ट ज्ञान योगज अनुभूति से ही होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.42)।