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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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शिव
ईश्‍वर का नामांतर।
पाशुपत मत के अनुसार ईश्‍वर सदा परिपूर्ण तथा आत्मतृप्‍त रहता है, तथा कल्याणकारी होता है, अतः शिव कहलाता है (पा.सू.कौ.भा.पृ.146; ग.का. टी. पृ. 12 ) । शिव की सृष्टि, संहार आदि ईश्वरीय कृत्यों को करने के लिए किसी सहकारी कारण की आवश्यकता नहीं रहती है। वह चाहे तो कर्म के नियम की भी अवहेलना करे। प्रकृति आदि उपादान कारण उसकी इच्छा के अनुसार ही परिणामशील बनते हैं। यह सारा ऐश्‍वर्य उसकी परिपूर्ण आत्मतृप्‍तता का आधार बनता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

शून्यागारवासी
शून्य गृह का निवासी।
पाशुपत योग में केवल क्रियाओं संबंधी विधि की ही व्याख्या नहीं की गई है अपितु युक्‍त साधक की जीवन वृत्‍ति आदि के बारे में भी कहा गया है। उसके अनुसार योगी के निवास स्थान के बारे में कहा गया है कि साधक को शून्य अर्थात् एकांत घर में निवास करना होता है, जहाँ वह सभी निर्दिष्‍ट कृत्यों का अभ्यास निर्बाध रूप से कर सके। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 116)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

श्रृंगारण
द्‍वार का एक प्रकार।
पाशुपत विधि की इस क्रिया में साधक को झूठमूठ ही किसी स्‍त्री समूह से कुछ दूरी पर खड़े होकर श्रृंगारिक भावों का प्रदर्शन करना होता है। (रूपयौवन-सम्पन्‍नां स्‍त्रियमवलोकयन् कामुकभिवात्मानं यैर्लिङ्ग: प्रदर्शयति तच्छृङ्गारणं) (ग.का.टी.पृ.19)। साधक की ऐसी कुचेष्‍टा देखकर लोग उसकी अमानना करेंगे परंतु साधक तो झूठमूठ श्रृंगारण का अभिनय मात्र कर रहा होगा। अतः लोगों की ऐसी अवमानना से उसके पापों का नाश होगा और पुण्य बढ़ेंगे। (पा.सू.कौ.भा.पृ.86)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

शौच
यमों का एक प्राकर।
पाशुपत योग में शौच तीन प्रकार का कहा गया है- गात्र शौच, भाव शौच तथा आत्म शौच। गात्र शौच में शरीर को भस्मस्‍नान से शुद्‍ध करना होता है। पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार संसर्गजन्य अथवा माता-पिता से ग्रहण किए हुए दोष, जिनका कारण खान-पान होता है, भस्म से जल जाते हैं। कीड़ों या केशों से अपवित्र बना हुआ भोजन भस्मस्पर्श से शुद्‍ध हो जाता है। महान पाप भस्मस्‍नान व भस्मशयन से कट जाते हैं। भस्मस्‍नान करने वाला अपनी इक्‍कीस पीढ़ियों को परमगति प्राप्‍त करवाता है। अतः भस्मशयन व भस्मस्‍नान के द्‍वारा गात्रशौच को पाशुपत विधि में बहुत महत्‍ता दी गई है।
भावशौच, दूसरे प्रकार का शौच मानसिक भावों का शौच होता है। गात्रशौच केवल शरीर की अशुद्‍धि को दूर करता है, बुद्‍धि की अशुद्‍धि तो बनी रहती है अतः भावशुद्‍धि के लिए सत्य, तप, इन्द्रिय-संयम सभी जीवों के प्रति दयाभाव आदि शौच हैं। पहले भावशौच होना आवश्यक है। तब कहीं गात्रशौच हो सकता है। जिस योगी की भावशुद्‍धि न हुई हो अर्थात् अशुद्‍ध मन व बुद्‍धि हो, उसको गात्रशौच होता ही नहीं है चाहे सहस्रों भस्मस्‍नान करे।
आत्मशौच, तीसरे प्रकार का शौच, अकलुषित मन अर्थात् विचारों की पवित्रता होती है। मूलत: योगी का मन पवित्र व शुद्‍ध होना चाहिए तब भावशौच और गात्रशौच हो सकते हैं। आत्मा की शुचिता ही वास्तविक शुचिता होती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 29,30)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

श्मशानवासी
श्मशान में रहने वाला।
पाशुपत योग के अनुसार योग के अंतिम स्तर पर पाशुपत साधक के निवास के लिए श्मशान निर्धारित किया गया है। युक्‍त साधक को श्मशान में किसी वृक्ष के मूल में रहना होता है ताकि उसकी योग क्रियाओं में बाह्य संसर्ग के कारण कोई बाधा न पड़े। इस स्तर तक पहुँचे हुए योगी ने जीवन के द्‍वन्द्‍वों (सुख, दुःख आदि) को जीत लिया होता है तथा उसका ध्यान पूर्णरूपेण रूद्र में ही लगा होता है। ऐसी अवस्था में और भी निःसंग रहने के लिए श्मशान में निवास का उपदेश दिया गया है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.132)।
भासर्वज्ञ ने श्मशान को देश का एक प्रकार माना है। पाशुपत साधक को साधना की चतुर्थावस्था में श्मशान में निवास करना होता है। (ग.का.टी.पु.17)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

श्रवणशक्‍ति
साधक की एक शक्‍ति।
पाशुपत साधक को केवल दर्शन शक्‍ति ही नहीं; श्रवणशक्‍ति भी प्राप्‍त होती है अर्थात् श्रवणशक्‍ति के जागृत होने पर सिद्‍ध साधक रूपी श्रोता समस्त श्रव्य का श्रवण कर लेता है; अर्थात् उसके लिए समस्त जगत् में कोई भी शब्द अश्‍नव्य नहीं रहता है, चाहे शब्द उसकी स्थूल कर्णेन्द्रिय से कितनी भी दूरी पर उत्पन्‍न हुआ हो। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 42)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

षडंगोपहार
छः अंगो वाला उपहार।
पाशुपत योग के अनुसार साधक को भगवान महादेव के चरणों में छः अंगों वाला उपहार अर्पण करना होता है। षडंगोपहार के छः अंग हसित, गीत, नृत्यु, डुंडुंकार, नमस्कार तथा जप हैं। (ग.का.टी.पृ. 19)। साधक शिव मंदिर में शिवमूर्त्‍ति अथवा शिवलिंग के सामने गाता है, नाचता है, खिलखिलाकर हँसता है, हुडक्‍कार सुनाता है, दण्डवत् प्रणाम करता है और शिव मंत्र का जप करता है। इस तरह से इन छः पूजा कार्यों की भेंट शिवजी को चढ़ाता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

संकरहानि
विशुद्‍धि का एक भेद।
पाशुपत योगी की समस्त वैषयिक आसक्‍ति का जब अत्यंत उच्छेद हो जाता है तो उसे सङ्करहानि नामक विशुद्‍धि की प्राप्‍ति होती है। सङ्करहानि विशुद्‍धि का तृतीय भेद है। (ग.का.टी.पृ.7)। सङ्कर से तात्पर्य है वैषयिक आसक्‍ति का मनोवृत्‍तियों में मिलकर रहना। सङ्कर एक विशेष प्रकार का मानस संसर्ग होता है। मुक्‍ति पाने के लिए इस संकर को सर्वथा धो डालने से योगी संकरहानि रूपिणी विशुद्‍धि का पात्र बन जाता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

सक्‍तिहेतु
मल का एक विशेष प्रकार।
भासर्वज्ञ के अनुसार भौतिक विषयों के प्रति आसक्‍ति से मनुष्य को जो सुख मिलता है तथा उस सुख से उसे जो अभिमान होता है, `कि मैंन अमुक कार्य किया या करूँगा, उससे मुझे अमुक प्रकार का आनन्द मिला या मिलेगा` इस प्रकार का उसका यह सुखाभिमान ही सक्‍ति हेतु नामक मल होता है। यह मल का तीसरा प्रकार है तथा बन्धन का एक कारण बनता है। इसीलिए इसे मलों के भीतर गिना गया है। (ग.का.टी.पृ.22)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

सत्य
यमों का एक प्रकार।
पाशुपत योग में सत्य नामक यम दो प्रकार का कहा गया है-परिदृष्‍ट भूतार्थ तथा वाक् सत्य। समस्त दृष्‍ट अर्थों को जिस रूप में देखा हो, उन्हें ठीक उसी रूप में प्रस्तुत करना परिदृष्‍ट भूतार्थ सत्य होता है। वाणी में सत्य अर्थात् जिस सत्य को कहने से किसी का भला हो सकता है। यदि वह उस रूप में न भी देखा गया हो परंतु आपदा में पड़े जीव की रक्षा के लिए झूठ को भी सत्य बनाकर बोलना पड़े, वह वाक् सत्य होता है क्योंकि कहा भी गया है -
सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्‍न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्। प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्म: सनातनः।।
अतः कभी-कभी भलाई के लिए बोला हुआ अनृत (झूठ) भी सत्य बन जाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.21,22)।
(पाशुपत शैव दर्शन)


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