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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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सादाख्य
परशिव जगत्-सृष्‍टि के लिए जब इच्छा करता है, तब वह स्वयं 'शिवतत्व' और 'शक्‍तितत्व' बन जाता है। ये दोनों मिलकर आगे उत्पन्‍न होने वाली चित् और अचित् सृष्‍टि के कारण बनते हैं। इन दोनों में से 'शक्‍ति' जब अपने ज्ञानांश से 'इदन्ता' का प्रथम स्फुरण करती है तब उसको 'सदाशिव-तत्व' कहते हैं। उसी सदाशिवतत्व को 'सादाख्य' शब्द से संबोधित किया गया है। (शि. मं. पृष्‍ठ 35)। यह सादाख्य सकल (साकार) कहलाता है। सादाख्य का जो सकल स्वरूप है उसका अनुभव सामान्य जनों को नहीं होता, किंतु योगी, ज्ञानी और मंत्रोपासना करने वाले उच्‍चकोटि के साधकों को पूजा, ध्यान आदि के निमित्‍त पर शिव अपनी शक्‍ति के सादाख्य का स्फुरण करता है (वा.शु.तं. 1/28-29; सू.आ. क्रियापद 1/23)।
इसी के माध्यम से साधक शुद्‍ध निष्कल परशिव में समरस होता है। यह 'शिव-सादाख्य', 'अमूर्त सादाख्य', 'मूर्त सादाख्य', 'कर्तृसादाख्य' और 'कर्मसादाख्य' के नाम से पाँच प्रकार का होता है। (वा.शु.तं. 1-30, 31)। इन पाँच सादाख्यों के पाँच पर्याय नाम हैं, जैसे शिव-सादाख्य का 'सदाशिव', अमूर्त सादाख्य का 'ईश', मूर्त सादाख्य का 'ब्रह्मा', कर्तृ-सादाख्य का 'ईश्‍वर' और कर्म सादाख्य का 'ईशान' (वा.शु.तं. 1/33-34; सू.आ. क्रियापद 1/24-26)।
क. शिव-सादाख्य
परशिव की जो पराशक्‍ति है, उसको 'शान्तयतीत कला' भी कहते हैं। उस पराशक्‍ति के दशमांश से शिवसादाख्य का प्रादुर्भाव होता है। पराशक्‍ति से उत्पन्‍न होने के कारण यह शुद्‍ध है। आकाश में स्फुरित विद्‍युत् के समान यह सर्वतोमुख और सूक्ष्म-ज्योतिस्वरूप है। यह विद्‍युत् वर्ण का है। सभी तत्वों के आलयभूत सदाशिव को 'शिव-सादाख्य' कहा गया है। (वा.शु.तं. 1/44-47; सू.आ.क्रियापाद 1/33)।
ख. अमूर्त सादाख्य
शांति-कला की पर्यायवाचक जो 'आदिशक्‍ति' है, उस आदिशक्‍ति के दशमांश से अमूर्त-सादाख्य का प्रादुर्भाव होता है। आदिशक्‍ति अमूर्त होने के कारण उससे उत्पन्‍न यह सादाख्य भी अमूर्त कहलाता है। कोटि सूर्य प्रकाश के समान इसका दिव्य तेज है और इसकी आकृति ज्योति के स्तंभ के समान है। प्रपंच की उत्पत्‍ति और विलय का स्थान होने के कारण इसको 'मूलस्तंभ' और 'दिव्यलिंग' भी कहा जाता है। इन लक्षणों से युक्‍त 'ईश' को ही 'अमूर्त सादाख्य' कहा गया है। (वा.शु.तं. 1/48-52; सू.आ.क्रियापाद. 1-34-35)।
ग. मूर्त सादाख्य
इच्छाशक्‍ति के, जो कि 'विद्‍याकला' भी कहलाती है, दशमांश से मूर्त-सादाख्य की सृष्‍टि होती है। इच्छाशक्‍ति के मूर्तस्वरूप वाली (सूक्ष्म साकार) होने से उससे उत्पन्‍न यह सादाख्य मूर्त कहलाता है। अग्‍नि की ज्वाला के समान इसकी आकृति होती है। इसके ऊर्ध्व भाग में एक मनोहर वक्‍त्र है, जिसमें तीन नेत्र विराजमान हैं। यह सभी अवयवों से संयुक्‍त है। इसकी चार भुजाएँ हैं। ये चारों हाथ कृष्ण-हरिण, परशु, वरद-मुद्रा और अभय-मुद्राओं से सुशोभित हैं। इस प्रकार सभी सुलक्षमों से संयुक्‍त 'ब्रह्मा' को मूर्त सादाख्य कहा जाता है (वा.शु.तं. 1/53-57; सू.आ. क्रियापाद 1/36-37)।
घ. कर्तृ-सादाख्य
प्रतिष्‍ठाकला की पर्यायवाचक जो ज्ञानशक्‍ति है, उसमें दशमांश से 'कर्तृ-सादाख्य' की उत्पत्‍ति होती है। ज्ञान शुद्‍धस्वरूप है, अतः उससे उत्पन्‍न यह कर्तृ-सादाख्य भी शुद्‍ध स्फटिक की प्रभा के समान प्रतीत होता है। यह भी साकार है। इसके चार शिर, चार मुख, बारह नेत्र, आठ कान, दो चरण और आठ हाथ हैं। इन आठ हाथों में से दाहिने चार हाथों में क्रमशः त्रिशूल, परशु, खड्‍ग और अभय-मुद्राएँ हैं। उसी प्रकार बाएँ चार हाथों में क्रमशः पाश, नाग, घंटा और वरद-मुद्राएँ हैं। इस प्रकार सभी अवयवों से युक्‍त, सर्व आभूषणों से अलंकृत जो 'ईश्‍वर' है, उसी को कर्तृ-सादाख्य कहते हैं (वा.शु.तु. 1/58-64; सू.आ. क्रियापाद 1/38-42)।
ड. कर्म-सादाख्य
क्रियाशक्‍ति के, जो कि निवृत्‍तिकला भी कहलाती है, दशमांश से कर्म-सादाख्य का उदय होता है। क्रिया को ही कर्म कहते हैं, अतः क्रियाशक्‍ति से उत्पन्‍न इस सादाख्य को कर्म-सादाख्य कहा गया है। सृष्‍टि और संहार का निमित्‍त कर्म ही होता है, अतः इन कर्मों के स्वामी को कर्म-सादाख्य कहते हैं। इसका स्वरूप इस प्रकार वर्णित है- इस सादाख्य के पाँच शिर, पाँच मुख हैं। प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र विराजमान हैं। इसकी दश भुजाएँ और दो पाद हैं, जो कि दोनों कमलों पर विराजित हैं। इसके दाहिने पाँच हाथों में क्रमशः त्रिशूल, परशु, खड्ग अभय मुद्रा और वज्रायुध हैं। बाएँ पाँच हाथों में क्रमशः नाग, पाश, अङ्कुश, घंटा तथा अग्‍नि हैं। इस सादाख्य के दस हाथों के दस प्रकार के चिह्न उसके दशविध उत्कृष्‍ट गुणों का या शक्‍तियों का द्‍योतन करते हैं, जैसे त्रिशूल से सत्व आदि त्रिगुणों का, परशु से शक्‍ति का, खड्‍ग से प्रताप का, वज्रायुध से दुर्भेद्‍य सामर्थ्य का तथा अभय-मुद्रा से अनुग्रह-शक्‍ति का द्‍योतन होता है। इसी प्रकार वाम भाग के हाथों में रहने वाले नाग से विधि अर्थात् आज्ञा शक्‍ति का, पाश से मायाशक्‍ति का, अङ्कुश से विवरण अर्थात् आवरणरहितत्व का (शिव के अपने स्वरूप का आवरण नहीं रहता है), घंटा से नादशक्‍ति का एवं अग्‍नि से संहार-सामर्थ्य का द्‍योतन होता है। इन दस प्रकार के उत्कृष्‍ट गुणों से युक्‍त तथा दिव्य गंध, दिव्यमाला, दिव्य वस्‍त्रों से अलंकृत जटा-मुकुट धारी, शांतस्वरूप के और मंद मुस्कान वाले 'ईशान' को ही कर्म-सादाख्य कहते हैं (वा.शु.तं. 1/65-107; सू.आ. क्रियापद 1/43-51)।
(वीरशैव दर्शन)

सुवर्ण-कुंडल-न्याय
सुवर्ण ही एक आकार-विशेष को प्राप्‍त होकर 'कुंडल', अर्थात् कान का आभरण-विशेष बन जाता है। यहाँ पर स्वर्ण के कुंडल के आकार में परिणत होने पर भी इसके मूल स्वरूप स्वर्ण में जैसे कोई विकार नहीं होता, किंतु कुंडलावस्था में भी वह पूर्ण स्वर्ण ही रहता है, उसी प्रकार वीरशैव दर्शन में शिव अपने मूल स्वरूप में कोई विकार अथवा स्वरूप की किसी हानि के बिना स्वस्वातंत्र्यशक्‍ति के बल से इस विश्‍व के रूप में परिणत हो जाता है। इसी को 'सुवर्ण-कुंडल-न्याय' कहा जाता है।
इस प्रकार वीरशैव दर्शन में प्रपंच मिथ्या नहीं है, किंतु शिव का ही परिणाम हने से शिवस्वरूप ही है और सत्य है। अतएव इस दर्शन को 'सर्वंलिङ्-गमयं जगत्' कहा गया है। वस्तुत: अद्‍वैत् वेदांत में जिसे 'विवर्त' कहा जाता है, जिससे कि स्वस्वरूप की हानि के बिना अन्यस्वरूप का आपादन होता है, उसी को वीरशैव दर्शन में 'अविकृत-परिणामवाद' कहते हैं और उसका 'सुवर्ण-कुंडल-न्याय' के दृष्‍टांत से प्रतिपादन करते हैं (श.वि.द. पृष्‍ठ 218)।
(वीरशैव दर्शन)

स्थल
वीरशैव सिद्‍धांत में परशिवब्रह्म को 'स्थल' नाम से जाना जाता जाता है। वह एक, अखंड और स्वप्रकाश वस्तु है, जिसका आदि और अंत नहीं है। यह सच्‍चिदानन्दस्वरूप विमर्श-शक्‍ति-विशिष्‍ट रहता है। सच्‍चिदानन्दस्वरूप का जो बोध है, वही विमर्शशक्‍ति कहलाती है। इस बोधरूप शक्‍ति के अभाव में शिव, स्वप्रकाश होने पर भी, रत्‍न आदि के समान जड़ हो जाता है, अतः इस दर्शन में परशिव को शक्‍ति-विशिष्‍ट माना गया है। 'यत्रादौस्थीयतेविश्‍वं अन्ते चलीयते तत् स्थलम्'-इस उक्‍ति के अनुसार सचराचर प्रपंच की उत्पत्‍ति, स्थिति तथा लय के कारणीभूत इस परशिव को 'स्थल' नाम से निर्देश करना सार्थक हो जाता है। स्थलरूपी इस परशिव को जब उपास्य और उपासक रूप से लीला करने की इच्छा उत्पन्‍न होती है, तब परशिव में, शांत समुद्र के वक्षस्थल पर विपुलाकार तरंगों के उठने के पहले क्षुद्र कंपन के समान स्पंद उत्पन्‍न होता है, जिसे विमर्शशक्‍ति का क्षोभ कहते हैं। उस क्षोभ से सामरस्य का विभेद होकर शक्‍ति-तारतम्य से 'अंगस्थल' और 'लिंगस्थल' भेद से स्थल-रूपी परशिव दो भागों में विभक्‍त हो जाता है। इनमें 'लिगस्थल' उपास्य शिव है और अंगस्थल उपासक जीव है (अनु.सू. 2/1-18; श.वि.द. पृष्‍ठ 177; वे.वी.चिं. उत्‍तरखंड 2/41-59)।
(वीरशैव दर्शन)

स्वय जंगम
देखिए 'अष्‍टावरण' शब्द के अंतर्गत 'जंगम'।
(वीरशैव दर्शन)

हस्त
सुचित्‍त, सुबुद्‍धि, निरहंकार, सुमन, सुज्ञान और सद्‍भाव इन छः प्रकार के शुद्‍ध अंतःकरणों को वीरशैव दर्शन में 'हस्त' कहा गया है। जैसे बाह्य वस्तुओं के स्पर्श के लिए तथा किसी कार्य को करने के लिए हाथ एक प्रधान माध्यम होता है। उसी प्रकार साधक अपने अंतरंग आत्मतत्व के स्पर्श, अर्थात् ज्ञान के लिए सुचित्त, सुबुद्‍धि आदि इन छः शुद्‍ध अंतःकरणों को माध्यम (साधन) बनाता है। अतः इन अंतःकरणों को 'हस्त' शब्द से संबोधित किया गया है। ये क्रमशः भक्‍त, महेश्‍वर आदि षट्‍स्थल के साधकों के हस्त माने जाते हैं। चित्‍त जब विषय का चिंतन छोड़कर शिव का चिंतन करने लगता है, तो उसे 'सुचित्त' कहते हैं। इसे भक्‍त-स्थल के साधक का हस्त माना जाता है, अर्थात् सुचित्त साधक ही भक्‍त कहलाता है। शिव के अस्तित्व को निश्‍चय करने वाली बुद्‍धि को 'सुबुद्‍धि' कहते हैं। इसे महेश्‍वर का हस्त माना गया है। इस सुबुद्‍धि के माध्यम से महेश्‍वर को शिव के अस्तित्व के संबंध में होने वाले संशय का निरसन हो जाता है। सर्वत्र 'अहं-अहं' इस भावना को त्यागकर 'सर्व शिवमयं' इस प्रकार की भावना को 'निरहंकार' कहते हैं। इसे प्रसादी का हस्त माना गया है। इस निरहंकार-हस्त के माध्यम से यह प्रसादि-स्थल का साधक सुख, दुःख आदि सभी अवस्थाओं में शिव के अनुग्रह का ही दर्शन करता है। चान्चल्यरहति मन को 'सुमन' कहा जाता है। यह प्राणलिंगी का हस्त है। इसी के माध्यम से यह साधक हृदय में ज्योतिस्वरूप से विराजमान 'प्राणलिंग' की अर्चना, अर्थात् ध्यान करता है। शिव-स्वरूप के ज्ञान को 'सुज्ञान' कहते हैं। यह शरण का हस्त माना गया है। इस सुज्ञान के माध्यम से साधक को शिव का साक्षात्कार होता है। 'मैं शिवस्वरूप हूँ' इस प्रकार की भावना को 'सद्‍भाव' कहते हैं। यह ऐक्यस्थल के के साधक का हस्त है, अर्थात् यह साधक 'शिवोടहं भावना' के माध्यम से निदिध्यासन करता हुआ स्वयं शिवस्वरूप हो जाता है। इस प्रकार ये शुद्‍ध अंतःकरण शिव की उपासना में साधन बनकर साधक को शिवस्वरूप बनाने में सहायक होते हैं, अतः इन्हें हस्त कहा गया है (अनु.सू. 7/45-50)।
(वीरशैव दर्शन)


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