पाशुपत मत के अनुसार विद्या जीव का एक गुण है। विद्या दो तरह की कही गई है- बोधात्मिका (ज्ञानरूपा) अबोधात्मिका (अज्ञानरूपा) बोधात्मिका विद्या भी दो तरह की होती है- विवेकप्रवृत्ति तथा अविवेकप्रवृत्ति। विवेकप्रवृत्ति चित्त कहलाती है क्योंकि चित्त के द्वारा ही सभी प्राणियों का विषयज्ञान या विवेकप्रवृत्ति होती है। पशु (बद्धजीव) के धर्म और अधर्मसंबंधी विद्या अबोधात्मिका विद्या होती है। (सर्वदर्शन संग्रह प. 168)।
इस विविध विद्या के द्वारा ही जीव की उत्पत्ति, स्थिति व तिरोभाव होते हैं और अन्तत: इसी विद्या के द्वारा दुःखांत की ओर गति होने लगती है। आगे बोधात्मिका विद्या के द्वारा पुरुष योग साधना में प्रवृत्त होकर दुःखांत प्राप्ति के लिए यत्न करता है तथा अबोधात्मिका विद्या के द्वारा सांसारिक विषयों के प्रति प्रवृत्त होता हुआ सृष्टिकृत्य में बंध जाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.14)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
विधि
साधना पद्धति।
पाशुपत योग के अनुसार विधि का एक अपना निश्चित तथा महत्वपूर्ण स्थान है। विधि के अभ्यास के बिना पर तत्व के साथ ऐकात्म्य संभव नहीं है। विधि के अंतर्गत कुछ ऐसी क्रियाएँ आती हैं जिनका पालन करने से पशु (जीव) मुक्ति की ओर अग्रसर होता है। विधि दो प्रकार की कही गई है- मुख्य विधि तथा गौण विधि। मुख्य विधि भी दो प्राकर की कही गई है- व्रत तथा द्वार। भस्मस्नान, भस्मशयन, उपहार या नियम (जिसमें ह्रसित, गीत, नृत्य आदि विविध क्रियाएँ आती हैं) आदि व्रत कहलाते हैं। क्राथन, स्पन्दन, मन्दन, श्रृंगारण, अपितत्करण, अपितद्भाषण आदि क्रियाएँ द्वार कहलाती हैं, जो पूर्ववर्णित व्रतों के द्वार स्वरुप हैं अर्थात् उन व्रतों के उत्कृष्टतर अनुष्ठान के लिए संन्यासी को योग्य बनाती है।
गौण विधि में अनुस्नान आदि योग क्रियाएँ आती हैं। (पा.सू.कौ.भा; ग. का.टी.पृ.12)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
विप्र
ईश्वर का नामांतर।
पाशुपत शास्त्र में ईश्वर को स्वतंत्र ज्ञानशक्ति संपन्न होने के कारण विप्र नाम से अभिहित किया गया है (पा.सू.कौ.भा.पृ.127; ग.का.टी.पृ.11)। धर्मशास्त्र में भी वेदाध्ययन आदि से प्राप्त ज्ञान ही ब्राह्मण को विप्र पद के योग्य बनाता है। परमेश्वर का ज्ञान तो उससे भी बढ़चढ़कर है, क्योंकि स्वतंत्र है और स्वाभाविक है तथा साधनों से साध्य नहीं है। अतः परमेश्वर का नाम भी विप्र है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
विशुद्धियाँ
शुद्धियाँ।
पाशुपत साधक में साधना के अभ्यास के उपरांत मिथ्याज्ञान व अज्ञान आदि का पूर्णत: शोधन होना विशुद्धि कहलाता है। विशुद्धि पाँच प्रकार की कही गई है-अज्ञानहानि, अधर्महानि, सङ्करहानि, च्युतिहानि तथा पशुत्वहानि। (ग.क.4)। गणकारिका में गिनाए गए नौ गणों में से एक गण विशुद्धियों का भी है। इस तरह से विशुद्धियाँ पाशुपत दर्शन के प्रतिपाद्य विषयों में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
(पाशुपत शैव दर्शन)
वीतशोक
मुक्त जीव का लक्षण।
यहाँ पर शोक का तात्पर्य चिन्तन से है। पाशुपत मत में मुक्त जीव अच्छे बुरे सभी चिन्तन, अध्ययन, ध्यान, स्मरण, अनध्ययन, अध्यान तथा अस्मरण से रहित हो जाता है। जब साधक निर्विकल्प अवस्था में ठहर जाता है और उसके मन में किसी भी तरह का विचार नहीं आता है, 'कि मैं जप करूँ या न करूँ' आदि ऐसे चिन्तनों से मुक्ति प्राप्त करने पर वह आत्मा वीतशोक कहलाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.140)।
गणकारिका में भी कहा गया है कि समस्त चिन्ताओं से मुक्ति वीतशोकत्व कहलाती है (समस्तचिन्ता रहितत्व वीतशोकत्वम्-ग.का.टी.पृ.16)। यह योग की एक उत्कृष्टतर अवस्था होती है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
वृत्ति
जीवन निर्वाह का साधन।
पाशुपत साधक के भोजन अर्जन करने के उपाय वृत्तियाँ कहलाती हैं तथा त्रिविध होती हैं- भैक्ष्य, उत्सृष्ट तथा यथोपलब्ध। (ग.का.श.)। पाशुपत साधक जीवन निर्वाह के लिए किसी भी व्यवसाय को ग्रहण नहीं कर सकता है।
धनोपार्जन के समस्त उपायों कों छोड़कर जिन भिक्षा आदि के द्वारा वह अन्नप्राप्ति आदि करता है वे भिक्षा आदि उसकी वृत्तियाँ कहलाती हैं। वृत्तियों को गणकारिका में पाशुपत दर्शन के मुख्यतया प्रतिपाद्य विषयों में गिना गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
व्यक्ताचार
स्पष्ट आचरण वाला।
पाशुपत विधि के विधान में बारंबार कहा गया है कि पाशुपत साधक के अच्छे अच्छे साधना संबंधी कार्य गूढ़ होने चाहिए, तथा सबके समक्ष उसे ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि जिसको देखकर सभी उसकी निन्दा करें, अपमान करें। पाशुपत मत के अनुसार ऐसे में जो उसका अपमान करेगा, उसके सभी गुण तथा पुण्य पाशुपत साधक में संक्रमित होंगे और बदले में सधक के बचे खुचे दोष तथा पाप उस निंदक को जाएँगें।
यहाँ पर 'व्यक्त' से स्फुट अथवा दिन का अर्थ लिया गया है और 'चार' से क्राथन अर्थात् व्यक्ताचार का अर्थ 'दिन में ही ऊँघना' लिया गया है। पाशुपत साधक के लिए एक विधि यह है कि वह दिन के प्रकाश में अर्थात् सबके समक्ष ही ऊँघता रहे जबकि वास्तव में वह जाग रहा हो। अतः ऊँघने का अभिनय करे। लोग उसके इस तरह के व्यवाहर से उसका अपमान व निन्दा करेंगें जिससे उसके पाप नष्ट हो जाएंगे। (पा.सू.कौ.भा.पृ.78)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
व्यक्तावस्था
अवस्था का प्रथम प्रकार।
पाशुपत सादक की प्रातिपदावस्था अथवा प्रथमावस्था व्यक्तावस्था कहलाती है। क्योंकि योग साधना के आरंभ में साधक प्रत्यक्ष रूप में सबके सामने ही भस्मस्नान, भस्मशयन, अनुस्नान, लिंगधारण आदि पाशुपत धर्म के चिह्नों को धारण करता है और पाशुपत साधना का अभ्यास स्पष्ट रूपता से करता है। अतः सभी चिह्नों के स्पष्ट होने के कारण यह अवस्था व्यक्तावस्था कहलाती है। (ग.का.टी.पृ.8)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
शंकर
ईश्वर का नामांतर।
पाशुपत मत में ईश्वर को शंकर भी कहा गया है क्योंकि वह सभी कल्याणों को करने वाला होता है तथा निर्वाण या मुक्ति को देने वाला होता है अतः शंकर कहलाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.71)।
(शमसुखनिर्वाणकरत्वम् शंकरत्वम् ग.का.टी.पृ.11) शं पद का अर्थ कल्याण होता है। भगवान शिव ही अनुग्रहशक्ति के द्वारा पशुओं का कल्याण करते हैं।
(पाशुपत शैव दर्शन)
शर्व
ईश्वर का नामांतर।
विद्यादि कार्य का एकमात्र कारणभूत होने के कारण ईश्वर उसका शरणस्थल है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.90)। व्याकरण में शर्व धातु को हिंसार्थक माना गया है, परंतु कौडिन्य ने शरण देने के अर्थ में इसकी व्याख्या की है। भगवान शिव अनुग्रह के द्वारा साधकों को विद्या आदि प्रदान करते हुए उन्हें शरण देते हैं, अतः वे शर्व कहलाते हैं।