पाशुपत मत के अनुसार युक्त साधक की परिपूर्ण समस्थिति का एक लक्षण मैत्र है। (परसमता मैत्रत्वम्-ग.का.टी.पृ.16) जिस साधक का चित्त महेश्वर पर ध्यानस्थ हो, जो समस्त भूतों को आत्मरूप समझता हो, इच्छा, द्वेष, तथा प्रवृत्ति (कुछ भी कार्य करने की इच्छा) से पूर्णरूपेण निवृत्त हुआ हो, वह साधक मैत्र कहलाता है। अर्थात् जब साधक पूर्ण समरसता को या समदृष्टि को प्राप्त करता है तब वह समस्त जगत के प्रति मित्रवत् बनकर रहता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.112)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
यथालब्ध
वृत्ति का भेद।
पाशुपत योग विधि के अनुसार साधक की जीविका की तृतीय प्रकार की वृत्ति यथालब्ध होती है। जब साधक को श्मशान में निवास करते हुए एक दिन में या कई एक दिनों में जो भी अन्न बिना मांगे अपने आपही मिले, उसी यथालब्ध अन्न से उसे जीविका का निर्वाह करना होता है। इस वृत्ति का पालन साधना के ऊँचे स्तर पर किया जाता है। अन्न कई दिन न मिलने पर उसे जलपान पर निर्वाह करना होता है, परंतु श्मशान से बाहर जाकर भिक्षा नहीं करनी होती है। (ग.का.टी.पृ.5)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
योग
जीव और ईश्वर का संयोग।
पाशुपत शास्त्र के अनुसार आत्मा का परमात्मा से संयोग ही योग होता है। (अत्रात्मेश्वर संयोगो योग : पा.सू.कौ.भा.पृ.6)। यह संयोग दो प्रकार का कहा गया है। एक तो श्येन का स्थाणु से जैसे संयोग होता है, वहाँ श्येन ही संयोग के लिए चेतनोचित कार्य करता है। स्थाणु तो जड़ होता है। उसी प्रकार से श्येन की तरह जीवात्मा अध्ययन, मनन, साधना आदि करके परमात्मा के साथ संयोग प्राप्त कर लेता है अर्थात् परमात्मा की ओर से कोई प्रयत्न नहीं होता है। समस्त प्रयत्न केवल जीवात्मा का ही होता है।
दूसरे प्रकार का संयोग दोनों परमात्मा व जीवात्मा के प्रयत्न से होता है। जैसे दो भेड़ों का संयोग उन दोनों के प्रयत्नों से होता है, उसी तरह जीवात्मा के पक्ष में उसका अध्ययन, मनन आदि प्रयत्न रहता है तथा परमात्मा का प्रयत्न जीवात्मा को शक्तिपात के रूप में मुक्ति के प्रति प्रेरित करना होता है अर्थात् जीवात्मा तभी अध्ययन, मनन रूप यत्न करता है जब परमात्मा का प्रयत्न (शक्तिपात्) कार्य कर चुका हो। इस प्रकार से संयोग जीवात्मा तथा परमात्मा दोनों के प्रयत्न का फल होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.6)।
गणकारिका टीका में भी योग का लक्षण दिया गया है। उसके अनुसार पुरुष के चित्त द्वारा ईश्वर के साथ संयोग ही योग होता है। (चित्तद्वारेणेश्वर संबंधः पुरुषस्य योगः ग.का.टी.पृ. 14)। वह योग दो प्रकार का होता है- क्रियालक्षण योग तथा क्रियोपरमलक्षण योग। क्रियालक्षणयोग में जप, धारण, ध्यान, स्मरण आदि क्रियाएँ होती हैं तथा क्रियोपरमलक्षण योग में समस्त साधना रूपी क्रियाओं का उपरम हो जाता है तथा समाधि आदि सभी योग साधनों के शांत हो जाने पर साधक अतिगति अर्थात् शिवसायुज्य को प्राप्त करता है। (ग.का.टी.पृ. 15)। पाशुपत दर्शन के अनुसार योग अकलुषमति तथा प्रत्याहारी साधक को ही सिद्ध होता है। (ग.का.टी.पृ. 15)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
योगित्व
योगी की स्थिति।
रुद्रतत्व अर्थात् परमात्मतत्व पर ही चित्त की स्थिति योगित्व होती है। योगित्व युक्त साधक का लक्षण होता है जिस दशा पर पहुँचकर साधक बाह्य क्रिया-कलाप से असंपृक्त रहता है। (ग.का.टी.पु. 16; पा.सू.कौ.भा.पृ.110)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
योगी
जिस साधक की आत्मा का संयोग परमात्मा से हुआ हो वह योगी कहलाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.110)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
रुद्र
ईश्वर का नामांतर।
पाशुपतसूत्र के कौडिन्यभाष्य के अनुसार ईश्वर इस उत्पन्न जगत को भयमुक्त कर देता है अतः रुद्र कहलाता है। रुद्र शब्द 'रूत' (भय) तथा 'द्रावण' (संयोजन) शब्दों से बना है। अतः जो इस स्थूल जगत में विचित्र भयों का संयोजन करता है, उसे रुद्र नाम से अभिहित किया गया है। सांसारिक भय की सृष्टि भी तो रुद्र ही करता है। वैसे द्रावण का अर्थ विनाश करना भी होता है। रुद्र साधकों को भयमुक्त करता हुआ उनके भय को नष्ट कर देता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.57)।
भासर्वज्ञ ने रूद्र को देश का एक प्रकार भी माना है। पाशुपत साधक का साधना की अन्तिम पंचमावस्था में रूद्र में निवास होता है। अर्थात् योग की पर दशा में इस स्थूल शरीर के छूट जाने पर योगी का रुद्र के साथ ऐकात्म्य होता है। अतः रूद्र ही उसका देश होता है। (ग.का.टी.पृ. 17)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
रुद्रसामीप्य
रुद्र की समीपता।
पाशुपत दर्शन के अनुसार जीवन का एक परम लक्ष्य रुद्र की समीपता प्राप्त करना है और पाशुपत साधक को विविध प्रकार की विधियों का आचरण करते हुए रुद्र सामीप्य अर्थात् रुद्र की सन्निधि प्राप्त करनी होती है। यह मोक्ष की एक दशा होती है। इस सामीप्यमोक्ष से उत्कृष्टतर दशा सायुज्यमोक्ष की होती है। सामीप्य मोक्ष में युक्त साधक परमेश्वर की सन्निधि का अनुभव प्रतिक्षण करता रहता है और उससे उसे अपूर्व आनन्द की अनुभूति हुआ करती है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
रुद्रसायुज्य
मुक्ति की एक ऊँची अवस्था।
पाशुपत दर्शन में मुक्ति का परमस्वरूप रुद्रसायुज्य है। जहाँ जीवात्मा परमात्मा में तन्मय हो जाता है। जीवात्मा का रूद्र के साथ साक्षात् योग हो जाता है। परंतु जीवात्मा का पूर्ण विलोप नहीं होता है। वह अपनी सत्ता को बनाए रखते हुए अपने आपको रुद्र से अभिन्न मानता है। यह भेदाभेद की उत्कृष्ट अवस्था होती है। पाशुपत मत में मुक्त आत्मा रूद्र के साथ ऐकात्म्य प्राप्त करने के बाद भी अपनी व्यक्तिगत सत्ता को बनाए रखता है। क्योंकि पाशुपत मत में मोक्ष केवल ऐसा दुःखांत नहीं है जहाँ केवल दुःखों की निवृत्ति हो या जहाँ पर जीवात्मा की सत्ता ही विलुप्त हो जाए, अपितु दुःखांत के उपरांत मुक्तात्मा में सिद्धियों का समावेश हो जाता है, वह शिवतुल्य बन जाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 131)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
रुद्रस्मृति
रुद्र का बारम्बार स्मरण करना।
पाशुपत योग के अनुसार साधक को सदा अर्थात् बिना किसी बाधा के रुद्र (परमकारणभूत ईश्वर) का स्मरण करना होता है, जिससे वह रुद्र सामीप्य, रुद्रसायुज्य आदि की प्राप्ति कर लेता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.122)। सदारुद्रस्मृति पाशुपत साधना के उपायों का एक प्रकार है। यह रुद्रस्मृति पाशुपत योग का एक मुख्य प्रकार होता है। (ग.का.टी.पृ.21)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
रौद्री
जप में उपयुक्त होने वाली रुद्र संबंधी ऋचा रौद्री कहलाती है। यह मंत्र जप रुद्र-सान्निध्य की प्राप्ति कर लेने में सहायक बनता है। इस जप में रुद्र का ध्यान किया जाता है। अतः जप की यह ऋचा रौद्री कहलाती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 39,124)। इस ऋचा का छंद गायत्र होता है। अतः इसे रौद्री गायत्री कहते हैं। वह रौद्री गायत्री यह है-