logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

Please click here to read PDF file Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

मनोजवित्व
कार्यसंपादन में अतीव त्वरितता।
पाशुपत दर्शन के अनुसार सिद्‍ध साधक में उद्‍बुद्‍ध क्रियाशक्‍ति का एक प्रकार मनोजवित्व है। साधक में जब ज्ञानशक्‍ति और क्रियाशक्‍ति उद्‍बुद्‍ध होती हैं तो उसकी इच्छाशक्‍ति इतनी सफल तथा स्वतंत्र हो जाती है कि वह जैसे ही मन में किसी कार्य के फलीभूत होने की इच्छा करता है, वह कार्य तुरंत विचार आते-आते ही फलीभूत होता है। ज्यों ही उसे किसी कार्य को करने की इच्छामात्र होती है, वह कार्य उसी क्षण हो जाता है। (निरतिशय शीघ्रकारित्व मनोजवित्वम्-ग.का.टी.पृ.10, पा.सू.कौ.भा.पृ.44)।)
(पाशुपत शैव दर्शन)

मनोടमन
ईश्‍वर का नामांतर।
पाशुपत दर्शन में ईश्‍वर को मनोमन नाम से अभिहित किया गया है। सकल (कलाओं सहित) तथा निष्कल (कलाओं रहित) दोनों ही अवस्थाओं में शक्‍तिमान होने के कारण ईश्‍वर को मनोടमन कहा गया है। मन से यहाँ पर अन्तःकरण से तात्पर्य है। पाशुपत दर्शन के अनुसार ईश्‍वर विश्‍वोत्‍तीर्ण तथा विश्‍वमय है। जब वह विश्‍वमय होकर रहता है तो सकल होने के कारण मन (अंतःकरणों) से संपृक्‍त रहने के कारण 'मन' कहलाता है। परंतु दूसरे पक्ष में जब वह विश्‍वोत्‍तीर्ण होकर कलाओं से रहित होने पर 'मन' से असंपृक्‍त रहता है तो 'अमन' कहलता है। तथा इन दोनों पक्षों में समान रूप से रहने के कारण मनोടमन कहलाता है। (पा.सू.कौ.भाऋ पृ. 76)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

मल
अशुद्‍धि।
पाशुपत साधक आत्मा के जिन भावों का क्षय करने के लिए साधना, जप व तप करता है, वे मल कहलाते हैं (ग.का.टी.पृ.4)। मल पाँच प्रकार के होते हैं- मिथ्याज्ञान, अधर्म, सक्‍ति हेतु, च्युति तथा पशुत्व (ग.का.8)। मलों के कारण पशु संसृति के बंधन में पड़ा रहता है। अतः मुक्‍ति को पाने के लिए मलों को धो डालना परम आवश्यक होता है। इसीलिए मलों को भी गणकारिका में शास्‍त्र के प्रतिपाद्‍य विषयों में गिना गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

महत्
ईश्‍वर का नामांतर।
पाशुपत मत में ईश्‍वर के स्वतंत्र ज्ञानशक्‍ति व क्रियाशक्‍ति संपन्‍न होने के कारण तथा समस्त पशुओं से उत्कृष्‍ट होने पर उसे महत् कहते हैं। पशु, पक्षी, मानव आदि की अपेक्षा देवगणों में बढ़चढ़कर ज्ञान और क्रिया की शक्‍तियाँ होती हैं। उनसे भी अधिक शक्‍तिमान ब्रह्मा, विष्णु आदि होते हैं। परंतु सभी शक्‍तिमानों की शक्‍तियों से बहुत बड़ी शक्‍तियाँ परमेश्‍वर में ही होती हैं। अतः उसे महान् (महत्) कहा जाता है। (फ.सू.कौ.भा.पृ. 127; ग.का.टी.पृ.11)
(पाशुपत शैव दर्शन)

महत्व
पाशुपत साधक का लक्षण।
पाशुपत मत में युक्‍त साधक नाना सिद्‍धियों की प्राप्‍ति से बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्‍त कर लेता है, क्योंकि उसमें और सभी जीवों से अधिक ऐश्वर्य होता है (सर्वपशुम्योടभ्यधिकत्वमैश्‍वपर्याति-शयान्ममहतवम्-ग.का.टी.पृ.10)। साधक के इस महत्व के निरुपण से पाशुपत योग के महत्व पर भी प्रकाश पड़ता है। पातंजल योग से केवल दुःखनिवृत्‍ति हो जाती है परंतु पाशुपत योग से परम ऐश्‍वर्य भी प्राप्‍त हो जाता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

महादेव
ईश्‍वर का नामांतर।
पाशुपत मत में ईश्‍वर का एक नामांतर महादेव आया है। ईश्‍वर के अति उत्कृष्‍ट ज्ञानशक्‍ति संपन्‍न होने के कारण उन्हें महादेव कहा गया है। देव शब्द का अर्थ क्रीडनशील, जयशील, प्रकाशनशील आदि होता है। ये गुण इन्द्र आदि सभी देवगणों में होते हैं। उनसे भी बढ़चढ़कर ब्रह्‍मा, विष्णु आदि पाँच कारणों में होते हैं। परंतु सबसे उत्कृष्‍ट जो देवत्व है वह एकमात्र परमेश्‍वर में ही होता है। इस कारण उसको महादेव कहते हैं। (पा.सू.कौ.भा.पृ.14)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

महाव्रत
पाशुपत शास्‍त्र में पाशुपत योगविधि का अनुसरण करना महाव्रत अथवा पाशुपत व्रत कहलाता है। पाशुपतसूत्र के चतुर्थ अध्याय में महाव्रत पाशुपत योगी के आचार मार्ग के रूप में प्रतिपादित हुआ है जहाँ साधक को अर्जित विद्‍या, व्रत, संस्कृत व पवित्र वाणी को गूढ़ (गुप्‍त) रखना होता है। इसके विपरीत उन्मत्‍त, अज्ञानी, मूढ़, दुराचारी आदि की तरह आचरण करना होता है, ताकि लोग उसके वास्तविक, पवित्र व सुसंस्कृत रूप से अपरिचित होने के कारण उसके बाह्य आचार को देखकर उसकी निंदा व अपमान करें।
पाशुपत सूत्र के कौडिन्य भाष्य में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि लोगों के द्‍वारा निन्दित होते रहने से साधक के समस्त पाप, निन्दा करने वाले लोगों को लगेंगे तथा उनके पुण्य साधक को लगेंगे। परंतु इस तरह के निन्द्यमान आचरण का वास्तविक तात्पर्य साधक की त्यागवृत्‍ति को बढ़ाना है। अर्थात् जब साधक वास्तव में सदाचारी व ज्ञानी होते हुए भी दुराचारी व अज्ञानी मूढ़ की तरह आचरण करेगा तो लोग उसके वास्तविक स्वरुप से अनभिज्ञ रहकर अपमान व निन्दा करेंगे। उस अपमान से साधक का चित्‍त सांसारिक मोह माया से पूर्णतः निवृत्‍त हो जाएगा और सदा रुद्र में ही संसक्‍त रहेगा। यदि साधक का वास्तविक सभ्य व पवित्र आचार लोक में प्रकट हो तो लोग उसकी प्रशंसा करेंगें। प्रशंसा से अहंकार बढ़ता है और अहंकार से चित्‍त मलिन हो जाता है और परिणामतः ईश्‍वर में चित्‍त का योग नहीं होता। प्रशंसा को पाशुपत सूत्र कौडिन्यभाष्य में विष की तरह हानिकारक कहा गया है। इस तरह से पाशुपत साधक को महाव्रत का पालन करना होता है। अथर्वशिरस उपनिषद में भी पाशुपत व्रत का उल्लेख हुआ है। परंतु वहाँ मन्दन, क्राथन, श्रृंगारण आदि साधनाओं का कई उल्लेख नहीं आया है। इन सभी विशेष साधनाओं का आधार पाशुपत सूत्र ही है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

महेश्‍वर
ईश्‍वर का नामांतर।
पाशुपत मत में ईश्‍वर को महेश्‍वर नाम से ही अभिहित किया गया है। ईश्‍वर महान् ऐश्‍वर्यशाली होता है अतः महेश्‍वर कहलाता है। ऐश्‍वर्य उसका स्वाभाविक धर्म है। सभी देवताओं का ऐश्‍वर्य उसी के ऐश्‍वर्य पर निर्भर रहता है। देवगण कर्म सिद्‍धांत के अधीन हैं। परंतु पशुपति स्वतंत्र है वह कर्म सिद्‍धांत का अतिक्रमण करके एक मलिन पशु को भी तीव्र अनुग्रह द्‍वारा मुक्‍ति के उत्कृष्‍ट सोपान पर चढ़ा सकता है। उसके ऐश्‍वर्य की तुलना मुक्‍तजीवों के ऐश्‍वर्य के साथ नहीं की जा सकती है। वे शिवतुल्य बन तो जाते हैं परंतु एकमात्र शिव ही परमेश्‍वर बना रहता है। तभी वह महेश्‍वर कहलाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.128, ग.का.टी.पृ. 11)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

मिथ्याज्ञान
मल का एक प्रकार।
भासर्वज्ञ के अनुसार मिथ्याज्ञान एक मल है। मिथ्याज्ञान वास्तविक ज्ञान न होकर ज्ञान का आभास मात्र होता है। संशय तथा विपर्यय इसके लक्षण हैं। मिथ्याज्ञान अयथार्थ ज्ञान होता है। इसमें संशय और कालुष्य के बीज होते हैं। अतः वह भ्रामक होता है और इसीलिए मिथ्याज्ञान (झूठा ज्ञान) कहलाता है। मिथ्याज्ञान ही पशु को इस संसृति के चक्‍कर में टिकाए रखता है। मुक्‍ति तभी होती है जब यथार्थ ज्ञान के उदय के साथ ही साथ इस मिथ्याज्ञान का नाश हो जाए। (ग.का.टी.पृ.22)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

मूर्ति
पाशुपत विधि में दीक्षा का एक अंग।
दीक्षा के समय महादेव के लिङ्ग विशेष की उचित स्थिति, में, उचित दिशा में स्थापना मूर्ति कहलाती है। उपास्य रूप में लिंग या शिवमूर्ति कहलाती है। उपास्य रूप में लिंग या शिवमूर्ति की स्थापना की जाती और दीक्षित साधक उसकी पूजा विधिपूर्वक करता है। उस मूर्ति के समीपस्थ दक्षिणभाग का नाम भी मूर्ति है। (ग.का.टी.पृ.9)
(पाशुपत शैव दर्शन)


logo