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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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पाशुपत लकुलीश
प्रागैतिहासिक काल से प्रचलित पाशुपत शैव धर्म को वैदिक आर्यों के धर्म के साथ एकीकरण हो जाने के उपरांत तथा रामायण महाभारत के समय तक पूर्णरूपेण एक लोकधर्म बनने के उपरांत कालांतर में पाशुपत मत का एक अभिनव आविर्भाव हुआ तथा इस युग में इस मत के ऐतिहासिक संस्थापक का नाम लकुलीश अथवा लगुलीश है जिसके आविर्भाव का काल दूसरी शती का आरंभ माना जाता है। पुराण साहित्य से हमें ज्ञात होता है कि लकुलिन् अथवा नकुलिन् ने लोगों में पाशुपत अथवा माहेश्‍वर योग का प्रचार किया। (वायुपुराण 23-217-21; लिङ्गपुराण 2-24)। इस नकुलिन् को भगवान शिव का अवतार माना गया है। (लिङ्गपुराम 124-32)। परंतु इस लकुलीश का समय पूरी तरह निश्‍चित नहीं है कि कब हुआ था? कुछ विद्‍वानों ने इसको पतंजलि के समय 200 ई.पू. में रखा है तथा कई विद्‍वानों ने चन्द्रगुप्‍त द्‍वितीय के मथुरा शिलालेख के आधार पर ईसा की दूसरी शती में रखा है। राजस्थान, गुजरात, काठियावाड़ उड़ीसा आदि कई स्थानों में मिले कई शिलालेखों में नकुलीश की मूर्ति खुदी हुई मिली है। तेरहवीं शती के श्रृंगारदेव चित्र प्रशस्ति में भी लकुलिन् का पाशुपत संप्रदाय के संस्थापक के रूप में तथा उसके चार पुत्रों अथवा चार शिष्यों का उल्लेख हुआ है। चीनी यात्री ह्यूनसांग को हिन्दुकुश से दक्षिणभारत तक पाशुपत संन्यासी मिलते रहे। बादरायण, शंकर आदि ने भी उनके अनुयायियों का उल्लेख किया है। रामानुज (12वीं शती) ने भी पाशुपत शैवों के आचार का उल्लेख किया है। लकुलीश की जो पूर्ण या अर्धखंडित मूर्तियाँ मिली हैं, उन सबमें उसका मस्तक केशों से ढ़का हुआ है। दाएं हाथ में बीजपूर का फल तथा बाएं हाथ में लगुड (दण्ड) रहता है। लकुलीश के अवतार लेने के बारे में वायुपुराण, लिंगपुराण तथा कायावरोहण माहात्म्य में सामग्री मिलती है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

परुष
ईश्‍वर का एक नामांतर। पाशुपत दर्शन के अनुसार ईश्‍वर अपनी स्वतंत्र इच्छाशक्‍ति के अनुसार विविध जीवों व शरीरों की उत्पत्‍ति कर सकता है। अतः पौरूष संपन्‍न होने के कारण पुरुष कहलाता है। (ग.का.टी.पृ.11)। लोक व्यवहार में पुरुष में सृष्‍टि करने की शक्‍ति होती है। इसी समय से परमेश्‍वर को भी पुरुष कहते हैं। वस्तुत: वही एकमात्र परमपुरुष है क्योंकि मूल सृष्‍टि का एकमात्र कारण वही है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

प्रकाश
जिस शक्‍ति के द्‍वारा पाशुपत साधक पदार्थों को सम्यक् रूप से जानता है, वह शक्‍ति प्रकाश कहलाती है तथा द्‍विविध होती है-अपर प्रकाश तथा पर प्रकाश (ग.का.टी.पृ.15) :-
अपर प्रकाश-जिस प्रकाश से साधक योग विधि के साधनों का उचित विवेचन करता है तथा ध्येयतत्व ब्रह्म पर समाहित चित्‍त को जानता है वह अपर प्रकाश कहलाता है। (ग.का.टी.पृ. 15)।
पर प्रकाश-जिस प्रकाश के द्‍वारा साधक समस्त तत्वों को उनके धर्मों तथा गुणों के सहित समझकर उनके सम्यक् रूपों का विवेचन करता है वह पर प्रकाश होता है। (ग.का.टी.पृ. 15)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

प्रातिपदावस्था
पाशुपत साधक क एक अवस्था।
पाशुपत मत के अनुसार साधक को साधना की प्रथम अवस्था में अपनी जीविका भिक्षावृत्‍ति से चलानी होती है, गुरु के चरणों में निवास करना होता है। साधना की यह अवस्था प्रातिपदावस्था या प्रथम अवस्था कहलाती है। इस अवस्था में साधक हाथों तथा भिक्षापात्र का शोधन करके, मंत्रों का उच्‍चारण करके देवता और गुरु से आदेश लेकर किसी ग्राम में किसी धर्मार्जित धन का उपयोग करने वाले गृहस्थी के घर से भिक्षा मांग कर लाए, उसे देवता को और गुरु को निवेदन करके, उनसे आदेश लेकर सारी भिक्षावस्तुओं को एक साथ मिलाकर खाए। ऐसे भिक्षाव्रत का पालन प्रातिपदावस्था में करना होता है। (ग.का.टी.पृ.4)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

प्राप्‍ति
तप का तृतीय लक्षण।
पाशुपत साधक को जब योग साधना में लाभसंबंध होता है, अर्थात् उसको ऐश्‍वर्य प्राप्‍ति होने पर सिद्‍धियों की उपलब्धि होती है, तो वह प्राप्‍ति कहलाती है। प्राप्‍ति के हो चुकने पर एक तो उसमें अपरिमित ज्ञानशक्‍ति उबुद्‍ध होती है और दूसरे असंभव को भी संभव बनाने की क्रिया सामर्थ्य उसमें प्रकट हो जाती है। इस तरह से वह शिवतुल्य बन जाता है। (ग.का.टी.पृ.15)
(पाशुपत शैव दर्शन)

प्रीति
तप का द्‍वितीय लक्षण।
पाशुपत साधक को शास्‍त्रविहित अनुष्‍ठान संपन्‍न होने पर जो तृप्‍ति या संतोष होता है वह प्रीति कहलाता है। उस तृप्‍ति से उसे साधना के अनुष्‍ठान में रुचि बढ़ती है और उसकी साधना उत्‍तरोत्‍तर तीव्र होती जाती है। यदि साधना के अनुष्‍ठान से साधक को तुष्‍टि न मिले तो उसकी साधना विषयक रूचि मंद पड़ जाती है और फलस्वरूप वह न तो सिद्‍धि को ही पा सकता है और न मुक्‍ति को ही। (ग.का.टी.पृ.15)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

प्रेताचार
प्रेत की तरह आचार करना।
पाशुपत साधना में कई तरह के विरुप आचारों का उपदेश दिया गया है ताकि लोग पाशुपत साधक का अपमान करें और वह पूर्णरूपेण जगत से असंपृक्‍त हो जाए, उसमें अधिक से अधिक त्याग भावना का समावेश हो। इस तरह के आचारों में प्रेताचार भी एक तरह का आचार है। यहाँ पर प्रेत शब्द का मृत से तात्पर्य नहीं है अपितु पुरुष विशेष से है। पाशुपत साधक को अपने शरीर को उन्मत्‍त तथा दरिद्र पुरुष सदृश व बिना नहाए मैल से भरा रखना होता है तथा सभी प्रकार की स्वच्छता को त्यागना होता है। इस तरह से प्रेत अर्थात् गन्देव्रउन्मत्‍त पुरुष की तरह रहना होता है, क्योंकि ऐसे रहने से उसे इच्छित अपमान तथा निंदा मिलेगी और वर्णाश्रम धर्म का त्याग करने से संसार के प्रति बंधन शिथिल होते-होते वैराग्य उत्पन्‍न होगा और परिणामत: उसमें वास्तविक पुण्यों का उद्‍भव होगा। (पा.सू.कौ.भा.पृ 83)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

बल
शक्‍तियाँ
पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार जिन शक्‍तियों के द्‍वारा साधक मुक्‍ति को प्राप्‍त कर सकता है, वे शक्‍तियाँ बल कहलाती हैं। बल पाँच प्रकार के होते हैं- गुरुभक्‍ति, प्रसाद, द्‍वन्द्‍वजय, धर्म तथा अप्रमाद (ग.का.इ)। ये पाँच विषय भी पाशुपत दर्शन के प्रतिपाद्‍य विषयों में महत्वपूर्ण विषय हैं। तभी गणकारिका में इन्हें गिनाया गया है और टीका में इन पर प्रकाश डाला गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

बलप्रमथन
ईश्‍वर का नामांतर।
पाशुपत मत में ईश्‍वर को बलप्रमथन कहा गया है क्योंकि उसमें बलों (धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्‍वर्य, अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनैश्‍वर्य, इच्छा, द्‍वेष तथा प्रयत्‍न) की प्रवृत्‍ति का मन्थन अथवा निरोध करने की शक्‍ति होती है। तात्पर्य यह है कि इन बुद्‍धि धर्मों में अपना बल कोई नहीं है, इन्हें ईश्‍वर ही बल प्रदान करता है। उसी के द्‍वारा स्थापित नियति के आधार पर इनमें बल ठहराया जाता है। तो बल केवल शक्‍तिमान ईश्‍वर में ही है। वही किसी को बल दे सकता है और किसी के बल को विरुद्‍ध कर सकता है। अतः उसे बलप्रमथन कहते हैं। (पा.सू.कौ.भा.पृ.75)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

बहुरुपी
रूद्र के विविध रूपों संबंधी जप।
बहुरुपी रौद्री का ही नामांतर है तथा बहुरूप अघोर रूद्र का नामांतर है। रुद्र संबंधी जप में जब रुद्र के बहुत से रूपों का गायन होता है तो वही रौद्री बहुरूपी कहलाती है। अथवा यह जप-विशेष उस बहुरूप की प्राप्ति करवाता है (पा.सू.कौ.भा.पृ. 124)। इस बहुरूपी मंत्र का विस्तार बहुरूपगर्भस्तोत्र में मिलता है। पाशुपतसूत्र के तृतीय अध्याय के इक्‍कीसवें सूत्र से लेकर छब्बीसवें सूत्र तक बहुरूपी ऋचा का उपदेश किया गया है तदनुसार वह ऋचा यह है- अघोरेम्योടथ घोरेभ्य: घोरघोरतरेभ्यश्‍च सवेभ्य: शर्वसर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररुपेभ्य:। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 81-91)।
(पाशुपत शैव दर्शन)


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