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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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कालमुख
पाशुपत मत का अवान्तर भेद।
कालमुख पाशुपत मत का ही अवान्तर भेद है। वास्तव में कापालिक ही दो तरह के थे। वेद विहित विधि का पालन करने वाले ब्राह्‍मण कापालिक मतावलंबी थे। ब्राह्मणेतर तथा वेद विरोधी कालमुख मतावलंबी थे। ये अपने विधि विधानों में पूर्णरूपेण स्वतंत्र थे तथा कापालिकों से और आगे बढ़े हुए थे। रामानुज ने ब्रह्मसूत्र के शारीरक मीमांसाभाष्य ग्रंथ में कालमुखों के मत के बारे में थोड़ा बहुत परिचय दिया है। वे कहते हैं कि कालमुख मत के अनुसार जीवन सुख व मोक्ष दोनों की प्राप्‍ति विशेष विधानों के पालन करने से होती है। विशेष विधान हैं-मानवखोपड़ी को पान भाजन के रूप में प्रयोग करना, शव के भस्म को शरीर पर मलना, शव के मांस को खाना, लगुड धारण करना, रूद्राक्ष का वलय बाँह पर धारण करना आदि। (श्रीभाष्य अथवा शारीरक मीमांसाभाष्य 2-2, 35-37)।
कालमुखों के विधि विधान अधिक उग्रवादी हैं। इन्हें अतिवादी भी कहा जा सकता है। इन्हीं के एक संप्रदाय को अघोरंपथी कहते हैं जो शिव के अघोर रूप को पूजते हैं। कापालिक और कालमुख दोनों मतों के सिद्‍धांत कोई नए नहीं थे अपितु साधना के विधि विधान ही कुछ नए अपनाए गए थे। कालमुखों को कई बार कालामुख भी कहा गया है। टी.ए.जी. राव कहते हैं कि इन संन्यासियों को माथे पर काला तिलक लगाने के कारण कालामुख नाम पड़ा हो। (एलीमेंट्स ऑफ़ हिंदू आइकोनोग्राफी, भाग 1, 25)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

क्राथन
पाशुपत योग की एक विशेष साधना।
जगते हुए ही नींद का अभिनय करना क्राथन कहलाता है। जब पाशुपत साधक को साधना का काफी अभ्यास हो जाता है तो उसे फिर किसी शहर या गाँव में जाकर लोगों से थोड़ी दूर (ताकि वे केवल उसे देख सकें) सो जाने या ऊँघने का अभिनय करना होता है, जबकि वास्तव में वह जाग रहा होता है, फिर उसे ज़ोर ज़ोर से ऊँघना होता है। लोग जब उस साधक को ऐसे बीच मार्ग में ऊँघते हुए देखते हैं तो निंदा करते हैं। इस तरह से उनके निंदा करने से साधक के पाप उन लोगों को लगते हैं तथा उनके पुण्यों का संक्रमण इस योगी में होता है। इस तरह से क्राथन पाशुपत मत की एक विशेष योग क्रिया है। (पा. सू. कौ. पृ 83, 84) गणकारिकाटीका में भी क्राथन की यही व्याख्या हुई है। (तन्त्राऽसुप्‍तस्येव सुप्‍तलिंग-प्रदर्शन क्राथनम्-ग.का.टी.पृ 19)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

क्रिया
दीक्षा का एक अंग।
शिवलिङ्ग के तथा शिष्य (जिसको दीक्षा देनी हो)-उसके संस्कार कर्म क्रिया कहलाते हैं। क्रिया दीक्षा का तृतीय अंग है, (ग.का.टी.पृ. 8,9)। क्रिया, नामक दीक्षा का विस्तार इस समय किसी ग्रंथ में नहीं मिलता है। गणकारिका की रत्‍नटीका में लिखा है कि इसका विस्तार संस्कारकारिका में देखना चाहिए। संस्कारकारिका से या तो किसी अन्य ग्रंथ को लिया जा सकता है, जो कहीं इस समय उपलब्ध नहीं है। अन्यथा गणकारिका में से ही संस्कारों से संबद्‍ध कारिका को लिया जा सकता है जिसका स्पष्‍टीकरण सुकर नहीं। गणकारिका के अनुसार क्रिया के द्‍वारा लिंङ्ग का भी संस्कार किया जाता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

क्षेमी
मुक्‍त जीव का लक्षण।
पाशुपत दर्शन के अनुसार युक्‍त साधक क्षेमी (निर्भय या अनन्त सुखी) हो जाता है, क्योंकि उसके समस्त अधर्म, जो योगसाधना में बाधक होते हैं, निवृत्‍त हो जाते हैं। अतः रुद्र में स्थित साधक क्षेमी होकर ठहरता है। जैसे भयंकर कांतार को पार करके मनुष्य शांत व स्वस्थ होकर ठहरता है, ठीक उसी प्रकार मुक्‍तात्मा इस सांसरिक कांतार को पार करके रूद्रतत्व में शांत व स्वस्थ होकर ठहरता है। (पा.सू.कौ.भा.पु. 139)। साधक की समस्थ शंकाएं जब अतिक्रांत या निवृत्‍ति हो जाती हैं, तो उसकी वह अवस्था क्षेमित्व की होती है। (सर्वाशङ्कास्थाना तिक्रान्तित्वं क्षेमित्वम्-ग.का.टी.पृ. 16)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

गण
पाशुपत दर्शन के दार्शनिक विषयों का वर्ग भेद।
गणकारिका में पाशुपत दर्शन के मुख्य विषयों को नवगणों में वर्गीकृत किया गया है। आठ गणों में पाँच पाँच विषय हैं तथा एक गण में तीन विषय हैं। इस तरह से आठ पंचकों और एक त्रिक के सर्वयोग से तेंतालीस विषय बनते हैं। (पंचकास्त्वष्ट विज्ञेया गणश्‍चेकस्‍त्रिकात्मक:-ग.का.टी.पृ. 3)। इन नव गणों के नाम हैं- लाभ, मल, उपाय, देश, अवस्था, विशुद्‍धियाँ, दीक्षा, बल और वृत्‍तियाँ। इन्हीं का निरुपण गणकारिका तथा उसकी टीका में किया गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

गति
तप का चिह्न।
पाशुपत साधक की योग साधना में योग की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में गमन गति कहलाता है। (ग.का.टी.पृ. 15)। पाशुपत योग की सफलता के तीन या चार उत्‍तरोत्‍तर उत्कृष्‍टतर सोपान माने गए हैं। उनमें से सामान्य पूजा आदि के स्तर पर सफलता को प्राप्‍त करके साधक द्‍वितीय स्तर में संक्रमण करता है। वहाँ भी सफलता को प्राप्‍त करता हुआ साधना के तीसरे व चौथे उत्कृष्‍टतर स्तरों में प्रवेश करता है। इस तरह का उत्‍तरोत्‍तर स्तरों पर उसका जो पहुँचना है, वही इस शास्‍त्र में गति कहलाता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

गायत्री
जप मंत्र विशेष।
गायत्री रौद्री का ही नामांतर है, क्योंकि रौद्री (गातारं त्रायते) मंत्र के गाने वाले का त्राण (रक्षा) करती है, अतः गायत्री कहलाती है। अथवा रौद्री गायत्री छंद में निर्मित होती है इस कारण भी गायत्री कहलाती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 39)। प्रसिद्‍ध सामवेदीय गायत्री मंत्र के अनुसार प्रत्येक शैव, वैष्णव, शाक्‍त आदि देवताओं की गायत्री का निर्माण हुआ है। पाशुपत सत्रों में तत्पुरुष की गायत्री को ही रौद्री गायत्री के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वह मंत्र निम्‍नलिखित है -
तत् पुरुषाय विद्‍महे महादेवाय धीमहि तन्‍नो रुद्र: प्रचोदयात्-पा.सू. 4-22, 23,24)
(पाशुपत शैव दर्शन)

गीत
पाशुपत धर्म की विधि का एक अंग।
पाशुपत योगी को महेश्‍वर की मूर्ति के सामने महेश्‍वर संबंधी गीत गाने होते हैं। उन गीतों में महेश्‍वर का गुणगान, उसके भिन्‍न भिन्‍न नामों का संकीर्तन तथा उसकी अपार महिमा की प्रशंसा समाहित होती है। ये गीत संगीतशास्‍त्र (गंधर्वशास्‍त्र) के अनुसार रचे होने चाहिए अर्थात् संगीतशास्‍त्र के नियमों के अनुसार इन गीतों की ताल व लय होने चाहिए। इन गीतों द्‍वारा साधक आत्मनिवेदन करता हुआ पशुपति के साथ तन्मयता को प्राप्‍त करता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.13)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

गुरु
दार्शनिक विषयों का ज्ञाता तथा शिक्षक।
पाशुपत दर्शन के दार्शनिक विषयों का ज्ञाता तथा शिष्य के संस्कारों को करने वाला शिक्षक गुरु कहलाता। (वेत्‍ता नवगणस्यास्य संस्कर्ता गुरुरूच्यते-ग. का.टी.पृ. 3)। जो पाशुपत दर्शन के नवगण (दार्शनिक विषयों) का वेत्‍ता (ज्ञाता) अथवा विचारक हो, चिंतक हो तथा इन विषयों की शिष्यों को दीक्षा दे सकता हो वह गुरु कहलाता है।
भासर्वज्ञ ने गुरु को 'देश' का एक प्रकार भी माना है। योगाभ्यास करते समय पाशुपत साधक के लिए विशेष निवासस्थान निर्दिष्‍ट किए गए हैं। उसके अनुसार योगाभ्यास की प्रथम अवस्था में गुरु के पास निवास करना होता है। (ग.का.टी.पृ. 16)। गणकारिका में ही गुरु को दीक्षा का पंचम अंग भी माना गया है, जो दीक्षा देता है। यह गुरु दो तरह का होता है-पर गुरु तथा अपर गुरु। पर गुरु को आचार्य कहा गया है तथा अपर गुरु को आचार्याभास कहा गया है। (ग.का.टी.पृ.3)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

गुरु भक्‍ति
पाँच बलों में से एक भेद।
पाशुपत मत के अनुसार गुरु साधक के लिए पंचार्थ का उपदेष्‍टा होता है, अर्थात् उनके रहस्य का उपदेशक होता है। साधक अपने को मलों के कारण होने वाले तीव्र दुःखों का पात्र समझता है और उसे यह विश्‍वास होता है कि मेरा गुरु मुझे इन सभी कष्‍टों से पार ले जाकर वांछनीय लाभों का पात्र बना सकता है। साधक का गुरु के प्रति जो ऐसा भाव होता है, उसी को यहाँ गुरू भक्‍ति कहा जाता है। (ग.का.टी.पृ. 5)।
(पाशुपत शैव दर्शन)


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