पाशुपत योग के अनुसार योगी के लिए गुरु-शुश्रूषा नामक यम का पालन करना आवश्यक होता है। क्योंकि उस योग में गुरु को अत्यधिक महत्ता प्रदान की गई है। गुरु के हर एक कृत्य का छाया की तरह अनुसरण करना ही गुरु शुश्रूषा होती है। जैसे-शिष्य गुरु से पहले ही निद्रा से जागे और गुरु के सोने के पश्चात् सोए। गुरु ने किसी कार्य के लिए नियोजित किया हो अथवा न किया हो, शिष्य उसके किसी भी कार्य को करने के लिए सदैव तत्पर रहे। अपना सर्वस्व अर्पण करने को तत्पर रहे और भस्म स्नान आदि क्रियाओं को करने में गुरु का अनुसरण छाया की भांति करे। शिष्य का नित्य आचार हो कि गुरु की सेवा में सदा प्रस्तुत रहकर यह विचार रखे कि यह कार्य कर लिया है, अमुक कार्य करूँगा और क्या क्या कार्य करना है। गुरु की दी हुई शिक्षा का आगे प्रचार करना भी गुरु शुश्रूषा होती है। ब्रह्मचर्य अवस्था के अवसानोपरांत गुरू का सम्मान व श्रद्धा ही ब्रह्मचर्य होता है। गुरू मोक्ष का ज्ञान करवाता है, योग का दर्शन करवाता है। अतएव गुरु पूजा शिव पूजा के समान श्रेयस्कर होती है। अतः जो गुरु को पूजता है मानो वह शिव को ही पूजता है। (पा.सू.कौ.भा.प. 27,28)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
गुहावासी
गुफा में निवास करने वाला।
पाशुपत योग में साधना के एक मध्यम स्तर पर पहुँचने पर पाशुपत साधक के निवास के लिए शून्य घर या गुहा का उपदेश दिया गया है, अर्थात् साधक को किसी पर्वत की गुफा में निवास करना होता है, ताकि वह निर्बाध रूप से संग आदि दोषों से पूर्णरूपेण मुक्त होकर साधना का अभ्यास कर सके। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 116)।
भासर्वज्ञ ने गुहा को देश का एक प्राकर माना है। साधक को साधना के तृतीय चरण में गुहा में निवास करना होता है। (ग.का.टी.पृ. 16)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
गूढ़ पवित्रवाणि
पवित्र वाणी का गोपन।
पाशुपत विधि के अनुसार साधक के लिए एक विधि होती है कि वह संस्कृत मंत्र, भजन रूपी पवित्र वाणी (जो वाणी पूजन आदि में प्रयुक्त होती है) को गुप्त रखे, क्योंकि सुंदर, संस्कृत व पवित्र वाणी को स्पष्टतया प्रकट करने पर साधक की विद्या का स्फुट प्रकाशन होगा और लोग उस साधक की विद्याबुद्धि की प्रशंसा करेंगे। प्रशंसा को पाशुपत शास्त्र में बंधकारक माना गया हे। क्योंकि प्रशंसा से आदमी में गर्व तथा अभिमान आता है, जिसके कारण उसमें पापों व दोषों का समावेश हो जाता है। अतः पाशुपत योग में बारंबार इस बात पर बल दिया गया है कि पाशुपत साधक प्रशंसा से दूर रहे। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 94,95)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
गूढ़विद्या
विद्या का गोपन।
पाशुपत योग में विद्या का संगोपन करना भी एक तरह की विधि है। वहाँ साधक को अर्जित ज्ञान को संगुप्त रखना होता है अर्थात् अर्जित ज्ञान का प्रकाशन नहीं करना होता है। विद्या को गुप्त रखने से वह तप: स्वरूप बन जाती है और अंतत: परम उद्देश्य की प्राप्ति करवाती है। बहि: प्रकाशन से विद्या क्षीण हो जाती है। (पा.सू.कौ.भा. पृ. 92)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
गूढ़व्रत
व्रतों का गोपन।
पाशुवत मत के अनुसार साधक को सभी धार्मिक कृत्यों (व्रतों) को गुप्त रखना होता है। व्रत से यहाँ पर भस्मस्नान, भस्मशयन, उपहार, जप, प्रदक्षिणा आदि से तात्पर्य है। पाशुपत मत के अनुसार ये सभी कृत्य एकांत में गुप्त रूप से करने होते हैं। इन्हें प्रकट रूप में करने से लोग साधक की प्रशंसा करेंगे, जिससे उसको गर्व होगा, जो उसकी आध्यात्मिक प्रगति में बाधा डाल सकता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 94)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
घोर
ईश्वर का नामांतर।
पाशुपत शास्त्र के अनुसार ईश्वर केवल अघोर रूप ही नहीं है अर्थात् वह केवल कल्याणमय रूपों को ही धारण नहीं करता है, अपितु अशिव तथा अशांत रूपों को भी वही शिव धारण करता है, जो कल्याणमय रूपों को धारण करता है। घोर रूपों पर अधिष्ठातृ रूप बनने की उसकी शक्ति को घोरत्व कहते हैं। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 89)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
घोरतर
ईश्वर का नामांतर।
पाशुपत मत के अनुसार ईश्वर भिन्न भिन्न प्राणियों को भिन्न भिन्न शरीरों से युक्त करता है। जो शरीर दुःखकारक बनते हैं वे घोरतर कहलाते हैं। (ग.का.टी.पृ. 11)। परमेश्वर ही उन घोरतर रूपों को धारण करता हुआ घोरतर कहलाता है। ऐसे शरीरों पर अधिष्ठातृ रूप बनने की उसकी शक्ति को घोरतरत्व कहते हैं। नारायणीय उपनिषद के एक मंत्र में भी पशुपति के अघोर, घोर और घोरतर रूपों का उल्लेख आता है -
ईश्वर को अघोर, घोर तथा घोरतर रूपों का अधिष्ठाता बताने का तात्पर्य है कि भगवान् सर्वसामर्थ्यपूर्ण है। विश्व के कण कण का अधिष्ठाता एकमात्र शिव ही है। उसी की एकमात्र इच्छा के कारण अघोर, घोर, तथा घोरतर रूप प्रकट होते हैं। (वा. सू. कौ. भा. पृ. 89)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
चतुर्थावस्था
पाशुपत साधक की एक अवस्था।
पाशुपत साधना की इस अवस्था में साधक को यथालब्ध से, अर्थात् बिना मांगे जो स्वयमेव ही भिक्षा रूप में मिले उसी से जीविका का निर्वाह करना होता है। यह साधक की वृत्ति हुई। साधक का देश अर्थात् निवास स्थान इस अवस्था में श्मशान होता है। अर्थात् साधक को साधना की इस उत्कृष्ट अवस्था में पहुँचकर श्मशान में निवास करना होता है। साधना की यह चौथी अवस्था चतुर्थावस्था कहलाती है। (ग.का.टी.पृ.5)। इस अवस्था में साधक का पाशुपत व्रत तीव्रता की ओर बढ़ता है। इस चतुर्थावस्था की साधना के अभ्यास से साधक को रुद्र सालोक्य की प्राप्ति होती है। (पा.सू. 4-19.20)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
चर्या
उपाय का एक प्रकार।
पाशुपत धर्म की भस्मस्नान, भस्मशयन आदि क्रियाओं को चर्या कहते हैं। (ग.का.टी.पृ. 17)। चर्या त्रिविध कही गई है- दान, याग और तप। इनमें से दान 'अतिदत्तम्', याग 'अतीष्टम्' तथा तप 'अतितप्तम्', इन शीर्षकों के अंतर्गत आए हैं। चर्या के इन तीन प्रकारों के भी दो दो अंग होते हैं-व्रत तथा द्वार। व्रत गूढ़ व्रत के अंतर्गत आया है तथा द्वार क्राथन, स्पंदन मंदन आदि पाशुपत साधना के विशेष प्रकारों को कहते हैं।
(पाशुपत शैव दर्शन)
च्युति
मल का एक प्रकार।
पाशुपत दर्शन के अनुसार जब साधक का चित्त रुद्र तत्व में न लगकर वहाँ से च्युत हो जाए, अर्थात् ध्येय में से चित्त की स्थिर निश्चल स्थिति हट जाए, तो चित्त के ऐसे च्यवन को च्युति कहा गया है जो कि मलों का एक प्राकर है; क्योंकि इस तरह की च्युति से साधक बंधन में पड़ जाता है तथा उसकी मुक्ति में बाधा पड़ती है। (ग.का.टी.पृ. 22)।