पाशुपत मत के अनुसार जहाँ साधक चित्त को पूर्णरूपेण निरालंबन बनाकर अर्थात् चित्त के ध्यान का विषय किसी भी स्थूल या सूक्ष्म वस्तु को न रखते हुए तथा निर्मल बनाकर केवल रुद्र तत्व में ही अपने आपको स्थापित करता है। साधक की यह अवस्था पाशुपत योग की पर (उत्कृष्टतर) दशा होती है। (ग.का.टी.पृ.20)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
ध्यान
परस्वरूप महेश्वर का चिंतन। (ध्यानं चिंतनमित्यर्थ:)
ध्येय ब्रह्म है तथा ओंकार है क्योंकि पाशुपत ध्यान में परब्रह्म के ओंकार स्वरूप का ध्यान (चिंतन) किया जाता है तथा उसी ध्यान में लीन होना होता है। (रुद्रतत्वे सदृश चिंता प्रवाहो ध्यानम्-ग.का.टी.पृ. 20)।
भासर्वज्ञ के अनुसार ध्यान दो तरह का होता है-जपपूर्वक ध्यान तथा धारणापूर्वक ध्यान। (ग.का.टी.पृ.20)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
नकुलीश
पाशुमत मत का संस्थापक।
नकुलीश पाशुपत मत के संस्थापक लकुलीश का ही नामांतर है। शिव पुराण वायवीय संहिता के नौवे अध्याय में तथा कूर्म पुराण के तिरपनवें (53वें) अध्याय में नकुलीश को कलियुग में पाशुपत मत का आदि गुरु बताया गया है। माधवाचार्य ने सर्वदर्शन संग्रह में पाशुपत मत को नकुलीश-मत कहा है। परंतु काशमीर के शैव आगमों के इस मत के संस्थापक को लकुलीश या लाकुल कहा गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
नमस्कार
पाशुपत धर्म की विधि का एक अंग।
पाशुपत धर्म के अनुसार नमस्कार महेश्वर के प्रति मानसिक नमस्करण होता है। यह नमस्कार मुह से, शब्द विशेष से या शरीर की किसी मुद्रा से नहीं किया जाता है, अपितु पाशुपत योगी को मन ही मन महेश्वर के प्रति नमस्करण करके नमस्कार नामक विधि के इस अंग का पालन करना होता हे। ऐसा नमस्कार ही सर्वोत्तम नमस्कार होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 14)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
नित्यात्मा
आत्मतत्व के साथ शाश्वत योग।
पाशुपत मत के अनुसार युक्त साधक को आत्मा के साथ निरंतर योग होता है, अर्थात् वह आत्म तत्व के साथ सदैव एकाकार बनकर ही रहता है। सर्वदा चित्तवृत्ति का आत्मतत्व में ही समाधिस्थ होकर रहना नित्यात्मत्व कहलाता है। (अनुरूध्यमान चितवृत्तित्वं नित्यात्मत्वम्- ग.का.टी.पृ. 16)। नित्यात्मत्व अवस्था को प्राप्त साधक नित्यात्मा कहलाता है। (पा.सू.पृ. 5.3)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
निर्माल्यम्
पाशुपत विधि का एक अंग।
मूर्ति विशेष पर चढ़ाई हुई पुष्पमाला को निर्माल्य कहते हैं। पुष्पों की माला बनाकर आराध्य देव की मूर्ति पर चढ़ाकर, फिर वहाँ से ग्रहण करके, उसको अपने शरीर पर धारण करना निर्माल्यधारण होता है। निर्माल्यधारण पाशुपत योगी की भक्ति की वृद्धि में सहायक बनता है और उसके पाशुपत धर्म के अनुयायी होने का चिह्न भी होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 11)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
निष्ठावस्था
अवस्था का एक प्रकार।
पाशुपत योगी की साधना की पंचमावस्था निष्ठावस्था कहलाती है, जिसे सिद्धावस्था भी कहा गया है। जिस अवस्था में बाह्य साधना की सभी क्रियाएं पूर्ण रूपेण शांत हो चुकी हों, वह अंतिम अचल अवस्था निष्ठावस्था कहलाती है। (ग.का.टी.पृ. 8)। इस अवस्था में साधक को आत्मा का पूर्ण बोध होता है। अतः न ही कोई मल शेष रहता है और न ही किन्हीं उपायों की आवश्यकता रहती है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
नृत्य
पाशुपत धर्म की विधि का एक अंग।
पाशुपत संन्यासी को भगवान महेश्वर को प्रसन्न करने के लिए उसकी मूर्ति के सामने नृत्यशास्त्रानुसारी नृत्य करना होता है, अर्थात् हाथों पैरों व भिन्न-भिन्न अंगों का चालन व आकुञ्चन रूपी नृत्य गान के साथ-साथ करना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.13)। इस नृत्य को शैवधर्म की अनेकों शाखाओं में पूजा का एक विशेष अङ्ग माना जाता रहा है। अब भी दक्षिण में शिवमंदिरों में आरती के समय नृत्य किया जाता है। कालिदास ने भी महाकालनाथ के मंदिर में होने वाले नृत्य का उल्लेख किया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
पंचमंत्र
शिव के पाँच स्वरूप।
पाशुपत शास्त्र में शिव के मुख्य पाँच स्वरूप माने गए हैं। वे हैं- सद्योजात, कामदेव, अघोर, तत्पुरुष तथा ईशान। (देखिए पा.सू. तथा ग.का.)। इस 'मंत्र' पद की व्याख्या पाशुपत शास्त्रों में भी नहीं मिलती है और सिद्धांत शैव शास्त्रों में भी नहीं। काश्मीर शैव शास्त्र के अनुसार भेदभूमिका पर उतरे हुए शिव के पाँच दिव्य रूपों को पञ्चमंत्र कहा जाता है। इन पाँच रूपों के समष्टि स्वरूप शिव को स्वच्छनाद कहते हैं, जो पंचमुख हैं और जिसके उन मुखों के नाम ईशान, तत्पुरुष आदि हैं। मंत्र शब्द का तात्पर्य है भेद भूमिका पर उतरा हुआ शुद्ध प्रमाता।
(पाशुपत शैव दर्शन)
पंचमावस्था
पाशुपत साधक की एक उत्कृष्टतर अवस्था।
पाशुपत साधना की इस अवस्था में साधक साधना पूर्ण कर चुका होता है तथा उसका स्थूल शरीर शेष नहीं रहता है, अतः जीविका के लिए उसे किसी भी वृत्ति की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। यह साधना की अंतिम अवस्था पंचमावस्था कहलाती है। (ग.का.टी.पृ.5)। ऐसा भासर्वज्ञ का विचार है। यह तो मुक्त योगी की स्थिति होती है सांसारिक साधक की नहीं।
पाशुपत सूत्र के कौडिन्य भाष्य में भी योग की पाँचवी भूमिका का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। (पा.सू.कौ.भा. अध्याय 5)। संसार में ही रहते हुए योगी की उसी दशा को पञ्चमावस्था माना जाए तो अधिक उपयुक्त होगा।