भासर्वज्ञ ने त्रिविध कार्य (पशु, कला, विधा) को दीक्षा निमित्त द्रव्य माना है, जिसकी दीक्षा होनी होती है। विद्या दीक्षांत है जिसके द्वारा दीक्षा दी जाती है। विद्या के द्वारा शिष्य दीक्षणीय बन जाता है और गुरु दीक्षा देने में समर्थ बनता है। कला में दर्भ, भस्म, चंदन, सूत्र, पुष्प, धूप तथा मंत्र आदि विविध वस्तुएं आती हैं। द्रव्य दीक्षा का प्रथम अंग है। (ग.का.टी.पृ. 8)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
द्वंद्वजय
बल का भेद।
आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक दुःखों तथा सुख-दुःख, ज्ञान, अज्ञान आदि समस्त द्वंद्वों पर जय प्राप्ति द्वंद्वजय कहलाता है। द्वंद्वजय बल का तृतीय भेद है तथा द्विविध होता है-अपर द्वंद्वजय तथा पर द्वंद्वजय। (ज.का.टी.पृ.6)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
द्वंद्वजय अपर
पाशुपत साधक के द्वारा योगाभ्यास के आरंभ किए जाने पर मृदु या मध्य प्रकार का आतप व शीत आदि द्वंद्वों को सहन करते रहने पर अपर द्वंद्वजय की अवस्था होती है। (ग.का.टी.पृ.6)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
द्वंद्वजय पर
पाशुपत साधक के योग की काफी उच्च भूमि पर पहुँच जाने के अनंतर अति तीव्र शीत तथा आतप आदि सहन कर सकने पर पर द्वंद्वजय होता है, जो अधिक उत्कृष्ट होता है। (ग.का.टी.पृ.6)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
द्वार
चर्या के प्रकारों का एक अंग।
द्वार से यहाँ पर यह तात्पर्य है कि जिन कृत्यों के द्वारा पुरुष पाशुपत साधना के क्षेत्र में प्रवेश करता है तथा रुद्रतत्व की प्राप्ति के जो द्वार स्वरूप होते हैं, वे द्वार कहलाते हैं। (ग.का.टी.पृ.18)। ये द्वार हैं- क्राथन, स्पंदन, मंदन, श्रृंगारण, अपितत्करण और अपितत्भाषण। ये द्वार ही पाशुपत साधना के विशेष अंग है। इन द्वारों का अभ्यास केवल पाशुपत साधक ही करते हैं। अन्य किसी भी साधनाक्रम में इन्हें स्थान नहीं मिला है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
द्वितीयावस्था
पाशुपत साधक की मध्यमा अवस्था।
पाशुपत साधना की जिस अवस्था में साधक भिक्षा मांगनी भी छोड़ देता है और उस अन्न पर निर्वाह करता है, जिसे लोगों ने बलि के रूप में वृक्षमूलों पर, देवस्थानों पर या चतुष्पथों पर छोड़ दिया होता है। उसे उत्सृष्ट कहते हैं। यदि करुणावशात् कोई स्वयमेव कुछ खाने को दे तो वह भी उत्सृष्ट ही कहलाता है। साधक को उसी से जीविका का निर्वाह करना होता है तथा एकांतवास को छोड़कर लोगों के बीच में निवास करना होता है। साधना की इस दूसरी अवस्था को द्वितीयावस्था कहते हें। (ग.का.टी.पृ.5)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
धर्म
बल का एक प्रकार।
पाशुपत शास्त्र में पाशुपत धर्म की निर्धारित विधि का सदैव पालन करना धर्म कहलाता है। धर्म बल का चतुर्थ भेद है। क्योंकि धर्म पर स्थित होने से बल आता है (ग.का.टी.पृ.7)। धर्म से पूजापाठ आदि प्रसिद्ध लोकप्रिय धर्म तथा यम नियम आदि विशेष साधक धर्म यहाँ अभिप्रेत हैं। इन धार्मिक कृत्यों के अनुष्ठान से चित्त शोधन होता है और उससे साधना सफल होती है। इस तरह से धर्म रूपी बल साधना में सफलता प्राप्त करने में सहायक बनता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
धर्मशक्ति
तप का चतुर्थ लक्षण।
पाशुपत दर्शन के अनुसार जिस शक्ति के बल से साधक का योगनिष्ठ चित्त किसी भी बाह्य स्थूल विषय की ओर आकृष्ट न हो, अर्थात् किसी भी प्रकार के मोह से मोहित न हो, वह सामर्थ्य धर्मशक्ति कहलाती है। (ग.का.टी.पृ.15)। इसी शक्ति से योगी काम, क्रोध, लोभ आदि से अस्पृष्ट रहता हुआ स्थिरता से अपने अभ्यास में ही लगा रहता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
धर्मात्मा
युक्त साधक का लक्षण।
पाशुपत मत के अनुसार साधक समस्त द्वंद्वों पर विजय पाकर 'धर्मात्मा' बन जाता है। यमों व नियमों के अभ्यास से श्रेष्ठ कर्मों की प्राप्ति करता है जिससे इस लोक में उसे अभ्युदय की प्राप्ति होती है तथा परलोक में मोक्ष को पा लेता है। तात्पर्य यह है कि योगी उत्कृष्ट अवस्था में पहुँच कर भी यम नियम आदि धर्मों को तथा भस्म-स्नान आदि क्रियाओं को छोड़ता नहीं और उससे उसका माहात्म्य बढ़ता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.131)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
धारणा
मन को दृढ़रूपेण ध्यान में स्थापित करना।
पाशुपत योग के अनुसार हृदय में ओंकार की धारणा करनी होती है। धारणा वह उत्कृष्ट योग है जहाँ आत्म तत्व में लगाए हुए ध्यान को स्थिरता दी जाती है। ध्यान जब दीर्घ काल के लिए साधक के मन में स्थिर रहता है तो वह धारणा कहलाती है। इसको पर ध्यान भी कहा गया है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.126)।