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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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तत्पुरुष
ईश्‍वर का नामांतर।
पाशुपत शास्‍त्रों में ईश्‍वर को तत्पुरुष नाम से भी अभिहित किया गया है। क्योंकि वह आदि पुरुष है, जो समस्त जगत का कारणभूत तत्व है तथा जो समस्त विश्‍व के कण कण में व्याप्त होते हुए विविध रूपों में चमकता है (पा. सू.कौ.भा. पृ. 107)।
पाशुपत साधना में वेदोक्‍त तत्पुरुष के मंत्रों का भी प्रयोग किया जाता है। (तत् पुरुषाय विद्‍महे, महादेवाय धीमहि, तन्‍नो रुद्र: प्रचोदयात्)-पा. सू. 4-22, 23,24)। ऐसे मंत्र शैवी साधना में प्रयुक्‍त होते हैं। नारायणीय उपनिषद में भी ऐसे बहुत सारे शिवमंत्र दिए गए हैं।
(पाशुपत शैव दर्शन)

तप
लाभ का एक प्रकार।
तप लाभ का दूसरा प्रकार है। पाशुपत साधक की भस्मस्‍नान, भस्मशयन आदि क्रियाओं से उसमें जो धर्म उद्‍बुद्‍ध होता है, वह तप कहलाता है। इस तप के कई चिह्न होते हैं जैसे गति, प्रीति, प्राप्‍ति, धर्मशक्‍ति तथा अतिगति। (ग.का.टी.पृ. 15)। जैसे कोतवाल नगर की सम्पत्‍ति की रक्षा करता है, उसी तरह से तप धर्म की रक्षा करता है। अधर्म रूपी चोर से साधक को तप ही बचाए रखता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

तृतीयावस्था
पाशुपत साधक की एक अवस्था।
पाशुपत साधना की जिस अवस्था में साधक को भिक्षावृत्‍ति से जीविका का निर्वाह करना होता है, वह साधना की तीसरी अवस्था तृतीयावस्था कहलाती है। इस अवस्था में साधक की तपस्या में दिन प्रतिदिन वृद्‍धि हो जाती है और उसके मल साफ होते जाते हैं। उससे वह अपने ऐश्‍वर्य के साक्षात् अनुभव के योग्य बन जाता है, जो अनुभव उसे चतुर्थावस्था में प्राप्‍त होता है। (ग.का.टी.पृ.5)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

दर्शनशक्‍ति
दूर देखने की शक्‍ति।
पाशुपत साधक को योग के बल से कई दिव्य शक्‍तियों की प्राप्‍ति होती हैं। दर्शनशक्‍ति भी उन्हीं शक्‍तियों में से एक है। इस शक्‍ति को प्राप्‍त कर लेने के उपरांत सिद्‍ध साधक अथवा द्रष्‍टा को दृश्य (समस्त जगत) का दर्शन हो जाता है। उसे जगत् के एक कोने में बैठे बैठे ही समस्त जगत् के अणु अणु का दर्शन हो जाता है। उसक दृष्‍टि के सामने किसी भी प्रकार का प्रतीघात नहीं रहता। प्रतीघातकारी पदार्थ अकिंचितकर हो जाते हैं। (पा.सू.कौ.भा.पृ.42)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

दीक्षाकारि
दीक्षा के अंग।
पाशुपत साधक की दीक्षा के भिन्‍न भिन्‍न अंग दीक्षाकारि कहलाते हैं। दीक्षाकारि पंचविध हैं-द्रव्य, काल, क्रिया, मूर्ति तथा गुरु। (ग.का.5)। इन सभी अंगों का विधिवत् पालन किया जाए तो साधक को दी हुई दीक्षा प्राय: सफल हो जाती है और उसके लिए रुद्र सायुज्य की प्राप्‍ति का उपाय बन जाती है। इन अंगों में विकलता आए तो दीक्षा की सफलता भी संशयग्रस्त बनी रहती है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

दुःख
क्लेश।
पाशुपत दर्शन में जीवन का परम उद्‍देश्य दुःखों की निवृत्‍ति है। पाशुपत शास्‍त्र में कई तरह के दुःखों की व्याख्या की गई है। पहले तीन तरह के दुःखों को लेते हैं, जो काफी प्रसिद्‍ध हैं-आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक। आध्यात्मिक दुःख दो तरह का कहा गया है-शारीरिक व मानसिक। मानसिक दुःख, जो मन में उत्पन्‍न हों जैसे क्रोध, लोभ, मोह, भय, विषाद, ईर्ष्या, असूया, द्‍वेष, मद, मान, मात्सर्य, रति आदि के कारण। शारीरिक दुःख जैसे शिरोरोग, दंतरोग, अक्षिरोग, ज्वर, कास (खांसी), उदरपीड़ा आदि के कारण से होने वाले।
इनके अतिरिक्‍त पाँच प्रकार के अन्य दुःख गिनाए गए हैं। वे हैं-गर्भ दुःख, जन्म दुःख, अज्ञान दुःख, जरा दुःख तथा मरण दुःख। गर्भ दुःख में जब जीव का शरीर माता के गर्भ में बंद होता है। वहाँ आकुंचन या प्रसारण के लिए बहुत कम अवकाश होने के कारण जीव की सभी क्रियाएं अवरुद्‍ध रहती हैं और वह मूढ़वत् पीड़ा का अनुभव करता रहता है।
जन्म दुःख में जीवन जब जन्म लेता है तो जन्म लेने की प्रक्रिया में अत्यधिक पीड़ा का अनुभव करता है और जब बाह्य वातावरण में आता है तो और भी दुःखी होकर जन्म लेते ही रोता है। जन्म लेने की इस समस्त दुःखदायी प्रक्रिया से वह पूर्व संस्कारों को भूल जाता है और जन्म दुःख का भागी बनता है।
अज्ञान दुःख में जीव मिथ्या अहंकार के कारण वास्तविकता को जान नहीं पाता है कि 'मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, किसका हूँ, किस बंधन से बंधा हूँ, क्या कारण है, क्या कारण नहीं है, क्या भक्ष्य है, क्या अभक्ष्य है, क्या पेय है, क्या अपेय है, क्या सत्य है, क्या असत्य है, क्या ज्ञान है, क्या अज्ञान है' आदि इस तरह के अज्ञान में फंसकर अज्ञान दुःख को भोगता है।
जरा दुःख में पुरुष की वृद्‍धावस्था होने के कारण शरीर कृश हो जाता है। उसके शरीर के समस्त अंग शिथिल तथा असमर्थ हो जाते हैं। कटे पंखों वाले पक्षी की तरह शिथिल अंगों के कारण वह दौड़ नहीं सकता, भाग नहीं सकता और पूर्व अनुभूत स्वास्थ्य व सुखों की याद करते करते दुःखी होता रहता है। अंततोगत्वा उसकी स्मृति भी क्षीण हो जाती है। इस तरह से पुरुष जरा दुःख का भोक्‍ता बनता है।
मरण दुःख में मृत्यु के समय पुरुष की सभी इंद्रियाँ शिथिल हो जाती है। श्‍वास रुकने लगता है और अपनी समस्त अर्जित वस्तुओं के बारे में सोचने लगता है तथा उत्कट दुःख का अनुभव करते हुए मृत्युजन्य क्लेश को भोगता है।
कौडिन्य ने इन दुःखों के अतिरिक्‍त और पाँच तरह के दुःखों को गिनाया है। वे हैं 'इहलोक भय, परलोक भय, अहितकारी विषयों के साथ संपृक्‍तता, हितकारी विषयों से विप्रयोग और इच्छापूर्ति में व्याघात। पाशुपत साधक का चरम उद्‍देश्य इन समस्त प्रकार के दुःखों से मुक्‍ति पाना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 141, 142, 143)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

दुःखांत
क्लेशों की समाप्‍ति।
(सर्वदुःखा पोहो दुःखांत-ग.का.टी.पृ.12) अर्थात् समस्त दुःखों का अपोह दुःखांत है और पाशुपत दर्शन के अनुसार मुक्ति का स्वरूप दुःखांत है, परंतु यह दुःखांत केवल क्लेशों का नाश ही नहीं है, अपितु इस दुःखांत में परमैश्‍वर्य की प्राप्‍ति ही मुख्य फल है। पाशुपत दर्शन के अनुसार सांसारिक दुःखों की निवृत्ति तथा ईश्‍वर के जैसे ऐश्‍वर्य की प्राप्‍ति ही मुक्‍ति है। (तथाहि शास्‍त्रांतरे दुःख निवृत्‍तिरेव दुःखांत: इह तु परमैश्‍वर्य प्राप्‍तिश्‍च-ज.का.टी.पृ. 14,15)।
इसी कारण पाशुपत मत में दुःखांत को दो प्रकार का माना गया है-अनात्मक तथा सात्मक। अनात्मक दुःखांत में क्लेशों की पूर्ण निवृत्‍ति होती है, अर्थात् समस्त दुःखों का अत्यंत उच्छेद होता है। परंतु सात्मक दुःखांत में समस्त क्लेशों के अत्यंत उच्छेद के साथ साथ ही साधक में ज्ञान और क्रियाशक्‍ति जागृत हो जाती है। ज्ञानशक्‍ति पाँच प्रकार की कही गई है-दर्शन, श्रवण, मनन, विज्ञान और सर्वज्ञत्व तथा क्रियाशक्‍ति तीन प्रकार की कही गई है-मनोजीवत्व, कामरुपित्व तथा विकरणधर्मित्व। (ग.का.टी.पृ. 9,10)। इनकी व्याख्या अन्यत्र की गई है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

देव
ईश्‍वर का नामांतर।
पाशुपत शास्‍त्र में ईश्‍वर का नाम देव भी आया है। देव शब्द दिवु क्रीड़ायाम् से बना है। ईश्‍वर स्वभावत: क्रीड़नशील है। वह अपने स्वतंत्र क्रीड़नशील स्वभाव के कारण ही कार्य की उत्पत्‍ति, स्थिति तथा संहार करता है, अतः देव कहलाता है। इस तरह से यह जगत उसकी क्रीड़ा का प्रसार है। यह सत्य है। मिथ्या नहीं है। इस जगत में प्रत्येक पदार्थ जो प्रकट होता है वह शिव की ही लीला से प्रकट होता है। अनादि अविद्‍या से प्रकट नहीं होता। तो पाशुपत दर्शन परमैश्‍वर्य सिद्‍धांत का पोषक है, विवर्तवाद का पोषक नहीं है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.56)। शिव की ऐसी लीलामय शक्‍ति ही उसका देवत्व कहलाती है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

देवनित्य
भगवान के साथ नित्य ऐकात्म्य।
पाशुपत दर्शन के अनुसार युक्‍त साधक जब अध्ययन व ध्यान के द्‍वारा महेश्‍वर तादात्म्य को प्राप्‍त करता है तो वह निरंतर, नित्य ईश्‍वर चैतन्य में ही निवास करता है, अर्थात् किसी और विषय के विचार से यदि स्वल्प व्यवधान आ भी जाए परंतु फिर भी उसका योगाभ्यास इतना दृढ़ होता है कि व्यवधान वास्तविक नहीं होता है, तथा महश्‍वेर प्राप्‍ति निरंतर होती ही रहती है। इस तरह से सिद्‍ध योगी देवनित्यत्व अवस्था में रहता है। उसकी दृष्‍टि के सामने से परमेश्‍वर ओझल नहीं होने पाता है। (वा.सू.कौ.भा.पृ. 116, ग.का.टी.पृ. 15)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

देश
स्थान।
पाशुपत साधक के रहने के लिए जिन विशिष्‍ट स्थानों का निर्देशन दिया गया है, वे स्थान देश कहलाते हैं। देश पाँच प्रकार का कहा गया है-गुरु, जन, गुहा, श्मशान और रुद्र। (ग.का.टी.पृ. 16)। इन स्थानों में बैठकर ही साधक पाशुपत योग के अभ्यास में सफलता को प्राप्‍त कर सकता है। अतः देश शब्द से उसका भौगोलिक अर्थ इस शास्‍त्र में अभिप्रेत नहीं है।
(पाशुपत शैव दर्शन)


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