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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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अज्ञान हानि
विशुद्‍धि का एक प्रकार।
पाशुपत साधक के सभी मलों की हानि अर्थात् समाप्‍ति जब होती है तब वह अज्ञान हानि नामक विशुद्‍धि को प्राप्‍त कर लेता है। योग साधना से पूर्व वह अपने आप को अनीश्‍वर अर्थात् अल्पशक्‍ति, अल्पज्ञ, अल्पकर्ता आदि समझता रहता है। यही उसका अज्ञान कहलाता है। परंतु योग के परिपक्‍व हो जाने पर वह अपने को दिव्याति दिव्य ऐश्‍वर्य से युक्‍त जब समझने लगता है तो उसके पूर्वोक्‍त अज्ञान का नाश हो जाता है। यही उसकी अज्ञान हानि कहलाती है। (ग. का. टी. पृ. 7)
(पाशुपत शैव दर्शन)

अतिगति
श्रेष्‍ठ अवस्था।
अतिगति परिपक्‍व पाशुपत योगी का एक लक्षण है। यह पाशुपत योग से प्राप्‍त होनेवाली वह श्रेष्‍ठ अवस्था होती है जिसे शिव तुल्यता कहते हैं। पाशुपत मत के अनुसार सिद्‍ध साधक अतितप या तप के द्‍वारा अतिगति अथवा परदशा को प्राप्‍त कर लेता है अर्थात् मुक्‍ति की अवस्था को प्राप्‍त करता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 69)। स्वर्गादि प्राप्‍ति या देवयान आदि गतियाँ सब गतियाँ कहलाती हैं। कौडिन्य ने तो सांख्य की कैवल्य अवस्था को भी गतियों में ही गिना है, क्योंकि सांख्य साधक उस अवस्था में प्रवेश करता है। पाशुपत योगी तो इस संसार में रहता हुआ ही अपने दिव्यातिदिव्य ऐश्‍वर्य को जब हृदयंगम कर लेता है तो वह इसी संसार में रहते हुए ही शिवतुल्य बन जाता है। अतः उसकी ऐसी अवस्था सभी गतियों से अतिक्रांत होती हुई अति गति कहलाती है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अतितप
श्रेष्‍ठ तप का एक लक्षण।
पाशुपत योग के अनुसार साधक को अतितप करना होता है। यह अतितप असाधारण अवस्थाओं की प्राप्‍ति में होता है। जैसे साधक का समस्त सुख, दुःख, दान, यज्ञ आदि से परे पहुँचना ही अतितप होता है। अर्थात् साधक को उस अवस्था में पहुँचना होता है जहाँ उसे सुख-दुःख आदि द्‍वंद्‍व स्पर्श नहीं करते हैं तथा उसे किसी यज्ञ या दानादि कृत्य करने की आवश्यकता नहीं रहती है। (पा. सूत्र कौ. भा. पृ. 69)।
गणकारिका में अतितप को ताप कहा गया है और इसे चर्या का एक प्रकार माना गया है। समस्त द्‍वंद्‍वों का कोई प्रतीकार न करते हुए, उनको अति सहिष्णु होकर सहना ही ताप या अतितप होता है। (ग. का. टी. पृ 17)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अतिदत्‍तम्
पर्याप्‍त से अधिक मात्रा में दान देना।
अतिदत्‍तम् पाशुपत साधक के लिए सिद्‍धि का एक सोपान है, परंतु दान शब्द से यहाँ पर गोओं, भूमि, धन आदि के दान से तात्पर्य नहीं है; अपितु अपनी आत्मा का दान ही पाशुपत मत में सर्वश्रेष्‍ठ दान है। यह दान अन्य सभी दानों से अतिक्रांत होता हुआ अतिदत्‍तम् कहलाता है। यह दान चर्या का एक प्राकर है, जहाँ साधक को अपने आप को ही ईश्‍वर के प्रति दान करना होता है। साधक अपने अशक्‍त और संकुचित जीवभाव को सर्वशक्‍तिमान् परिपूर्ण ऐश्‍वर्यभाव में विलीन कर देता है। इस तरह से मानो वह अपने आपका ही दान करता है। भूमि, धन आदि के दान से तो अस्थायी पुण्यफल की प्राप्‍ति होती है, लेकिन आत्मदान में स्थायी फल अर्थात् सद्‍सायुज्य की प्राप्‍ति होती है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 58)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अतीष्‍टम्
श्रेष्‍ठ यज्ञ।
पाशुपत मत के अनुसार शिवमंदिर में भस्मस्‍नान या क्राथन, स्पंदन आदि कृत्य अतीष्‍ट अर्थात् अतियजन हैं। वैदिक प्रक्रिया के अनुसार होने वाले अग्‍निष्‍टोम आदि यज्ञों में तो हिंसा के अनुस्यूत रहने से उनसे मिलने वाला फल संकीर्ण तथा अस्थायी होता है जो शीघ्र ही क्षीण होनेवाला होता है, परंतु पाशुपत मत के अनुसार अपने आपके साथ ही क्राथन, मंदन आदि के द्‍वारा किया जाने वाला साधक का हिंसा आदि से रहित यज्ञ श्रेष्‍ठ यज्ञ है जिसे अतीष्‍टम् अर्थात् साधारण यज्ञों को अतिक्रमण करनेवाला याग कहते हैं। यह याग भी चर्या का एक प्रकार है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 68)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अधर्म
मल का एक प्रकार।
भासर्वज्ञ के अनुसार पाप का बीज किंवा पाप ही अधर्म कहलाता है (ग. का. टी. पृ. 22)। अधर्म मल का दूसरा प्रकार है। इसके प्रभाव से प्राणी को नरकवास आदि सहन करना पड़ता है और जीवन के दुखों को झेलना पड़ता है। ये सभी अवस्थाएँ शोधनीय होने के कारण मलों में गिनी गईं हैं।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अधर्महानि
विशुद्‍धि का द्‍वितीय प्रकार।
पाशुपत योगी में जब योग साधना के बल से समस्त अधर्मों का नाश होता है तो उसकी वह शुद्‍धि अधर्महानि कहलाती है। (ग. का .टी . पृ. 7)। साधक के संचित पापकर्मों के भंडारों के होते हुए भी वे उसे प्रभावित नहीं कर सकते हैं, न ही उसे पुन: संसृति में उलझा सकते हैं। उसकी ऐसी महिमा अधर्महानि कहलाती है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अधिपति
परमेश्‍वर का एक नामान्तर।
ब्रह्मा आदि सभी देवगण अपने-अपने अधिकार क्षेत्र के पति हुआ करते हैं। भगवान शिव ब्रह्माण्ड के संचालक ब्रह्मा आदि देवाधिदेवों तथा इन्द्र आदि देवताओं के ऊपर भी शासन करता हुआ अपनी इच्छा से ठहराई हुई नियति के नियमों के अनुसार उन्हें चलाता रहता है, तथा उन पर भी निग्रह अनुग्रह आदि करता हुआ उन पतियों पर भी अपने उत्कृष्‍टतम आधिपत्य को निभाता हुआ सभी का अधिपति कहलाता है। (पा. सू. कौ. भा. प. 12)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अनावेश्यत्व
पाशुपत सिद्‍धि का एक लक्षण।
पाशपुत साधक जब सर्वव्यापकता की अवस्था को प्राप्‍त कर लेता है तब वह अनावेश्यत्व भाव को प्राप्‍त करता है; अर्थात् ऐसा हो जाने पर उसकी ज्ञानशक्‍ति को कोई भी अभिभूत नहीं कर सकता है। वह सबसे उत्कृष्‍ट दशा को प्राप्‍त कर लेता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ 47, 48; ग. का. टी. पृ. 10)। ज्ञानप्राति से पूर्व इंद्र आदि देवता उसके चित्‍त को तथा उसकी आत्मा को व्याप्‍त करते हुए उसमें आविष्‍ट हो सकते थे और वह उनके द्‍वारा आवेश्य बना रहता था। परंतु ज्ञान की प्राप्‍ति हो जाने पर वह स्वयं त्रिलोकी का अंतर्यामी बनकर सभी में आविष्‍ट हो सकता है। उसमें कोई भी आविष्‍ट नहीं हो सकता। उसकी ऐसी महिमा अनावेश्यत्व कहलाती है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अनिन्दितकर्मा
प्रशंसा पूर्ण कर्मों का कर्ता।
पाशुपत साधक जब मन्दन, स्पन्दन, क्राथन आदि निन्दनीय कार्य करते हुए लोक में घूमता है तो हर कोई उसकी अवमानना करता है, निन्दा करता है। लोगों के द्‍वारा इस तरह से अपमानित होते रहने से वह अनिन्दितकर्मा बन जाता है अर्थात् निन्दित होते रहने से उसके दोषों का क्षय हो जाता है तथा गुणों का वर्धन होता है क्योंकि पाशुपत मत में जितने भी निन्द्‍यमान कर्म करने को कहा गया है, वे साधक को मुख्य वृत्‍ति से नहीं करने होते हैं अपितु उसे निन्द्‍यमान आचरण का अभिनय मात्र करना होता है ताकि लोगों के द्‍वारा निन्दित होता रहे; परंतु तत्वत: गुप्‍त रूप से सत् आचरण करते-करते अनिन्दितकर्मा बना रहे। (पा. सू. कौ. भा. पृ 104)।
(पाशुपत शैव दर्शन)


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