पाशुपत साधक योग साधना में प्रौढ़ता प्राप्त करने पर भूतों का संहार कर सकता है परंतु उसका संहार कोई नहीं कर सकता, अर्थात् पाशुपत साधक में संहार सामर्थ्य आ जाती है। यमराज भी उसका अंत नहीं कर सकता है अपितु वह स्वयं अपनी सामर्थ्य से जीवित रहता है। प्राण के अधिष्ठातृदेवों की सहायता उसे नहीं पड़ती है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 48, 49)।
गणकारिका टीका में कहा गया है कि युक्त साधक का प्राण संबंध किसी दूसरे पर निर्भर नहीं रहता है, अर्थात् उसका जीवन और मृत्यु उसके अपने वश में होते हैं। (सत्त्वांतराधीन जीवित रहित्वअवध्यत्वम्-ग. का. टी. पृ. 10)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
अवमत
अपमानित।
पाशुपत मत के अनुसार साधक निंदनीय कृत्यों का अभिनय करते करते अपमानित होता रहता है। लोग उसकी निंदा करते रहते हैं। इससे उसमें संसार के प्रति विरक्ति और त्यागवृत्ति उत्पन्न होती है। परिणामत: वह योग के पथ पर अग्रसर होता रहता है। पाशुपत शास्त्र के अनुसार द्विज, श्रेष्ठ ब्राह्मण तथा साधक को प्रशंसा की इच्छा कभी भी नहीं करनी चाहिए; अपितु प्रशंसा को विष की तरह हानिकारक मानकर उससे घृणा करनी चाहिए। इसीलिए साधक को विडंबनीय कृत्यों का अभिनय करने के लिए कहा गया है ताकि वह प्रतिदिन अवमत (अपमानित) होता हुआ सभी सांसारिक संसर्गो से विरत होकर केवल योगवृत्ति का पालन करता रहे। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 79)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
अवश्यत्व
पाशुपत सिद्धि का एक लक्षण।
पाशुपत योग के अनुसार पाशुपत साधक को अनेकों सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। युक्त साधक स्वतंत्र हो जाता है, अर्थात् उसमें ऐसे ऐश्वर्य का समावेश हो जाता है जिससे वह आगे किसी पर निर्भर नहीं रहता है; न ही किसी के अधीन रहता है; अपितु समस्त भूत उसके पराधीन हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि वह सबसे उत्कृष्ट तथा उच्चतम स्थान को प्राप्त करता है। साधक की ऐसी स्वातन्त्र्य शक्ति उसकी अवश्यत्व नामक सिद्धि कहलाती है (पा. सू. कौ. मा. पृ. 46, 47; ग. का. टी. पृ. 10)।)
(पाशुपत शैव दर्शन)
अवस्था
दशाएँ।
पाशुपत साधक के तत्वप्राप्ति कर लेने पर उसकी भिन्न भिन्न उच्च दशाएँ अवस्थाएँ कहलाती हैं। पाशुपत साधना की प्रक्रिया में योगी जब आगे आगे बढ़ता है तो साधना अधिक अधिक तीव्र होती जाती है। उस साधना के पाँच सोपान माने गए हैं। उन्हें ही गणकारिका में 'पंच अवस्था' कहा गया है। अवस्थाएँ पंचविध हैं व्यक्ताव्यक्तं जयच्छेदो निष्टा चैवेह पंचमी।। 5।। (ग. का. 5)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
अवासा
वस्त्ररहित।
पाशुपत संन्यासी को संन्यास की उत्कृष्ट दशा में अवासा होना होता है, अर्थात् जब साधक ज्ञानदशा पर पूर्णरूपेण स्थित हो जाए, उसका कालुष्य क्षीण हो जाए तथा उसे हृदय में विद्यमान लज्जा का भाव पूर्णरूपेण समाप्त हो जाए, तब उसे वस्त्ररहित होकर रहना होता है। वह जिस रूप में इस संसार में आया है उसी वास्तविक रूप में उसे रहना होता है ताकि उसके पास कुछ भी न रहे जो उसको मोहबन्धन में डालकर कलुषित करे। वह पूर्णतया निष्परिग्रही होकर अपने शुद्ध स्वाभाविक रूप में ही रहे। (पा.सू.कौ.भा. पृ. 35)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
अव्यक्तलिंगी
अस्पष्ट चिह्नों वाला।
पाशुपत योग विधि के अनुसार पाशुपत साधक को साधना के ऊँचे स्तरों पर योग क्रियाओं की साधना अव्यक्त रूप से करनी होती है, अर्थात् योग साधना सबको दिखाते हुए नहीं करनी होती है। पाशुपत साधक साधना करता रहे परंतु उस साधना का कोई व्यक्त लिङ्ग (चिह्न) दूसरों को न दिखाई दे। इस तरह से पाशुपात साधक को योग साधना गुप्त रूप से करनी होती है। (पा. सू. सौ. भा. पृ. 78)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
अव्यक्तावस्था
अवस्था का दूसरा प्रकार।
पाशुपत योगी की साधना की द्वितीयावस्था अव्यक्तावस्था कहलाती है क्योंकि उस अवस्था में साधक को योग साधना के सभी चिह्नों का तथा विद्या आदि का गोपन करना होता है; अर्थात् सारी साधना गुप्त रूप से करनी होती है। शरीर पर ऐसा कोई चिह्न या द्रव्य धारण नहीं करना होता है जिससे उसका साधक होना व्यक्त या प्रकट हो जाए। अतः साधक की साधना के अप्रकट होने के कारण यह अवस्था अव्यक्तावस्था कहलाती है। प्रेतवत्, उन्मत्तवत् या मूढ़वत् जब साधक घूमता है तब भी वह अव्यक्तावस्था में ही होता है; क्योंकि तब भी उसका साधक होना व्यक्त नहीं होता है। (ग. का. पृ. 8)
(पाशुपत शैव दर्शन)
असंग
संगविहीन।
पाशुपत योग के अनुसार पाशुपत साधक को विषयों से पूर्णतया निवृत्त हो जाना चाहिए; क्योंकि विषयों में रागमयी प्रवृत्ति के कारण साधक के इष्ट ध्यान में भंग आता है और मन में अश्रद्धा उत्पन्न होती है। समस्त भूत, वर्तमान तथा भविष्य संबंधी विषयों से मन को खींच लेना असंगता होती है। साधक को असंगता को प्राप्त करना होता है। असंगता में महेश्वर के साथ ऐकात्म्य होता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 110); (तत्र लक्ष्यमाणस्य संगस्यात्यन्तव्यावृत्तिरसंगित्वम्-ग. का. टी. पृ. 16)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
असंव्यवहार
पाशुपत योग में यमों का एक प्रकार।
पाशुपत योगी को व्यवहार से रहित होना होता है। व्यवहार दो प्रकार का होता है-क्रय, विक्रय, व्यवसाय आदि जीवन निर्वाह का व्यवहार और राजनीति प्रशासन आदि अधिकारमय व्यवहार। इन दोनों प्रकारों के व्यवहारों से अपने को भी खेद होता रहता है और दूसरों को भी कष्ट दिया जाता है। पाशुपत योगी को जीवन निर्वाह आदि के समस्त व्यवहारों को छोड़कर एकमात्र साधना में लगा रहना होता है। उसकी साधना के इस अनुशासन को असंव्यवहार कहते हैं। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 22)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
असन्मान
अभिमान का परित्याग।
असन्मान पाशुपत योग की एक विधि है जो सबसे उत्तम विधि मानी गई है। इसमें साधक को अभिमान का पूर्णरूपेण त्याग करना होता है। अभिमान दो तरह का माना जाता है-जाति का अभिमान तथा गृहस्थ जीवन का अभिमान। अपने कुल, वर्ण आदि का अभिमान जात्याभिमान होता है और स्त्री, पुत्र आदि के साथ संबंध का अभिमान तथा घर, भूमि, पशुधन आदि के स्वामित्व का अभिमान गृहस्थी का अभिमान होता है। इन दोनों तरह के अभिमानों का त्याग अति उत्तम माना गया है-(असन्मानो हि यंत्राणां सर्वेषामुत्तम: स्मृत:-पा. सू. 4-9; पा. सू. कौ. भा. पृ. 100)।